Book Title: Bharat me Durbhiksha
Author(s): Ganeshdatta Sharma
Publisher: Gandhi Hindi Pustak Bhandar

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Page 14
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यदि हमारे यहाँ इतना गेहूँ होता कि हमारे खाने के बाद भी बच रहता, तब तो कोई दुःखकी बात ही न थी। विदेश जानेका जरा भी दुःख नहीं होता। किन्तु दुःख इस बातका है कि करोड़ों भूखे भारतवासियोंके मुखका अन्न छिना कर विदेशको भर दिया! . सन् १९११ से सन् १९१८ तकके सात वर्षांका औसत निकालने पर मालूम होता है कि ५२.७ फी सैकड़ा युवा स्त्री-पुरुषोंको, या यों कहिए कि पन्द्रह करोड़ भारतवासियोंको आधे पेट भोजन मिला है । इसीको और भी साफ समझने के लिये हम यों कह सकते है कि ७ करोड हमारे भारतीय भाईबहन अनके बिना भूखों रहे । हाय, कितने शोककी बात है कि जब हम अपने घरमें आनन्दसे मिष्टान्न खाते हैं उस समय हमारे करोड़ों ही भारतीय एक एक दाने अन्नके लिये छटपटाते हैं ! कितने दुःखकी बात है कि कई करोड़ भारतवासी नर-नारी रात दिन एडीसे चोटी तक पसीना बहा कर भी इतना अन्न नहीं पा सकते जितना कि जेल. खानेके कैदीको भी मिल जाता है । इस आधे पेट रहने का यह फल हुआ कि भारतमें प्लेग, इन्फ्ल्यु एंजा आदि सर्वसंहारी अनेक रोगोंकी सष्टि हो गई। कोई भी भारतवासी रोगमुक्त, सुखी, धन-ऐश्वर्य-सम्पन्न दिखाई नहीं देता। यों तो सभी अपने अपने चोलेमें मस्त हैं; और सभी अपनेको सुखी और धनाढय मानते हैं। पर यह केवल अश्वत्थामाको बहलाने के लिये आटा घोल कर बनाए हुए कृत्रिम दुग्धके समान है । यदि इसकी सच्ची दशाका पता लग जावे, या अमेरिका जैसे किसी समृद्धशाली देशसे मुकाबिला किया जावे तो, हम निस्सन्देह उसे स्वर्ग और स्वर्गापम भारतको आज नके कहनेको सैय्यार हो जावेगे। बिना अनके लोग, भारतमें अनाथकी भाँति मरते चले जा रहे हैं। मानों भारतीय मनुष्योंका कोई मूल्य ही नहीं है। यहाँ प्रति सहस्र ३१२ मृत्युसंख्या है। शायद ही किसी अन्य देशकी इतनी बढ़ी चढ़ी मृत्य-संख्या होगी। हमारे जीवनको अवधि भी औसतसे २४.७ वर्षकी है । सारांश यह कि बिना अत्रके हम लोग सब प्रकारकी दुर्दशा भुगत रहे हैं । इन सब बातोंका मूल मैं दावे के साथ दुर्भिक्षको ही बताऊँगा । यदि अब भी हम लोगोंने आँखें For Private And Personal Use Only

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