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प्रात्म-शोधन
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जैनधर्म ने इस रूप में भेद-विज्ञान की उपदेशना की है। भेद-विज्ञान के विषय में हमारे यहां यह कहा गया हैमेव-विज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन ।
-आचार्य अमृतचन्द्र अनादिकाल से आज तक जितनी भी आत्माएँ मुक्त हुई हैं, और जो आगे होंगी, वे तुम्हारे इस कोरे क्रियाकाण्ड से नहीं हुई हैं, और न होंगी। यह तो निमित्त-मात्र है। मुक्ति तो भेद-विज्ञान द्वारा ही प्राप्त होती है । जड़ और चेतन को अलग-अलग समझने से ही मोक्ष प्राप्त होता है ।
____ जड़ और चेतन को अलग-अलग समझना एक महत्वपूर्ण दृष्टिकोण है । इस दृष्टिकोण से जब आत्मा स्वयं को देखती और साधना करती है, तभी जीवन में रस आता है । वह रस क्या है ? आत्मा भेद-विज्ञान की ज्योति को आगे-आगे अधिकाधिक प्रकाशित करती जाती है और एक दिन उस स्वरूप में पहुँच जाती है, कि दोनों में सचमुच ही भेद हो जाता है । जड़ से आत्मा सम्पूर्ण रूप से पृथक् हो जाती है और अपने असली स्वभाव में आ जाती है। इस प्रकार पहले भेद-विज्ञान होता है और फिर भेद हो जाता है।
इस प्रकार पहली चीज है, भेद-विज्ञान को पा लेना । सर्वप्रथम यह समझ लेना है, कि जड़ और चेतन एक नहीं हैं। दोनों को अलग-अलग समझना है, अलग-अलग करने का प्रयत्न करना है । जड़ और चेतन की सर्वथा भिन्न दशा को ही वस्तुतः मोक्ष कहा गया है । जड़, जड़ की जगह और चेतन, चेतन की जगह पहुँच जाता है । जो गुण-धर्म आत्मा के अपने हैं, वे ही वास्तव में आत्मा में शेष रह जाते हैं ।
जैनधर्म का यह आध्यात्मिक सन्देश है । उसने मनुष्य को उच्च जीवन के लिए बल दिया है, प्रेरणा दी है।
अभिप्राय यह है, कि स्वभाव को विभाव और विभाव को स्वभाव नहीं समम लेना चाहिए । आज तक यही भूल होती आई है, कि स्वभाव को विभाव और विभाव को स्वभाव समझ लिया गया है। दो दर्शन दोनों किनारों पर खड़े हो गए हैं और उनमें से एक कहता है, कि चाहे जितनी शुद्धि करो, आत्मा तो शुद्ध होने वाला है नहीं । दूसरा कहता है, कि आत्मा तो सदा से ही विशुद्ध है । शुद्ध को और क्या शुद्ध करना है ?
एक बार जब मैं दिल्ली में था, वहाँ गाँधी मैदान में एक बड़े दार्शनिक भाषण कर रहे थे।
उन्होंने कहा, "पतन होना मनुष्य की मूल प्रकृति है । गिर जाना, पथभ्रष्ट होना, विषयों की ओर जाना और वासनाओं की ओर आकृष्ट होना, आत्मा का स्वभाव
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