Book Title: Bhattarak Ratnakirti Evam Kumudchandra Vyaktitva Evam Kirtitva Parichay
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur
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भंट्टारक रत्मकीति
प्रभावित किया था। यही कारण है कि उनकी अधिकांश कृतियों में ये दोनों ही प्राराध्य रहे हैं। नेमिराजुल का इस प्रकार का वर्णन अन्य किसी कवि द्वारा लिखा हुप्रा नहीं मिलता है। अब तक जितनी खोज हो सकी है उसके अनुसार कवि के ३८ पद प्राप्त हो चुके हैं तथा ५ अन्य लघु रचनाये हैं । यद्यपि ये सभी लघु कृतियाँ हैं लेकिन भाव एवं विषय की हरिट में सभी उच्च कोटि की कृतियां हैं। रत्लकीर्ति सन्त थे लेकिन अपने पदों में उन्होंने विरह एवं शृगार दोनों ही का अच्छा घर्णन किया है । वे राजुल के सौन्दर्य एवं उसकी तड़फान से बड़े प्रमानित .. यही कारण है उनकी प्रत्येक दक्षि में दोनों ही शानों की मीमी है।
सावन का महिना विरही युवतियों के लिये असह्य भाना जाता है। जब आकाश में काले काले बादलों की घट। छा जाती है । कभी वह गरजती है तो कभी बरसती है। ऐसी प्राकृतिक वातावरण में राजुल भी अकेली कैसे रह सकती थी। इसलिये वह नी अपने विरह वो अपनी सखियों के समक्ष बहुत ही करुणामय शब्दों में निम्न प्रकार व्यक्त करती है--
सखी री सावनी घटाई सप्तावे रिमझिम बून्द बदरिया बरसत, नेमि मेरे नहीं पाये। फजत कीर कोकिला बोलत, पीया वचन न लाये। दादूर मोर बोर घन गरजत, इन्द्र धनुष हरा ।ससी।। लेख सखू री गुपति वचन को, जदुपति कु जु सुनावे रतनकीरित प्रभु निठोर भयो, अपनो वपन बिसरावे ।।
रतनकीति ने उक्त पद में राजुल की विरही अबला का बहुत ही सही चिमण किया है। इसमें राजुल की प्रात्मा बोल रही है और वह नेमि पिया के मिलन के लिये व्याकुल हो चली है । कभी कभी पति त्याग के कारण को लेकर राजुल के मन में अन्तर्द्वन्द्व होने लगता हैं। पशुओं की फार का बहाना उसके समझ में नहीं प्राता मोर वह कहती है कि सम्भवतः मुक्ति रूपी स्त्री के परण के लिये नेमि ने राजुल को छोड़ी है । पशुओं की पुकार तो एक बहाना है । इसलिये वह कह उठती है कि "रत्नकीति प्रभु छोड़ी राजुल मुगति वधु विरमाने।"
___ कभी कभी राजुल नेमि के घर पाने का स्वप्न लेने लगती है और मन में प्रफुल्लित हो उठती है । एक पोर नेमि हरी है तथा दूसरी और वह स्वयं हरिवदनी है । हरि के सहा ही उसकी दो आंखे हैं तथा अधरोष्ठ भी हरिलता के रंग वाले हैं । इस तरह वह अपने शरीर के सभी अंगों को हरि के अगों के समान मान बैठती। मोर मन में प्रसन्न हो उठती हैं।