Book Title: Bharatiya Rajniti Jain Puran Sahitya Sandarbh Me
Author(s): Madhu Smitashreeji
Publisher: Durgadevi Nahta Charity Trust
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. (११०) व्यवस्था का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अंग माना है । जैन ग्रंथों में भी अन्य परिषदों की अपेक्षा मंत्रिपरिषद को ही विशेष स्थान दिया गया है। तथा इसका ही विशद विवेचन किया गया है। जैन मान्यतानुसार मंत्रियों के सत्परामर्श पर ही राज्य का विकास, उन्नति ववं स्थायित्व निर्भर है। कौटिल्य अर्थशास्त्र में यह कहा गया है कि "जिस प्रकार एक चक्र से (पहिये से) रथ नहीं चल सकता, उसी प्रकार बिना मंत्रियों की सहायता के अकेला राजा राज्यभार नहीं संभाल मकता।' महाभारत में कहा गया है कि राजा अपने मंत्रियों पर उतना ही निर्भर है जितना कि प्राणीमात्र पर्जन्य पर, ब्राह्मण वेदों पर, और स्त्रियाँ अपने पति पर । मनु का कथन है कि सुकर कार्य ही अकेला व्यक्ति होने की वजह से दुष्कर हो जाता है फिर राज्य जैसे महान कार्य को बिना मंत्रियों की सलाह से चलाना कैसे सम्भव है।
उपर्युक्त उद्धरणों से स्पष्ट होता है कि प्राचीन भारतीय राजनीतिज्ञों तथा जैन ग्रंथकारों ने मंत्रिमण्डल को राज्य का एक अविच्छिन्न अंग माना है । उक्त बातों का तात्पर्य यही है कि राजा को अकेले कोई भी कार्य नहीं करना चाहिए। उसे सुयोग्य मंत्रियों एवं अमात्यों की नियुक्ति करनी चाहिए तथा प्रत्येक राजकार्य में उनका परामर्श मानना चाहिए। क्योंकि स्वच्छंद प्रकृति से राज्य नष्ट हो जाता है। इस विषय में आचार्य कौटिल्य का कथन है कि जब कोई कठिन समस्या उपस्थित हो जाये अथवा प्राणों तक का भय हो तो मन्त्रियों एवं मंत्रिपरिषद को बलाकर राजा उनसे सब कुछ कहे, और उनका परामर्श ले । उनमें से अधिक मंत्री जिस बात को कहें, अथवा जिस उपाय से शीघ्र ही कार्य की सिद्धि होने वाली हो, तो राजा को चाहिए कि उसी उपाय का अनुष्ठान करे। मंत्रिपरिषद का महत्त्व प्रदर्शित करते हुए कौटिल्य ने लिखा है कि देवराज इन्द्र की मंत्रिपरिषद में एक हजार ऋषि थे। वे ही कार्यों के द्रष्टा होने के कारण इन्द्र के चक्षु के समान थे। इसलिए दो चक्षु वाले इन्द्र को भी
१. अर्थशास्त्र १/७ पृ० १६ २. महाभारत उद्योगपर्व ३७/३८ ३. मनुस्मृति ७/५४ ४. अर्थशास्त्र १/१५ पृ० ४२