Book Title: Bharatiya Rajniti Jain Puran Sahitya Sandarbh Me
Author(s): Madhu Smitashreeji
Publisher: Durgadevi Nahta Charity Trust
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(२११) सामाजिक अनुबन्ध के सिद्धान्त के अनुसार मानी गई है, लेकिन दोनों में अन्तर है । हिन्दू पुराणों में राजा की उत्पत्ति होने पर लोगों ने आपस में समझौता किया जिसके फलस्वरूप उन्होंने राजा को कर देना निश्चय किया, जिसके बदले में राजा ने प्रजा की रक्षा का भार अपने ऊपर लिया । अर्थात् कर ही राजा का वेतन होता था। जैन पुराणों में इस प्रकार राजा की सेवा के बदले कर की कोई व्यवस्था नहीं थी। राजा का राजकीय पद पर आरूढ़ होते ही यह कर्तव्य होता था कि वह प्रजा की रक्षा तथा देश में शान्ति एवं सुव्यवस्था बनाये रखे । जैसा कि ऋषभदेव स्वामी ने राजपद पर आरूढ़ होते ही प्रथम शासन-व्यवस्था की स्थापना की थी। इससे यह विदित होता है कि राजा बहुत योग्य एवं कर्त्तव्यनिष्ठ होते थे। जैन पुराणों में एक नवीनता यह भी दृष्टिगोचर होती है कि प्रायः राजा कुछ समय राज्य करने के पश्चात् अपने पुत्र का राज्याभिषेक कर स्वयं श्रमण दीक्षा ले लेते थे । इससे यह स्पष्ट होता है कि राजपद, 'वैभव, सत्ता, शक्ति आदि राजस् गुण पर निर्भर होते हुये भी राजा अन्त में सत्त्व गुण का अनुशासन कर तत्त्व ज्ञान को स्वीकार करते थे । - जैन साहित्य में प्राचीन समय में राज्याभिषेक की जो प्रणाली थी उसके अन्तर्गत यज्ञ, हवन आदि क्रियाकाण्डों को महत्त्व नहीं दिया गया है। इसके पीछे मूल कारण हिंसा थी। जैन राजा अहिंसक होते थे। कुमारपाल राजा के बारे में तो यहां तक कहा गया है कि वह अपने राज्य में घोड़ों को भी छानकर पानी पिलाता था, तथा चातुर्मास में एक स्थान पर ही रहता था, क्योंकि वह समझता था कि चातुर्मास में जीवों की उत्पत्ति अधिक होती है। इसलिए जीवों की रक्षा हेतु चार महीने एक स्थान पर रहकर शान्ति धर्माराधना करता हुआ व्यतीत करता था।
यूवराज तथा उत्तराधिकारी का पद वंश परम्परागत होता था। यदि किसी राजा के राजपुत्र नहीं होता था और उस राजा की मत्य हो जाती तब शहर में पांच दिव्य पदार्थ सहित घोड़ा घुमाया जाता था। वह जिसके भी पास जाकर रूक जाता उसे ही राजा बनाया जाता था। इसके लिए हाथी भी पाँच दिव्य पदार्थ सहित शहर में घुमाया जाता था।
मंत्रिपरिषद की रचना के विषय में हिन्दू पुराण और जैन पुराणों में अन्तर बताया गया है। जैन पुराणों के अनुसार मंत्रियों की नियुक्ति