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ब्रह्मचर्य की परिधि
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बैठता । जागरण अवस्था में ही नहीं, सुषुप्ति.अवस्था में भी वह, संकल्प और विकल्पों के ताने-बाने बुनता रहता है । इस जगती-तल पर अन्य कोई ऐसा पदार्थ नहीं है, जो वेग में एवं गति में मनुष्य के मन की समता कर सके । मन की अपार अद्भुत शक्ति को देखते हुए, विचार होता है कि इसका निरोध कैसे किया जाए, इसका निग्रह कैसे किया जाए, बड़ी पेचीदा समस्या है, साधक के सामने । सन्त कबीर ने भी मन की इस अचिन्त्य शक्ति को देखकर कहा कि
"मन के हारे हार है,मन के जीते जीत ।" सन्त कबीरदास कहते हैं कि, यह मन बड़ा विचित्र है । इसकी शक्ति अद्भुत है और इसका बल अपार है । मनुष्य के जीवन की जय और पराजय, मनुष्य के मन की हार और जीत पर ही आधारित रहती है । अपने भयङ्कर शत्रुओं से लड़ने वाला योद्धा, अपने शत्रुओं से पराजित नहीं होता, अपितु वह अपने मन की दुर्बलता से ही पराजित होता है । जब तक मनुष्य के मन में जीत न हो, तब तक बाहर की जीत भी उसके मन को प्रफुल्लित नहीं कर सकती।
गीता में अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण से यह पूछता है कि योग-साधना करने के लिए और उसमें सफलता प्राप्त करने के लिए आपने मन के निरोध को आवश्यक बतलाया है, किन्तु मन का निरोध कैसे सम्भव हो सकता है, क्योंकि वह तो पवन से भी अधिक सूक्ष्म और गतिशील है। फिर साधक उसका निग्रह और निरोध कैसे कर सकता है ? इस प्रश्न का समाधान करते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि-"अर्जुन ! मनुष्य की आत्मा में मन की शक्ति से भी अधिक शक्ति है । यदि वह अपने स्वरूप को भली भाँति पहचान ले तो फिर उसके लिए, मन का निग्रह और निरोध कोई बड़ी बात नहीं। मन को जीता जा सकता है। उसको जीतने के दो उपाय हैं:-अभ्यास और वैराग्य । अभ्यास का अर्थ है निरन्तर का प्रयत्न और वैराग्य का अर्थ है इन्द्रियों के विषयों में सहज विरक्ति का भाव । जो व्यक्ति अभ्यास और वैराग्य की साधना में सफल हो जाता है, वह अपने मन के विकारों को आसानी से जीत सकता है ।
आचार्य हेमचन्द्र ने मनोजय का, मनोनिरोध का और मन को निगृहीत करने का मार्ग बताते हुए, अपने योगशास्त्र में कहा है-"इन्द्रिय-विजय के लिए मन की शुद्धि आवश्यक है । अतः साधक का कर्तव्य है कि वह मन की शुद्धि करके, इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करे। मन की शुद्धि के बिना यम और नियमों का पालन करने से, साधक को अपने साध्य की सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती । जैन दर्शन मन को मारने की बात नहीं कहता, बल्कि उसे साधने की बात कहता है । क्योंकि मन इन्द्रियों का संचालक है, वही उन्हें विषयों की ओर प्रेरित करता है । मन पर अधिकार कर लेने से, इन्द्रियों पर भी अधिकार किया जा सकता है । वास्तव में मन की साधना ही
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