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समत्वयोग
भी है। सामाजिक-जीवन में आर्थिक-विषमता का निराकरण असंग्रह की वैयक्तिकसाधना के माध्यम से ही सम्भव है।
(4) सामाजिक-आचरण में अहिंसा-जब पारस्परिक-व्यवहार अहिंसा पर अधिष्ठित होगा, तभी सामाजिक-जीवन में शांति और साम्य सम्भव होंगे। जैनदर्शन के अनुसार, अहिंसा का मूल आधार आत्मवत्- दृष्टि है और अहिंसा की व्यवहार्यताअनासक्ति पर निर्भर है। वृत्ति में जितनी अनासक्ति होगी, व्यवहार में उतनी ही अहिंसा प्रकट होगी। जैन आचार्यों की दृष्टि में अहिंसा केवल निषेधात्मक नहीं है, वरन् वह विधायक भी है। मैत्री और करुणा उसके विधायक पहलू हैं । अहिंसा सामाजिक-संघर्ष का निराकरण करती है।
इस प्रकार, जैनदर्शन के अनुसार वृत्ति में अनासक्ति, विचार के अनेकान्त, अनाग्रह, वैयक्तिक-जीवन में असंग्रह और सामाजिक-जीवन में अहिंसा, यही समत्वयोग की साधना का व्यवहारिक-पक्ष है।
सन्दर्भ ग्रन्थ1. Beyond thePleasure Principle-S.Freud, उद्धृत-अध्यात्मयोग
और चित्त-विकलन, पृ. 246 2. आचारांग, 1/3/2/114
गीता 4/12 वही, 7/27-28 वही. 15/5
आवश्यकनियुक्ति 796 7. प्रवचनसार, 1/5
समदर्शी आचार्य हरिभद्र, पृ. 86 9. सेयम्बरो वा आसम्बरो वा बुद्धो वा तहेवअन्नो वा
समभावभावियप्पा लहइ मुक्खं न संदेहो॥-हरिभद्र 10-13.सामायिक सूत्र (अमरमुनि) पृ. 63 पर उद्धृत 14-15.योगशास्त्र, 4/50-53 16-17. योगशास्त्र, 4/50-53 18. (अ) सामायिकसूत्र (अमरमुनिजी), पृ. 27-28
(ब) विशेषावश्यकभाष्य - 3477-3483
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