Book Title: Bharatiya Rajniti Jain Puran Sahitya Sandarbh Me
Author(s): Madhu Smitashreeji
Publisher: Durgadevi Nahta Charity Trust
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ब्रह्मा और लंका आदि देशों से रहा है।' इस तथ्य की पुष्टि मत्स्य पुराण भी करता है।
उपर्युक्त बिवरणों से जैन तथा जैनैत्तर अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की पुष्टि होती है।
वर्तमान समय की भांति प्राचीन समय में भी भारत में एकछात्र साम्राज्य नहीं था। सम्पूर्ण भारत अनेक छोटे-छोटे स्वतंत्र राज्यों में विभक्त था। अतः इन राज्यों में परस्पर युद्ध होना व मैत्री सम्बन्ध स्थापित होना स्वाभाविक ही था। युद्ध सदैव अन्तर्राज्य सम्बन्धों के परिणामस्वरूप होते हैं । ये राजनीति के साधन है।
आचार्य सोमदेव सूरि ने तीन प्रकार के विजेताओं का वर्णन किया है। (१) धर्म विजयी, (२) लोभ विजयी, (३) असुर विजयी। उनके अनुसार धर्मविजयी शासक वह है जो किसी राजा पर विजय प्राप्त करके उसके अस्तित्त्व को नष्ट नहीं करता है। अपितु अपने आधिपत्य में उसकी स्वायत्त सत्ता स्थापित रहने देता है । और उस पर नियत किये हुए करों से वह सन्तुष्ट रहता है। लोभ विजयी शासक वह है जिसको धन और भूमि का लोभ होता है। उसको प्राप्त करने के उपरान्त वह उसको पराधीन नहीं बनाता अपितु उसे अपने आन्तरिक विषयों में पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करता है। तीसरा असुर विजयी शासक वह है जो केवल धन और पृथ्वी से ही सन्तुष्ट नहीं होता, अपितु वह विजित शासक का वध कर देता है और उसकी स्त्री, बच्चों का भी अपहरण कर लेता है। प्रथम दो प्रकार की विजयों में विजित राज की संस्थाएँ एवं शासन ज्यों का त्यों बना रहता है किन्तु तृतीय प्रकार की विजय में विजित का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। और विजयी शासक के राज्य के वे अंग बन जाते हैं।
१. रामायण कालीन युंडकला पृ० २६२. २. मत्स्य पुराण १२३-३५, ११७-३६-५५, १२०-७१. ३. नीतिवाक्यामृतम् ३०/७०-७१-७२ १० ३६२-३६३, कौटिल्य अर्थशास्त्र १२/१
पृ० ६३४.