Book Title: Bharatiya Rajniti Jain Puran Sahitya Sandarbh Me
Author(s): Madhu Smitashreeji
Publisher: Durgadevi Nahta Charity Trust
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(१४) के ऊपर ही निर्मर है । यदि राजा रक्षण नहीं करेगा तो लोग श्वास भले ही ले पर वे जीवित नहीं रह सकते । राजा कर्तव्यच्युत हो जाये तो प्रजा कभी जीवित नहीं रह सकती। इस सृष्टि से राजा का पद सर्वाधारभूत व महत्त्वपूर्ण है । प्रजा का सुख-दुःख राजा के व्यक्तित्व पर निर्भर है।
कामन्दक के नीतिसार में राजनंतिक परम्परा पर दृष्टिपात करने के पश्चात् हम पुराणों में निहित राजनैतिक विचारों का निरूपण करेंगे। पुराणों में राजा के पद सम्बन्धी जो भाव व्यक्त किये गये हैं वे पूर्णतया महाभारत एवं मनुसंहिता से लिए गए हैं। पुराणों में राजा की सत्ता जिस सिद्धान्त पर मानी गई है, उसका आधारभूत है राजा के ईश्वरांश होने की कल्पना । यही कल्पना महाभारत की है। “विष्णुधर्मोत्तर” में लिखा है कि राजा शरीर के अंगों तथा विकारों में अन्य मनुष्यों के सदृश होते हए भी पथ्वी पर देवता की तरह निवास करता है। इसके अतिरिक्त राजा के देवत्व के सिद्धान्त के सम्बन्ध में हमारे वर्तमान विचारणीय ग्रन्थ में हमें वे ही स्वरूप मिलते हैं, जो कि महाभारत एवं मनुसंहिता में पाये जाते हैं।
इस प्रकार मनुष्यों के कल्याणार्थ विभिन्न देवताओं ने दण्डनीति पर भी ग्रंथ-रचना की। महाभारत के वर्णन से राज्य-शास्त्र अथवा दण्डनीति की प्राचीनता प्रकट होती है । भारत में राज्य-शास्त्र का उद्भव कब हुआ, इसकी ऐतिहासिक तिथि बतलाना अत्यन्त कठिन है, परन्तु इसमें कोई संदेह नहीं कि राज्य-शास्त्र का अध्ययन भारत में प्राचीन काल से ही चला आ रहा है । महाभारत में शान्तिपर्व में राज्य-शास्त्र के प्राचीन आचार्यों का उल्लेख मिलता है। इन आचार्यों ने राजनीतिशास्त्र पर विशाल ग्रंथों की रचना की थी; जिनके नाम पूर्व में दिए गए हैं। कौटिल्य ने भी अपने अर्थ-शास्त्र में उपर्युक्त अधिकांश आचार्यों का उल्लेख किया है । अर्थ-शास्त्र में विभिन्न स्थलों पर इन आचार्यों के मत भी उद्धृत किए गए हैं । कौटिल्य ने पूर्व में बताए हुए आचार्यों के प्रति अपना आभार दर्शाया है, तथा उनकी रचनाओं को अपने ग्रन्थ का आधार बनाया है। इससे सिद्ध होता है कि कौटिल्य से पूर्व ही भारत में राज्य-शास्त्र का विधिवत् अध्ययन प्रारम्भ हो गया था। उपर्युक्त सभी बातों को लक्ष्य में रखकर डा० भण्डारकर का यह मत है कि भारत में