Book Title: Bramhacharya Darshan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 187
________________ १७८ मार्य च है । इस सन्दर्भ में महाकवि अश्वघोष ने अपने 'बुद्ध-चरित' में वर्णित किया है कि मार ने सुन्दर से सुन्दर अप्सराएँ भेजकर, उनके संगीत-नृत्य और विविध प्रकार के हावभावों से बुद्ध के साधनालीन चित्त को विचलित करने का पूर्ण प्रयत्न किया, किन्तु बुद्ध अपनी साधना में एक स्थिर योद्धा की भांति अजेय रहे, अकम्प और अडोल रहे । महाकवि अश्वघोष ने अन्त में यह लिखा कि वासना के इस भयङ्कर युद्ध में, मार पराजित हुआ और बुद्ध विजेता बने । बौद्ध संस्कृति में यह बतलाया गया है कि जब तक साधक अपने मन के मार पर विजय प्राप्त नहीं कर लेता है, तब तक वह बुद्ध बनने के योग्य नहीं है, बुद्ध बनने के लिए मार अर्थात् काम पर विजय प्राप्त करना आवश्यक है। श्रमण-संस्कृति के ज्योतिर्धर इतिहास में तो एक नहीं, अनेक हृदयस्पर्शी जीवन-गाथाओं का अङ्कन किया गया है , जिनमें ब्रह्मचर्य की साधना के सम्बन्ध में पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। मनुष्य जीवन के लिए प्रेरणाप्रद एवं दिशा-दर्शक रूपक आख्यानों से ब्रह्मचर्य की साधना करने वाले साधकों के लिए पवित्र प्रेरणा. और बल प्राप्त होता है । मूल आगमों में 'राजीमती' और 'रयनेमि का वर्णन आज भी उपलब्ध हैं। रथनेमि, जो अपने युग का कठोर साधक था, रैवताचल की गुफा के एकान्त स्थान में राजीमती के अद्भुत सौंदर्य को देख कर मुग्ध हो जाता है, वह अपनी साधना को भूल जाता है, और वासना का दास बनकर राजीमती से वासना की याचना करने लगता है। परन्तु उस ज्योतिर्मय नारी ने उसकी इस संयम-भ्रष्टता की भर्त्सना की और कहा कि कोई भी साधक अपनी साधना में तब तक सफल नहीं हो सकता, जब तक कि वह अपने मन के विकल्पों को न जीत ले । रूप को देख कर भी जिसके मन में रूप के प्रति आसक्ति उत्पन्न न हो, वही वस्तुतः सच्चा साधक है । काम और वासना पर बिना विजय प्राप्त किए, अपनी साधना के अभीष्ट फल को अधिगत नहीं कर सकता। और तो क्या, भ्रष्ट जीवन की अपेक्षा तो मरण ही श्रेयकर है । राजीमती के अध्यात्म उपदेश को सुनकर रथनेमि पुनः संयम में ही स्थिर हो गया। आचार्य हेमचन्द्र ने अपने 'त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित' में एक महान साधक के जीवन का बड़ा ही सुन्दर एवं भव्य चित्र अङ्कित किया है। वे महान साधक थे. 'स्थूल भद्र' जिन्होंने अपने जीवन की ज्योति से ब्रह्मचर्य की साधना को सदा के लिए ज्योतिर्मय बना दिया। दो हजार वर्ष जितना लम्बा एवं दीर्घ समय व्यतीत हो माने पर भी आज सक के साधक, ब्रह्मचर्य व्रत के अमर साधक स्थूलभद्र को भूल नहीं सके हैं । स्थूलभद्र के जीवन के सम्बन्ध में आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है कि वे योगियों में श्रेष्ठ योगी, ध्यानियों में श्रेष्ठ ध्यानी, और तपस्वियों में श्रेष्ठ तपस्वी थे । स्थूलभद्र की इस यशो-गाथा को सुनने के बाद सुनने वाले के दिमाग में यह प्रश्न उठता है कि आखिर वह क्या साधना की थी, कैसे की थी और कहां की थी ? For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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