________________
मनोविज्ञान : ब्रह्मचर्य
१५७ स्वरूप, मनुष्य दूसरे प्राणियों से भिन्न श्रेणी का समझा जाता है, तथापि यदि हम संसार के विगत इतिहास को देखें तथा विभिन्न जातियों के साहित्य का अध्ययन करें, तो उसमें काम-वासना की व्यापकता के अनेकविध प्रमाण उपलब्ध होते हैं । यूनान के इतिहास में और तो क्या, पुत्र और माता के काम-सम्बन्ध का प्रमाण भी मिलता है । मिस्र देश के इतिहास में, भाई-बहिन के काम-सम्बन्ध का उल्लेख है। भारतीय पौराणिक साहित्य में, बताया गया है कि बहिन यमी अपने भाई यम के प्रेम में फंस जाती है और यम उसे सदाचार की शिक्षा देकर, उसकी वासना को शान्त करने का प्रयत्न करता है । इतिहास के इन उदाहरणों से यह प्रमाणित हो जाता है कि सभी कालों में और देशों में काम-वासना की व्यापकता रही है। मनोविज्ञान के पण्डित इस जगत के सम्पूर्ण व्यापारों के मूल में काम-वासना को मूल कारण स्वीकार करते हैं और उसका विश्लेषण करके उसके अच्छे-बुरे दोनों पहलुओं पर गम्भीरता के साथ विचार करते हैं। वासना का दमन :
-समाज में काम-वासना का इतना अधिक दमन किया जाता है, कि मन में उसकी सत्ता रहते हुए भी लोग उसकी सत्ता से इन्कार कर देते हैं । फ्रायड ने एवं मनोविज्ञान के अन्य पण्डितों ने यह लिखा है कि वासना का दमन करने से वासना नष्ट नहीं होती, बल्कि वह कुछ काल के लिए चेतन मन से अचेतन मन में चली जाती है। किन्तु जब तक उसका दमन होता रहेगा, वह मनोविज्ञान के सिद्धान्त के अनुसार मनुष्य के मन को मौन नहीं बैठने देगी। मनोविज्ञान के सिद्धान्त के अनुसार जब काम-वासना का दमन किया जाता है, तब उसके दो परिणाम निकलते हैं-उचित दमन से उसकी शक्ति का उच्चकोटि के कामों में प्रकाशन और अनुचित दमन से उसका विकृत रूप से प्रकाशन । पहले प्रकार का प्रकाशन, काम-वासना का ऊर्ध्वगमन अथवा शोधन कहलाता है, और दूसरे प्रकार का प्रकाशन अधोगमन एवं विकार कहलाता है। मनोविज्ञान के पण्डिल कहते हैं कि मानव-संस्कृति का विकास काम-वासना के संशोधन एवं ऊर्ध्व गमन से होता है और उसके दुरुपयोग से उसका विनाश होता है । यह वासना इतनी प्रबल होती है कि सब प्रकार के प्रतिबन्ध होने पर भी वह किसी न किसी प्रकार फूट कर बाहर निकल आती है। वह व्यक्ति के अचेतन मन को अनेक प्रकार से धोखा देना जानती है । अतएव मन की असावधानी के कारण बाहर निकल कर वह अनेक रूप धारण कर लेती है । जैसे कुस्वप्न, अश्लील गाली, अश्लील गायन, और अश्लील व्यवहार । जब इस वासना को सीधे निकलने के लिए मार्ग नहीं मिलता, तब वह अनेक प्रकार के टेढ़े-मेढ़े रास्ते खोजने लगती है । इसी कारण मनुष्य के चरित्र में अनेक प्रकार के दुराचार एवं पापाचार करने की प्रवृत्ति प्रबल हो जाती है । अनेक प्रकार के उन्माद भी इसी के परिणाम हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org