Book Title: Bharatiya Rajniti Jain Puran Sahitya Sandarbh Me
Author(s): Madhu Smitashreeji
Publisher: Durgadevi Nahta Charity Trust
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( १५२ )
(ख) अपराध एवं दण्ड :
प्राचीन राजनीतिज्ञों ने राजसत्ता के अन्तिम आधार को दण्ड या बलप्रयोग निहित किया है। मनु का मत है कि यदि राजसत्ता अपराधियों को दण्ड न दे तो “मत्स्य-न्याय" का बोलबाला हो जायेगा । अर्थात् दण्ड के भय से ही लोग न्याय का अनुसरण करते हैं । जब सब लोग सोते हैं उस समय दण्ड उनकी रक्षा करता है ।' मनु ने दण्डनायक व्यक्ति को राजा स्वीकार नहीं किया है, अपितु दण्ड को ही शासक स्वीकृत किया है । ' कौटिल्य ने दण्डनीति के चार प्रमुख उद्देश्य निरूपित किये हैं । १. उपलब्ध की प्राप्ति, २ . लब्ध का परिरक्षण, ३. रक्षित का विवर्धन, ४. विवर्धित का सुपात्रों में विभाजन । दण्ड के विषय में भी इसी प्रकार का विचार अन्य जैनेत्तर आचार्यों ने व्यक्त किया है । प्राचीन आचार्यों ने विभिन्न प्रकार के अपराधों के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के दण्डों की व्यवस्था की है । कौटिल्य का कहना है कि दण्ड का प्रयोग सीमित होना चाहिए । दण्ड न तो अत्यन्त कठोर होना चाहिए और न अत्यधिक नम्र (सरल) । अपराध के अनुसार ही दण्ड होना चाहिए ।" मनु के अनुसार देश, काल, शक्ति एवं विद्या को ध्यान में रख कर दण्ड का निर्धारण करना चाहिए । माता-पिता आदि को एक सदृश अपराध के लिए दण्ड भी समान देने की व्यवस्था थी । वस्तुतः दण्ड का उद्देश्य विनाशात्मक एवं संहारकारक न होकर संशोधनात्मक होता था । '
१. दण्डः शक्ति प्रजा सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति ।
दण्डः सप्तेषु जागति दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः । मनु० ८ / १४११ २. स राजा पुरुषो दण्डः स नेता शास्ता चसः । मनु ७ / ७
३. द्रष्टव्यः काणे, हिस्ट्री आफ धर्मशास्त्र भाग ३, पृ० ६.
४. महाभारत शान्तिपर्व १०२ / ५७ याज्ञवल्क्य १/३१७ नीतिसार १ / १८.
५. अर्थशास्त्र १/४ पृ० १३
६. तं देश कालोशक्ति च विद्यां चावेक्ष्य तत्त्वताः ।
यथार्हतः सम्प्रणयेन्नरेण्वन्यायवर्तिषु मनु० ७ /१६
७. माता-पिता च भ्राता च भार्या चैव पुरोहितः ।
नादण्ड्यो विद्यते राज्ञो यः स्वधर्मेण तिष्ठति । महाभारत शान्तिपर्व । १२१/६०
८. उपवासमेकरात्रं दण्डोत्सर्गे नराधिपः ।
विशुद्धयेदात्म शुद्धयर्थं त्रिरात्रं तु पुरोहितः । वही - ३ / १७