Book Title: Bharatiya Rajniti Jain Puran Sahitya Sandarbh Me
Author(s): Madhu Smitashreeji
Publisher: Durgadevi Nahta Charity Trust
View full book text
________________
-- १७४) राजधानी में चतुर्दिक परिखा, प्राकार एवं नगर द्वारों का होना आवश्यक था तथा इसके अन्दर चौड़े राजमार्ग, सुन्दर भवनों, उपवनों एवं सरोवरों का निर्माण किया जाता था। इसके अतिरिक्त राजधानी के नगर द्वार पर सैनिक शिविर, उन्नत गोपुर, शालाओं एवं विशाल भवनों का निर्माण किया जाता था।' - डॉ. द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल के मतानुसार जिस नगर में राजा रहता था उसे राजधानी कहते हैं, और अन्य नगर शाखा नगर की संख्या में आते थे। वर्तमान समय में भी इसी प्रकार की व्यवस्था है। जहाँ पर प्रधानमंत्री रहता है उसे राजधानी तथा अन्य शाखा नगर की संज्ञा में ही आते हैं। राजधानी के सम्बन्ध में शुक्राचार्य का मत है कि-"उस सुरम्य एवं समतल भूभाग पर राजधानी या नगर का निर्माण करना चाहिए, जो विविध प्रकार के वृक्षों, लताओं, एवं पौधों से आवृत्त हो, जहाँ पर पशुपक्षी एवं जीव-जन्तुओं की सम्पन्नता हो, भोजन एवं जल की सुप्राप्ति हो सके । बाग, बगीचे, हरियाली, प्राकृतिक सोन्दर्य दर्शनीय हो, समुद्र तट पर गमनशील नौकाओं के यातायात को दृष्टिगत किया जा सके और वह स्थान पर्वत के समीप हो।'
महापुराण के अनुसार कोट, प्रकार, परिखा, गोपुर और अटारी आदि से सुशोभित राजधानियाँ होती थीं। जैन पुराणों में राजधानियों नमरों का वही आदर्श उपलब्ध है जैसा कि शुक्रनीति में वर्णित है। पद्म पुराण में उल्लिखित है कि उक्त राजधानियों में बिना परिश्रम के अन्न, जल, औषधि मिलते थे। खत्तियाँ अनाज से परिपूर्ण थीं। जिनका कभी क्षय नहीं होता था। मार्ग धूली एवं कण्टक रहित थे। ऋतुयें आनन्दप्रद थीं। वर्षा आवश्यकतानुसार होती थी। राजधानी में ८०० ग्राम होने का उल्लेख मिलता है। १. सनोतिसार १/२१३-२१७ पृ० ४१. २. द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल : समराङ्गणीय पृ० ६६. ३. शुक्रनीति-सारः १/२१३-२१७ पृ ४१. ४. मध्ये जनपदं रेणू राजधन्याः परिष्कृताः ।
वप्राकार परिखागोपुराट्टालकादिभिः ॥ महा० पु० १६/१६२, ५. पद्म पु० ३/३१६-३३६ ६. महा• पु० १६/१७५