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ब्रह्मचर्य-दर्शन
मिलेगा । अतः यह शरीर किस प्रकार पवित्र हो सकता है ? यह तो अशुचि एवं मलिन है । इस देह के नव द्वारों से सदा दुर्गन्धित रस भरता रहता है और इस रस से यह शरीर सदा लिप्त रहता है । इस अशुचि शरीर में और अपवित्र देह में सुन्दरता और पवित्रता की कल्पना करना, ममता और मोह की विडम्बना मात्र है । इस प्रकार निरन्तर शरीर की अशचि का चिन्तन करते रहने से मनुष्य के मन में वैराग्य-भावना तीव्र होती है और काम-ज्वर उपशान्त हो जाता है। ज्ञानार्णव :
आचार्य शुभचन्द्र ने अपने 'ज्ञानार्गव' में जिसका दूसरा नाम 'योग-प्रदीप' है, कहा है कि--इस संसार में विविध प्रकार के जीवों को जो शरीर मिला है, वह स्वभाव से हो गलन और सड़न-धर्मी है । अनेक धातु और उपधातुओं से निर्मित है। शुक्र और शोणित से इसकी उत्पत्ति होती है। यह शरीर अस्थि-पंजर है। हाड़, मांस और चर्बी की दुर्गन्ध इसमें से सदा आती रहती है। भला जिस शरीर में मलमूत्र भरा हो, कौन बुद्धिमान उस पर अनुराग करेगा ? इस भौतिक शरीर में एक भी तो पदार्थ पवित्र और सुन्दर नहीं है, जिस पर अनुराग किया जा सके। यह शरीर इतना अपवित्र और अशुचि है, कि क्षार-सागर के पवित्र जल से भी इसे धोया जाए तो उसे भी यह अपवित्र बना देता है । इस भौतिक तन की वास्तविक स्थिति पर जरा विचार तो कीजिए, यदि इस शरीर के बाहरी चर्म को हटा दिया जाए, तो मक्खी, कृमि, काक और गिद्धों से इसकी रक्षा करने में कोई समर्थ नहीं हो सकता। यह शरीर अपवित्र ही नहीं है, बल्कि हजारों-हजार प्रकार के भयंकर रोगों का घर भी है। इस शरीर में भयंकर से भयंकर रोग भरे पड़े हैं, इसीलिए तो शरीर को व्याधि का मन्दिर कहा जाता है । बुद्धिमान मनुष्य वह है, जो अशुचि भावना के चिन्तन और मनन से शरीर की गर्हित एवं निन्दनीय स्थिति को देखकर एवं जानकर, इसे भोग-वासना में न लगाकर, परमार्थ-भाव की साधना में लगाता है। विवेकशील मनुष्य विचार करता है, कि इस अपवित्र शरीर की उपलब्धि के प्रारम्भ में भी दुःख था, अन्त में भी दुःख होगा और मध्य में भी यह दुःख रूप ही है। भला जो स्वयं दुःख रूप है, वह सुख रूप कैसे हो सकता है ? इस अपवित्र तन से सुख की आशा रखना मृग-मरीचिका के तुल्य है । इस अशुचि भावना के चिन्तन का फल यह है कि मनुष्य के मानस में त्याग और वैराग्य के विचार तरंगित होने लगते हैं और वह अपनी वासना पर विजय प्राप्त कर लेता है। तत्त्वार्थ-भाष्य :
आचार्य उमास्वाति ने स्वप्रणीत 'तत्वार्थ:-भाष्य' में ब्रह्मचर्य-व्रत की पाँच भावनाओं का बड़ा सुन्दर वर्णन किया है। उसमें कहा गया है, कि ब्रह्मचर्य-व्रत की
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