Book Title: Bramhacharya Darshan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 216
________________ ब्रह्मवर्य के प्राचार-बिन्दु २०७ अपने रूप और सौन्दर्य पर आसक्ति-भाव न हो। क्योंकि शरीर ही ममता एव आसक्ति का सबसे बड़ा केन्द्र है। मनुष्य जब किसी सुन्दर नारी के मोहक रूप एवं सौन्दर्य को देखता है, तब वह मुग्ध होकर अपने अध्यात्म-भाव को भूल जाता है । इसी प्रकार नारी भी किसी पुरुष के सौन्दर्य को देखकर मुग्ध बन जाती है। फलतः दोनों के मन में काम-राग की उत्पत्ति हो जाती है। इस स्थिति में ब्रह्मचर्य का परिपालन कैसे किया जा सकता है ? अस्तु, अपने एवं दूसरों के शरीर की आसक्ति एवं व्यामोह को दूर करने के लिए ही शास्त्रकारों ने अशुचि भावना का उपदेश दिया है। द्वादशानुप्रेक्षा : स्वामी कार्तिकेय ने अशुचि-भावना का वर्णन करते हुए लिखा है कि-हे साधक ! तू देह पर आसक्ति क्यों करता है ? जरा इस शरीर के अन्दर के रूप को तो देख, इसमें क्या कुछ भरा हुआ है। इसमें मल-मूत्र, हाड़-मांस और दुर्गन्ध के अतिरिक्त रखा भी क्या है ? चर्म का पर्दा हटते ही इसकी वास्तविकता तेरे सामने आ जाएगी। इस शरीर पर चन्दन एवं कपूर आदि सुगन्धित द्रव्य लगाने से वे स्वयं भी दुर्गन्धित हो जाते हैं। जो कुछ सरस एवं मधुर पदार्थ मनुष्य खाता है, वह सब कुछ शरीर के अन्दर पहुँचकर मलरूप में परिणत हो जाता है । और तो क्या, इस शरीर पर पहना जाने वाला वस्त्र भी इसके संयोग से मलिन हो जाता है । हे भव्य ! जो शरीर इस प्रकार अपवित्र एवं अशुचिपूर्ण है, उस पर तू मोह क्यों करता है, आसक्ति क्यों करता है ? तू अपने अज्ञान के कारण ही इस शरीर से स्नेह और प्रेम करता है। यदि इसके अन्दर का सच्चा रूप तेरे सामने आ जाए, तो एक क्षण भी तू इसके पास बैठ नहीं सकेगा । खेद की बात है कि मनुष्य अपने पवित्र आत्म-भाव को भूलकर, इस अशुचिपूर्ण शरीर पर मोह करता है। यह शरीर तो अशुचि, अपवित्र और दुर्गन्धयुक्त है । इस प्रकार अशुचि भावना के चिन्तन से साधक के मानस में त्याग और वैराग्य की भावना प्रबल होती है । इससे रूप की आसक्ति मन्द होती है, जिससे ब्रह्मचर्य के पालन में सहयोग मिलता है। योग-शास्त्र : ____ आचार्य हेमचन्द्र ने अपने 'योग-शास्त्र' के चतुर्थ प्रकाश में द्वादश भावनाओं का बड़ा सुन्दर एवं मनोवैज्ञानिक वर्णन किया है। उसमें छठी 'अशुचि-भावना का वर्णन करते हुए कहा गया है कि यह शरीर जिसके रूप और सौन्दर्य पर मनुष्य अहंकार एवं आसक्ति करते हैं, वह वास्तव में क्या है ? वह शरीर रस, रक्त, मांस, मेद (चर्बी), अस्थि (हाड़), मज्जा, वीर्य, आँत एवं मल-मूत्र आदि अशुचि पदार्थों से परिपूर्ण है । चर्म के पर्दे को हटाकर देखा जाए, तो यह सब कुछ उसमें देखने को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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