Book Title: Bhattarak Ratnakirti Evam Kumudchandra Vyaktitva Evam Kirtitva Parichay
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur
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भट्टारक रत्नकीति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
कमला होय केहा सान होया, सुरति नरहा काइ। चौदह लास्त्र चुरासी जोन बिच, दर दर करे सगाइ। हिक जोके हिक नवे सहेरे, मूरख दी मुरखाइ । पाप पुण्य कर पौष कबीला, अन्न न कोई सहाद ।।१३।।
यन्त न कोई सहाइ लरे, तू क्या पच पच मरवा । नरक निमोद दुःख सिर पर, अहमके मूल : मरवा । जनम जनम विच होय बिकाना, हथ विषया देवरदा। कोई अमर भरवेली भोंदू मेरी भेरी करदा ।।१२।।
गज़ सुबुमाल सुणी जिरवारसी, सकल विषय तिन त्यागी । नमसकार कर नेमिनाथ को, भए मसान विरागी । तन बुसरा प्रामन बच कामा, सिधा पर तब कागी । कहत दास बनारसी अन्त गढ़, वेवली सुनत बुध के रागी ॥१३।।
२. ब्रह्म गुलाल
ब्रह्म गुलाल १७वीं शताब्दि के हिन्दी के प्रसिद्ध विद्वान थे। उनके गुरु का नाम भट्टारक जगभूषण था जो उस समय के विद्वान एवं लोकप्रियता प्राप्त भट्टारक थे। ब्रह्म गुलाल को उन्हीं की प्रेरणा से काव्य निर्माण में चि जाग्रत हुई और उन्होंने "कृपण जगावनहार" जैसी रचना लिखी।'
ब्रह्म गुलाल का जन्म रपरी और चन्दवार गांव के समीप टापू नामक गांव में हुया था । डा. प्रेमसागर जैन ने इस गांव को वर्तमान में प्रागरा जिले में होना लिखा है। इस गांव के तीन मोर नदी बहती है। उस समय वहां का राजा फौरतसिंह था। उसी के राज्य में ब्रह्मा गुलाल के घनिष्ट मिष मथुरामल रहते थे जो प्रपने कुल के सिरमोर एवं दान देने में सुदर्शन के समान थे।
ब्रह्म गुलास भेष बदल कर लोगों को प्रसन्न किया करते थे | एक बार जब उन्होंने सिंह का भेष धारण किया तो वे शेर की क्रिया करने लगे और एक राजकुमार को मार दिया । लेकिन जब राजकुमार के पिता को मुनि वन कर सम्बोधने
१. जगभूषरण भट्टारक पद, करी ध्यान-अन्तरगति प्राइ।
ताको सेवा ब्राह्म गुलाल, कोजो कथा कृपन उर साल २. हिन्वी जैन भक्ति काव्य और कवि