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शरीर विज्ञान : ब्रह्मचर्य
यही शक्ति है।" यह ओजस् कैसा है और कहां रहता है, इस विषय में शानघर का कथन है कि--"यह ओजस् समग्र शरीर में रहता है । यह स्निग्ध, शीतल, स्थिर, श्वेत और सोमात्मक होता है । यह शरीर को बल और पुष्टि देने वाला है।" इससे यह सिद्ध होता है कि ओजस् तत्व की उत्पत्ति वीर्य से ही होती है। अतः मनुष्य के शरीर में वीर्य ही जीवन का मुख्य आधार है, यही जीवन का प्रधान उत्पादन है और यही जीवन का प्रमुख अवलम्बन है । प्रश्न होता है कि वीर्य क्या है ? उसका क्या स्वरूप है और उसकी उत्पत्ति का मूल आधार क्या है ? इस प्रश्न का समाधान करते हुए, आयुर्वेद के आचार्यों ने कहा है कि शरीर में सप्त धातुओं का रहना परम आवश्यक है । क्योंकि ये सप्त धातु ही, भौतिक जीवन के आधार बनते हैं। सुश्र त के अनुसार वे सप्त धातु इस प्रकार हैं- "रस,रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र । ये सात धातु मनुष्य के शरीर में स्थिर रह कर उसके जीवन को धारण करते हैं। धातु का अर्थ है-धारण करने वाला तत्त्व । मनुष्य जो कुछ भी खाता-पीता है और शरीर पर लगाता एवं सूंघता है, वह सब कुछ शरीर में पहुँच कर सबसे पहले उसमें से रस बनता है, फिर क्रम से शुक्र । भोजन का सबसे पहले रस बनता है, रस से रुधिर, रुधिर से मांस, मांस से मेद, मेद से अस्थि, अस्थि से मज्जा, मज्जा से सातवा पदार्थ, जो सबका सारभूत है, वीर्य बनता है । यही वीर्य ओजस् एवं तेजस् होकर समग्र शरीर में फैल जाता है । इसी को जीवन-शक्ति भी कहा है।
अब सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि भोजन खाने से लेकर, वीर्य बनने तक कितना समय लगता है ? इस प्रश्न का समाधान आयुर्वेद शास्त्र में, इस प्रकार दिया गया है कि एक धातु से दूसरी धातु के बनने में पाँच दिन लगते हैं । भोजन करने के बाद भोजन का सार भाग तो शरीर में रह जाता है और पाचन की प्रक्रिया से बचा हुआ शेष असार भाग कूड़ा-कचरा मल-मूत्र, पसीना, मल, नाखून और बाल आदि के रूप में बाहर निकल आता है । वीर्य बनते ही उसकी पाचन-क्रिया रुक जाती है और वह सार भाग, ओजस् एवं तेजस् के रूप में शरीर में स्थित रहता है । इस प्रकार रस से लेकर वीर्य बनने तक प्रत्येक धातु के परिपक्व होने में पांच दिन के हिसाब से छह धातुओं के पाचन में एवं परिपक्व होने में तीस दिन लगते हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि जो भोजन आज किया गया है, उसका वीर्य बनने में इकत्तीस दिन लगते
४. ओजः सर्व-शरीरस्थं स्निग्धं शीतं स्थिरं सितम ।
सोमात्मकं शरीरस्य बल-पुष्टिकरं मतम् ।। ५. रमाद् रक्तं ततो मांसं मांसान्मेदः प्रजायते । मेदसोऽस्थि ततो मज्जा मज्जायाः शुक्र-सम्भवः ।।
--सूत्र स्थान १४,१०
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