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ब्रह्मचर्य-दर्शन वृत्तियों पर विजय नहीं प्राप्त कर लेती और अपने मन पर पूरा अंकुश नहीं लगाया जाता, तब तक हमारा जीवन एक सिरे पर नहीं पहुंच सकता।
जितने भी विचारक, दार्शनिक और चिन्तन-शील हुए हैं, वे बाह्य जगत् के सम्बन्ध में जितना कहते हैं उससे कहीं अधिक वे अन्तर्जगत् के विषय में कहते हैं ।
यत् पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे । जो पिण्ड में हो रहा है, वही ब्रह्माण्ड में हो रहा है। जो व्यष्टि में है, वही समष्टि में भी होता है ।
बाह्य संसार में जो काम हो रहे हैं, वहाँ सर्वत्र तुम्हारे अन्तर जीवन की छाया ही काम कर रही है। शत्रु और मित्र, जो तुमने बाहर खड़े कर रखे हैं, वे तुम्हारी अन्दर की वृत्तियों ने ही खड़े किए हैं । बाहर जो प्रतिबिम्ब है, वह अन्दर से ही आता है। यदि अन्तर में मंत्री-भाव जागृत होता है,को सम्पूर्ण विश्व मित्र के ही रूप में नजर आता है । और जब अन्तर में द्वष; शत्रुता और घृणा के भाव चलते हैं, तब सारा संसार हमें शत्रु के रूप में खड़ा नजर आता है। यही कारण है, कि जब हमारे बड़ेबड़े विचारक आए, चिन्तन-शील साधु और सद्गृहस्थ आए, और जब उन्होंने विश्व का प्रतिनिधित्व किया, तो उन्होंने जन-जीवन में यही मंत्र फूका
मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे । हम संसार को मित्र की आँखों से देखते हैं-प्राणी मात्र को अपना मित्र मानते हैं।
जब ऐसी दृष्टि पैदा हो गई, तब उन्हें संसार में कोई शत्रु नजर नहीं आया । और तो क्या, विरोधी भी मित्र के रूप में ही नजर आए। जो तलवार लेकर मारने दौड़े, वे भी प्रेम और स्नेह की मूर्ति के रूप में ही दिखाई दिए। कोई भी जिन्दगी आग बरसाती हुई नजर नहीं आई। उन्होंने समस्त जिंदगियों को प्रेम और अमृत बरसाते हुए ही देखा।
इसके विपरीत, जिनके हृदय में घृणा और द्वेष की आग की ज्वालाएं धधक रही थीं, वे जब आगे बढ़े, तब उन्हें अपने चारों ओर शत्रु ही शत्रु दिखलाई दिए । और तो क्या, जो उनका कल्याण करने के लिए आए, वे भी उन्हें विरोधी के रूप में ही नजर आए । यही कारण है कि रावण की नजरों में राम शत्र के रूप में रहे, और गोशाला को भगवान महावीर की अमृत-वाणी भी विष-भरी जान पड़ी। किन्तु भगवान् महावीर के हृदय में गोशाला के प्रति वही दया थी, जो गौतम के लिए थी। यह नहीं था, कि गौतम के लिए भगवान् महावीर के हृदय में कोई दूसरी चीज हो, और गोशाला आदि के प्रति वे कोई और भाव रखते हों । भगवान् का दोनों के प्रति एक-सा भाव था।
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