Book Title: Bramhacharya Darshan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 219
________________ ब्रह्मचर्य - दर्शन सी भी अवस्था स्थायी नहीं है। ऋतुकाल में पिता के वीर्य-बिन्दुओं के और माता के रजकणों के आधान से लेकर, यह शरीर क्रम से अनेक अवस्थाओं में अनुबद्ध हुआ करता है, जिसका वर्णन शरीर शास्त्र में विस्तार के साथ किया गया है । शरीर की इन विभिन्न अवस्थाओं के देखने से और जानने से विचार आता है कि मनुष्य इतने अपवित्र शरीर पर भी आसक्ति और ममता क्यों करता है ? अशुचि भावना का चिन्तन मनुष्य को राग से विराग की ओर ले जाता है । संवेग और वैराग्य : २१० 1 ब्रह्मचर्य की साधना करने वाले साधक के लिए यह आवश्यक है, कि वह अपने मन को सदा संवेग और वैराग्य में संलग्न रखे । किन्तु प्रश्न होता है, कि मनुष्य के मानस में संवेग और वेराग्य की भावना को स्थिर कैसे किया जाए ? इसके समाधान में आचार्य उमास्वाति ने स्वप्रणीत 'तत्वार्थ भाष्य' के सातवें अध्याय में वर्णन किया है कि - संवेग और वैराग्य को स्थिर करने के लिए ब्रह्मचर्य के साधक को अपने मानस में शरीर और जगत् के स्वभाव का चिन्तन करते रहना चाहिए । जगत् अर्थात् संसार का चिन्तन इस प्रकार करना चाहिए, कि यह संसार षड्द्रव्यों क 1 समूह रूप है । द्रव्यों का प्रादुर्भाव और तिरोभाव - उत्पाद और विनाश निरन्तर होता रहता है । संसार का स्वभाव है, बनना और बिगड़ना । संसार के नाना रूप दृष्टिगोचर होते हैं । उनमें से किसको सत्य मानें। संसार का जो रूप कल था, वह आज नहीं है और जो आज है, वह कल नहीं रहेगा । यह विश्व द्रव्य रूप में स्थिर होते हुए भी पूर्व पर्याय के विनाश और उत्तर पर्याय के उत्पाद से नित्य निरन्तर परिवर्तनशील है । इस संसार में एक भी पदार्थ ऐसा नहीं है, जो क्षण भंगुर और परिवर्तनशील न हो । जब संसार का एक भी पदार्थ स्थिर और शाश्वत नहीं है, तब भौतिक तत्वों से निर्मित यह देह और उसका रूप स्थिर और शाश्वत कैसे हो सकता है ? बाल अवस्था में जो शरीर सुन्दर लगता है, यौवनकाल में जो कमनीय लगता है, वही तन वृद्धावस्था में पहुँचकर अरुचिकर, असुन्दर और घृणित बन जाता है । फिर इस तन पर ममता करने से लाभ भी क्या है ? तन की इस ममता से ही वासना का जन्म होता है, जो ब्रह्मचर्य को स्थिर नहीं रहने देती । अतः तन की ममता को दूर करने के लिए साधक को शरीर और संसार के स्वभाव का चिन्तन करना चाहिए । बुःख-भावना : आचार्य उमास्वाति ने अपने 'तत्वार्थ भाष्य' में ब्रह्मचयं की स्थिरता के लिए दुःख - भावना का वर्णन भी किया है। कहा गया है, कि मैथुन-सेवन से कभी सुख प्राप्त नहीं होता । जैसे खुजली होने पर मनुष्य उसे खुजलाता है, खुजलाते समय कुछ काल के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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