Book Title: Bramhacharya Darshan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 226
________________ तप और ब्रह्मचर्य २१७ मन में उत्साह एवं स्फूति बनी रहे और साधक के मन में किसी प्रकार का दुर्ध्यान उत्पन्न न हो पाए । जिस तप की साधना से योगों की हानि न हो और इन्द्रियों की शक्ति का क्षय न हो, यही तप की परिसीमा है। तप का उद्देश्य है, चित्त की विशुद्धि और मन की निर्मलता। यह स्थिति जब तक बनी रहे, तभी तक साधक को तप करना चाहिए। तप के भेद : जैन शास्त्रों में एवं उसके मूल आगम ग्रन्थों में मुख्य रूप में तप के दो भेद किए गए हैं—बाह्य और आभ्यन्तर । बाह्य तप के छह भेद हैं, उसी प्रकार आभ्यन्तर तप के छह भेद हैं । छह प्रकार के बाह्य तपों में अल्प भोजन, उपवास, रस-परित्याग विविक्त शय्यासन और कृत्ति-संक्षेप-तपों का सीधा सम्बन्ध ब्रह्मचर्य के साथ है। क्योंकि अतिभोजन से, अधिक उपभोग से, विविध रसों का सेवन करने से, वत्तियों का विस्तार करने से और स्त्री, पशु एवं नपुसक आदि के अधिक साहचर्य से ब्रह्मचर्य का पालन नहीं किया जा सकता । अतः ब्रह्मचर्य के परिपालन में उक्त प्रकार के तप पूरक हैं । ब्रह्मचर्य को स्थिर बनाते हैं । इसी प्रकार आभ्यन्तर तपों में स्वाध्याय और ध्यान विशेष रूप से ब्रह्मचर्य के परिपालन में साधन बनते हैं। स्वाध्याय से मन का अज्ञान दूर होता है और ध्यान की साधना से मन की बिखरी हुई वृत्तियों को एकाग्र किया जा सकता है । इस प्रकार बाह्य और आभ्यन्तर दोनों ही प्रकार का तप ब्रह्मचर्य के पालन में आवश्यक ही नहीं, बल्कि परम आवश्यक माना गया है। तप और ब्रह्मचर्य एक दूसरे के विरोधी नहीं, सदा से सहयोगी रहे हैं । जिस प्रकार तप ब्रह्मचर्य में सहयोगी है, उसी प्रकार ब्रह्मचर्य की विशुद्ध साधना भी तप की आराधना में अत्यन्त उपयोगी है । यदि कोई साधक एक तरफ तो बाह्य और आभ्यन्तर कठोर से कठोर साधना करता जाए और दूसरी ओर स्त्रियों के सौन्दर्य में आसक्त होकर अपने अंगीकृत ब्रह्मचर्य का भंग करता जाए तो अध्यात्म क्षेत्र में उस तप की साधना का कुछ भी मूल्य शेष न रहेगा । तप की साधना तभी सफल होगी, जबकि उससे पूर्ण ब्रह्मचर्य की साधना की जाएगी। ब्रह्मचर्य का परिपालन करने के लिए और उसमें परिपूर्णता प्राप्त करने के लिए तप की भी नितान्त आवश्यकता है । संयम की साधना करने वाला और ब्रह्मचर्य की साधना करने वाला भोगाकांक्षी और भोगवादी कैसे हो सकता है ? शास्त्रों में तो यहाँ तक कहा गया है, कि ब्रह्मचर्य स्वयं अपने आप में एक महान तप है । भगवान महावीर ने कहा है कि-तपों में सर्वश्रेष्ठ तप ब्रह्मचर्य ही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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