________________
१३६
ब्रह्मचर्य-दर्शन
चर्य शब्द का व्यापक अर्थ है । जो व्यक्ति अपने वीर्य को, अपनी शक्ति की रक्षा करता है तथा अपने को वीर्यसम्पन्न बनाने का निरन्तर प्रयत्न करता है, उसी के अमल एवं धवल हृदय में, विमल ब्रह्म-भाव का उदय होता है । इसी आधार पर ब्रह्मचर्य शब्द का प्रयोग वीर्य-रक्षा के अर्थ में किया जाता है । वीर्य-रक्षा के नाम पर लोक-प्रचलित ब्रह्मचर्य के मात्र शरीर-सम्बन्धी संकुचित अर्थ के पीछे, ब्रह्मचर्य शब्द को वास्तविक गम्भीरता, विशालता एवं व्यापकता को नहीं भूल जाना चाहिए । ब्रह्मचर्य शब्द का अर्थ है, जोवन को महान् बनाना, शक्ति का संचय करना और मन की बिखरी हुई वृत्तियों को एकत्रित करना । अतः ब्रह्मचर्य का सबसे अधिक व्यापक अर्थ यह है कि अपने शरीर की शक्ति बढ़ाना, अपनी वाणी की शक्ति को बढ़ाना और अपने मन की मौलिक विशुद्ध संकल्प शक्ति का विकास करना अर्थात् भौतिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों का सर्वोत्कृष्ट विकास करना । इसी को ब्रह्मशक्ति का बहुमुखी विकास कहते हैं । साधक अपने ब्रह्म का, अपने आत्म-भाव का तथा साथ ही साधन रूप में अपने वीर्य का, अपने शुक का संरक्षण, संशोधन एवं परिवर्धन करता है, वही वस्तुतः ब्रह्मचर्य की साधना में सफल होता है।
कुछ लोग शरीर की अभिवृद्धि और शरीर की स्थूलता को ही, ब्रह्मचर्य मानते हैं । परन्तु उनका यह विश्वास वास्तविक नहीं है । इसमें सन्देह नहीं कि ब्रह्मचर्य से शारीरिक शक्ति को उन्नति होती है, क्योंकि ब्रह्मचर्य की शक्ति वस्तुतः एक बहुत बड़ी शक्ति है, किन्तु शरीर के स्थूलत्व का सम्बन्ध शक्ति के साथ नहीं है । एक व्यक्ति स्थूलकाय होकर भी दुर्बल एवं बलहीन हो सकता है । इसके विपरीत एक दूसरा व्यक्ति जो कृशकाय है, वह सबल एवं बलवान भी हो सकता है । शक्ति का केन्द्र, ब्रह्मचर्य है, स्थूल शरीर नहीं। यह बात अवश्य है, कि ब्रह्मचर्य और दुर्बलता दोनों एक साथ नहीं रह सकते । जहाँ दुर्बलता है, वहीं ब्रह्मचर्य नहीं, और जहाँ ब्रह्मचर्य है वहाँ दुर्बलता टिक नहीं सकती । जहाँ प्रकाश है वहाँ अन्धकार कैसे रहेगा ? अतः ब्रह्मचर्य का अर्थ है, शक्ति, क्रियाशीलता, ओजस्विता, तत्परता, सहनशीलता और मन का अपार उत्साह । ब्रह्मचर्य का अर्थ मोटापन, पहलवानी और शरीर का भारीपन नहीं किया जा सकता । जो लोग शरीर के स्थूलत्व को ब्रह्मचर्य का प्रतीक मानते हैं, वे ब्रह्मचर्य शब्द के साथ बड़ा अन्याय करते हैं ।
भारत के प्राचीन योगी, ऋषि एवं मुनियों ने ब्रह्मचर्य शब्द की व्याख्या करते हुए यह बताया है कि, आठ प्रकार के मैथुन से विरत होना ही ब्रह्मचर्य है । वे आठ मैथुन इस प्रकार हैं-स्मरण, कीर्तन, केलि, प्रेक्षण, गुह्य-भाषण, संकल्प,
१. स्मरणं कीर्तनं केलिः प्रेक्षणं गुह्य-भाषणम् ।
संकल्पोऽध्यवसायश्च क्रिया • निर्वृत्तिरेव च ||३१||
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org