Book Title: Bramhacharya Darshan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 214
________________ ब्रह्मचर्य के प्राचार-बिन्दु २०५ भी प्रारम्भिक ब्रह्मचर्य रूपी बाल पौधे की रक्षा के लिए, बाड़ की नितान्त आवश्यकता है । भगवान् महावीर ने 'स्थानाङ्ग सूत्र' में समाधि, गुप्ति और बाड़ों का कथन किया है । उत्तरकालीन आचार्यों ने भी अपने-अपने ग्रन्थों में ब्रह्मचर्य की रक्षा के इन उपायों का विविध प्रकार से उल्लेख किया है, जिसे पढ़कर साधक ब्रह्मचर्य की साधना में सफल हो सकता है और अपने मन के विकारों पर विजय प्राप्त कर सकता है । स्थानाङ्ग सूत्र : १. ब्रह्मचारी स्त्री' से विविक्त शयन एवं आसन का सेवन करने वाला हो । स्त्री, पर एवं नपुंसक से संसक्त स्थान में न रहे । २. स्त्री-कथा न करे। ३. किसी भी स्त्री के साथ एक आसन पर न बैठे। ४. स्त्रियों को मनोहर इन्द्रियों का अवलोकन न करे। ५. नित्यप्रति सरस भोजन न करे। ६. अति मात्रा में भोजन न करे । ७. पूर्व-सेवित काम-क्रीडा का स्मरण न करे । ८. शब्दानुपाती और रूपानुपाती न बने । 8. साता और सुख में प्रतिबद्ध न हो । उत्तराध्ययन सूत्र : १. ब्रह्मचारी स्त्री, पशु एवं नपुंसक-सहित मकान का सेवन न करे। २. स्त्री-कथा न करे। ३ स्त्री के आसन एवं शय्या पर न बैठे। ४. स्त्री के अङ्ग एवं उपाङ्गों का अवलोकन न करे । ५. स्त्री के हास्य एवं विलास के शब्दों को न सुने । ६. पूर्व-सेवित काम-क्रीडा का स्मरण न करे । ७. नित्य प्रति सरस भोजन न करे । ८. अति मात्रा में भोजन न करे। ६. विभूषा एवं शृंगार न करे । १०. शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श का अनुपाती न हो मनगार धर्मामृत : १. ब्रह्मचारी रूप, रस, गन्ध, स्पर्श तथा शब्द के रसों का पान करने को इच्छा न करे। १. ब्रह्मचर्य के प्रसंग में यहाँ एवं अन्यत्र जहाँ कहीं पुरुष ब्रह्मचारी के लिए स्त्री-संसर्ग का 'निषेध किया है, वहाँ स्त्री ब्रह्मचारियों के लिए पुरुष-संसर्ग का निषेध भी है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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