Book Title: Bramhacharya Darshan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 189
________________ १५० ब्रह्मचर्य दर्शन ब्रह्मचर्य का पालन केवल आदर्श ही नहीं, बल्कि वह जीवन की यथार्थता के धरातल पर भी उतर सकता है। भारतीय संस्कृति में, इसी आधार पर ब्रह्मचर्य की अपार महिमा गाई है । ब्रह्मचर्य का अर्थ क्या है ? ब्रह्म-भाव एवं आत्मभाव के लिए, सतत प्रयत्न करते रहना । प्रयत्न करते रहना ही नहीं, अन्ततः ब्रह्मभाव एवं आत्मभाव में सर्वतोभावेन लीन हो जाना, निर्विकार हो जाना। ब्रह्मचर्य की साधना एक अध्यात्म साधना है । ब्रह्मचर्य के सम्बन्ध में गांधी जी ने लिखा है कि ब्रह्मचर्य किसी एक इन्द्रिय का संयम नहीं है, वह सम्पूर्ण इन्द्रियों का संयम है, वह जीवन का सर्वाङ्गीण संयम है । ब्रह्मचर्य का पालन उसी समय सम्भव है, जबकि विशेषतः आँख, कान और जबान पर नियंत्रण रखा जाए । ब्रह्मचर्य की साधना करने वाले को अपने मन में यह संकल्प करना चाहिए कि वह आँखों से किसी नारी के सौन्दर्य को अपलक दृष्टि से नहीं देखेगा, शृंगारी कहानी एवं उपन्यास नहीं पढ़ेगा और शृगारिक चित्र नहीं देखेगा। वह अपने कानों से, शृंगारिक गीत नहीं सुनेगा । वह अपनी जबान से अश्लील शब्दों का उच्चारण नहीं करेगा । जब इस प्रकार के व्रतों का वह पालन करेगा तब उसके लिए ब्रह्मचर्य की साधना असम्भव नहीं रहेगी। लोकमान्य तिलक के जीवन का संस्मरण लिखते हुए एक लेखक ने लिखा है कि एक बार एक स्त्री, जो स्वस्थ एवं तरुणी थी, जिसका सौन्दर्य अद्भुत था और जिसके अङ्ग-प्रत्यङ्गों से सुन्दरता की सरिता प्रवाहित हो रही थी, वह तिलक के पास किसी विषय पर विचार करने के लिए आई । तिलक उस समय (Reading room) में बैठे हुए थे और अपने किसी विषय पर गम्भीर चिन्तन और मनन कर रहे थे । उन्होंने अपने अध्ययन-कक्ष में जब उस स्त्री को प्रवेश करते हुए देखा, तब एक बार उसकी ओर देख कर तुरन्त ही उन्होंने अपने नेत्र, अपनी पुस्तक पर स्थिर कर लिए। वह स्त्री लगभग तीन घण्टे तक उनके सामने बैठी रही, लेकिन तिलक ने एक बार भी फिर उसकी ओर नहीं देखा । इसी को भारतीय संस्कृति में नेत्र-संयम कहते हैं। उस विदेशी लेखक ने लिखा है कि-"लोकमान्य की तेजस्वी आँखों में मैंने जो तेज देखा, वह संसार के अन्य किसी पुरुष की आँखों में नहीं देखा।" प्रश्न होता है कि यह तेज कहाँ से आया ? उत्तर एक ही होगा कि ब्रह्मचर्य से । बिना ब्रह्मचर्य की साधना के इस प्रकार का अद्भुत तेज, अन्यत्र सुलभ नहीं है, और सम्भव भी नहीं है । इतिहास के परम विद्वान राजबाड़े के जीवन का यह व्रत था कि वे कभी चारपाई पर नहीं सोते थे, जमीन पर कम्बल बिछाकर ही सोया करते थे। जब उनकी अवस्था केवल पच्चीस वर्ष की थी, तो सहसा किसी बीमारी के कारण उनकी पत्नी का देहान्त हो गया। मित्रों ने और अन्य लोगों ने दूसरा विवाह करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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