Book Title: Bharatiya Rajniti Jain Puran Sahitya Sandarbh Me
Author(s): Madhu Smitashreeji
Publisher: Durgadevi Nahta Charity Trust
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(१७७ ) परीखा १२ दण्ड और तीसरी परिखा १० दण्ड विस्तीर्ण की। परिखा की गहराई चौड़ाई से कम होती थी। इनकी गहराई सामान्यतः १५ फुट होती थी। इनकी गहराई नापने के लिए पुरुष का प्रयोग किया जाता था। परिखा के जल में कभी-कभी भयंकर जलजीवों को भी छोड़ दिया जाता था जिससे कि शत्रु परिखा को पार न कर सके। इसके अलावा परिखा की सन्दरता के लिए इसके जल में कमल, कुमुद आदि जलपुष्प और हंस, कारण्डव आदि पक्षियों का उल्लेख मिलता है। कभी-कभी परिखाओं में नालों की गन्दगी भी गिराई जाती थी। जैन महापुराण में भी उक्त उल्लेख मिलता है। (II) वा (कोट):
परिखा के निर्माण के बाद वप्र का निर्माण किया जाता था। महा- . पुराण में वप्र के निर्माण का बहुत सुन्दर ढंग से वर्णन किया गया है। परिखा खोदते समय जो मिट्टी निकलती थी, उसी के द्वारा वप्र का निर्माण किया जाता था। वप्र-भित्ति का निर्माण परिखा से ४ दण्ड (२४ फुट) दूरी पर किया जाता था। मिट्टी को चौकोर बनाकर हाथियों और बैलों द्वारा कुचलवाया जाता था। बन जाने के पश्चात् वप्र के ऊपर कंटीली और विषैली झाड़ियां उगाई जाती थी, जिसके कारण शत्रु प्रवेश नहीं पा सकता था। इस प्रकार तैयार हुआ वप्र ६ धनुष (३६ फुट) ऊंचा तथा १२ धनुष (७२ फुट) चौड़ा होता था । इसके अलावा कोट के ऊपर के भाग पर कंगूरे बनाये जाते थे, जो कि गाय के खुर के समान गोल तथा घड़े के उदर के समान बाहर की ओर उठे हुए आकार के होते थे । इसी प्रकार का वर्णन जैनेत्तर पुराण तथा ग्रन्थों में भी मिलता है।' (III) प्राकार :
वप्र के ऊपर परकोटे अर्थात् प्राकार का निर्माण ईटों से किया जाता था। रामायण में परकोटे को दुर्ग तथा नगर की सुरक्षा का अभिन्न साधन
१. महा० पु० ४/१०८, १४/६६, १६/५३-५७. २. चतुर्दण्डान्तरश्चातो वप्रः षड्धनुरुच्छितः ।
कुम्भकुक्षिसमाकारं गोक्षुरक्षोदनिस्तलम् ।। महा पु० १६/५८-५९. ३, समराइ० गणसूत्रधार पृ० ४०.