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साधन खण्ड
तप और ब्रह्मचर्य :
भारतीय संस्कृति में तप और ब्रह्मचर्य में एक घनिष्ठ सम्बन्ध माना गया है। तप ब्रह्मचर्य का पूरक है और ब्रह्मचर्य तप का पूरक है। जहाँ तप होता है, वहाँ किसी न किसी रूप में ब्रह्मचर्य अवश्य ही रहता है और जब साधक ब्रह्मचर्य की साधना करता है, तब वह एक प्रकार से तप की ही साधना करता है । श्रमण संस्कृति में तप को विशेष महत्व मिला है। विविध प्रकार की विवेक मूलक तपस्याओं का जितना उदार एवं विशाल वर्णन आगम-साहित्य में उपलब्ध होता है, उसका शतांश भी अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता है । ब्रह्मचर्य और तप दोनों एक दूसरे के केवल पूरक ही नहीं, बल्कि संरक्षक और संवद्धक भी रहे हैं। वैदिक, जैन और बौद्ध तीनों परम्पराओं में साधकों के लिए जहाँ विविध प्रकार की तपस्याओं का उल्लेख मिलता है, वहाँ ब्रह्मचर्य अवश्य रहता है । एक भी ऐसी साधना नहीं है, जहाँ ब्रह्मचर्य को आवश्यक न माना हो । अतः यह कहा जा सकता है, कि समस्त भारतीय संस्कृति में तप और ब्रह्मचर्य के सुमेल पर एवं समन्वय पर अत्यधिक बल दिया गया है। तप की महिमा :
प्रश्न होता है कि तप क्या वस्तु है ? मानव-जीवन में उसका उपयोग क्या है ? उक्त प्रश्न के समाधान में कहा गया है कि-जीवन की वह प्रत्येक क्रिया तप है, जिसमें इच्छाओं का निरोध किया जाता है । तप की सबसे सुन्दर परिभाषा यही है, कि इच्छाओं का निरोध करना । अध्यात्म-विकास में तप को अत्यन्त उपयोगी इस आधार पर माना गया है, कि इससे चित्त-विशुद्धि और मन की निर्मलता बनी रहतो है । बिना तप के हमारी छोटी या बड़ी किसी प्रकार की भी साधना सफल नहीं हो सकती । जिस प्रकार अग्नि में तप कर स्वर्ण की चमक और दमक बढ़ जाती है और उसके ऊपर का मल दूर हो जाता है, उसी प्रकार तप की अग्नि में पड़कर साधक के जीवन की भी चमक-दमक बढ़ जाती है और उसके जीवन में आए हुए विकार और विकल्प नष्ट हो जाते हैं । धर्म-शास्त्रों में तप को धर्म का नवनीत कहा गया है, धर्म का सार कहा गया है । जैसे दुग्ध का सार नवनीत होता है और वह दुग्ध को मंथन
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