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नीति-शास्त्र : ब्रह्मचर्य
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जाता है । चरित्र के विज्ञान का अर्थ है, जिसमें मनुष्य के आचार पर वैज्ञानिक पद्धति से विचार किया जाए । क्योंकि मनुष्य वही कुछ करता है, जिसे वह पहले किसी न किसी रूप में जान चुका है। नीति-शास्त्र हमें यह बतलाता है कि सत्कर्म से पुण्य होता है और असत् कर्म से पाप । नोति-शास्त्र पुण्य और पाप तथा धर्म-अधर्म के लक्षणों का विवेचन करता है। वह इस तथ्य को जानने का प्रयत्न करता है कि मनुष्य के द्वारा किया गया कोई भी कर्म सत् और असत् क्यों होता है, वह शुभ और अशुभ कैसे होता है ? नीति-शास्त्र पुण्य और पाप को व्यक्ति की नैतिक योग्यताएँ मानता है। नीति-शास्त्र पुण्य और पाप तथा उनके फल पर एक वैज्ञानिक पद्धति से विचार प्रस्तुत करता है । नीति-शास्त्र के लिए इच्छा-स्वातन्त्र्य एक स्वीकृत सत्य है । प्रत्येक व्यक्ति किसी भी कर्म को करने में स्वतन्त्र है, भले ही वह कर्म शुभ हो या अशुभ, सत् हो या असत्, एवं अच्छा हो या बुरा । प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छानुसार, वह जैसा भी चाहे कर्म कर सकता है, किन्तु इस कर्म का फल उस व्यक्ति के हाथ में नहीं रहता । इसी आधार पर यह कहा जाता है कि नीति-शास्त्र हमारी जीवन की प्रत्येक क्रिया पर सूक्ष्म से सूक्ष्म अनुसंधान करता है और मनुष्य को अशुभ मार्ग से हटाकर शुभ मार्ग की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा करता है । यही नीति-शास्त्र का मुख्य ध्येय है। महावीर का प्राचार-शास्त्र :
भगवान् महावीर ने अपने आचार-शास्त्र की आधार-शिला अहिंसा एवं समत्वयोग को बनाया। उनका कथन है, कि अहिंसा के बिना मानव-संस्कृति का उन्नयन एवं अभ्युत्यान नहीं हो सकता । अहिंसा मानव-आत्मा की एक विराट, विशाल एवं व्यापक भावना है, जिसमें समग्र विश्व को आत्मसात् करने की अद्भुत क्षमता एवं योग्यता है । जिस प्रकार वेदान्त का ब्रह्म, विश्व के कण-कण में परिव्याप्त है, उसी प्रकार भगवान महावीर की अहिंसा, चेतनात्मक जगत के प्राण-प्राण में परिव्याप्त है । अहिंसा का अर्थ है--सहयोग, सहकार और अस्तित्व । अहिंसा का अर्थ है-एक प्राण का दूसरे प्राण के साथ आत्मीय सम्बन्ध । जो कुछ अपने को अनुकूल और रुचिकर नहीं है, वही दूसरे को भी अनुकूल और रुचिकर कैसे हो सकता है ? अहिंसा का यह विराट् भाव ही भगवान महावीर की अहिंसा का मूल आधार है ।
भगवान महावीर के आचार-शास्त्र के अनुसार आचार के पाँच भेद हैंअहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । यद्यपि साधना की दृष्टि से और स्वरूप की दृष्टि से इस आचार में किसी प्रकार का विभेद नहीं है फिर भी साधक की योग्यता को देखकर, इसके दो खण्ड किए गए हैं--श्रावक-आचार और दूसरा श्रमण-आचार । श्रावक-आचार को अणुव्रत कहा जाता है और श्रमण-आचार को
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