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ब्रह्मचर्य का प्रभाव इयं हयं गीनं, हास भुत्तासिमाणि य। पणीनं भत्त-पाणं च, मइमायं पाण-भोयणं ।
--उत्तराध्ययन सूत्र स्त्री जनों से युक्त मकान में रहना वहाँ बहुत आवागमन रखना, स्त्रियों के सम्बन्ध को लेकर मनोमोहक बातें करना, स्त्री के साथ एक आसन पर बैठना, बहुत घनिष्ठता रखना, उनके अंगोपांगों की ओर देखना, उनके कूजन, रुदन और गायन को मन लगा कर सुनना, पूर्व-भुक्त भोगोपभोगों का स्मरण किया करना । उत्तेजना-जनक आहार-पानी का सेवन करना और परिमाण से अधिक भोजन करना, यह सब बातें ब्रह्मचारी के लिए विष के समान हैं। और यही बात पुरुष-सम्पर्क को ले कर ब्रह्मचारिणी स्त्री के लिए भी समझना चाहिए।
अभिप्राय यह है, कि कान, आँख, और जीभ पर तथा मन पर जो जितना काबू पा सकेगा, वह उतनी ही दृढ़ता के साथ ब्रह्मचर्य की साधना के पथ पर अग्रसर हो सकेगा। इस रूप में जो जीवन को सीधा-साधा बनाएगा, उसमें पवित्रता की लहर पैदा हो जाएगी और वह अपने जीवन को कल्याणमय बना सकेगा। व्यावर, १३-११-५० ।
अध्यात्मिक-साधना को चरम परिणति निष्काम भाव में है। जब तक कामना के विषाक्त कौट अन्तर्मन में खटकते रहते हैं, तब तक निराकुलता-स्वरूप सहज मानन्द कैसे उपलब्ध होसकता है? कामना के कांटों को निकाले बिना प्राध्यात्मिक साधना के दिव्य भाव को गलने-सड़ने से कथमपि नहीं बचाया जा सकता।
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