________________
१२६
ब्रह्मचर्य-दर्शन ___ इसलिए आचार्य प्रार्थना करते हुए कहते हैं, कि हम आँखों से सौ वर्ष तक भद्र रूपों को ही देखें, भद्र दृश्यों के ही दर्शन करें। जो अभद्र रूप हैं, वे हमारी दृष्टि से सदा ओझल ही रहें।
जो साधक कानों से भद्र शब्द ही सुनेगा और आँखों से भद्र रूप ही देखेगा, और अभद्र शब्दों और रूपों से विमुक्त होकर रहेगा, उसका जीवन इतना सुन्दर बन जाएगा, कि वह प्रार्थना कर्ता आचार्य के शब्दों में, आध्यात्मिक शक्तियों की उपलब्धि के साथ दीर्घ आयु प्राप्त करेगा और शत-जीवी होगा।
यही कानों और आँखों का ब्रह्मचर्य है, और इसी से अन्दर के ब्रह्मचर्य को प्राप्त किया जा सकता है । कोई कानों और आँखों को खुला छोड़ दे, उन पर अंकुश न रखे, फिर चाहे कि उसमें आध्यात्मिक शक्तियां उत्पन्न हो जाएं, यह असम्भव है। इसी कारण हमारे यहाँ ब्रह्मचर्य की नौ बाड़ों का वर्णन आया है, और वह वर्णन बड़े ही सुन्दर रूप में है।
हमारे शरीर में जिह्वा भी एक महत्त्वपूर्ण अंग है । मनुष्य का शरीर कदाचित ऐसा बना होता, कि उसे भोजन की कभी आवश्यकता ही न होती और वह बिना खाये-पीये यों ही कायम रह जाता तो, मैं समझता हूँ, जीवन में नौ सौ निन्यानवे संघर्ष कम हो जाते। किन्तु ऐसा नहीं है। शरीर आखिर, शरीर ही है और उसकी भोजन के द्वारा कुछ न कुछ क्षति-पूर्ति करनी ही पड़ती है।
संसार में भोजन की अच्छी-बुरी बहुत-सी चीजें मौजूद हैं। खाने की कोई चीज हाथ से उठाई, और मुंह में डाल ली। अब वह अच्छी है या बुरी है, इसका निर्णय कौन करे ? उसकी परीक्षा कौन करे? यह सत्य कौन प्रकट करे ? यह जीभ का काम है। वह वस्तु की सरसता एवं नीरसता का और अच्छेपन एवं बुरेपन का अनुभव करती है। इस प्रकार जिह्वा का काम खाद्य वस्तुओं की परख करना है । किन्तु आज उसका काम केवल स्वाद-पूर्ति करना ही बन गया है। खाने की चीज़ अच्छी है या नहीं, परिणाम में सुखद है या नहीं, शरीर के लिए उपयोगी है या अनुपयोगी, जीवन को बनाने वाली है या बिगाड़ने वाली, इसका कोई विचार नहीं। बस, जीभ को अच्छी लगनी चाहिए । जीभ को जो अच्छा लगा, सो गटक लिया। इस प्रकार खाने की नः कोई सीमा रही है, न मर्यादा रही है।
___ खाने के लिए जीना, जीवन का लक्ष्य नहीं है। खाने का अर्थ है, शरीर की क्षति और दुर्बलता की पूर्ति करना, और जीवन निर्माण के लिए आवश्यक शारीरिक शक्ति प्राप्त करना। जहां यह दृष्टि है, वहां ब्रह्मचर्य की विशुद्धि रहती है। जहाँ यह दृष्टि नहीं रहती, वहाँ जीभ निरंकुश होकर रहती है, मिर्च-मसालों की ओर संपकती है। इसीलिए कभी-कभी सीमा से अधिक खा लिया जाता है। तामसिक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org