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ग्रंथकारका निवेदन।
" प्रहृष्टो मुदितो लोकस्तुष्टः पुष्टः सुधार्मिकः । निरामयो रोगश्च दुर्भिक्षभयवर्जितः॥ न चापि क्षुद्भयं तत्र न तस्करभयं तथा। नगराणि च राष्ट्राणि धनधान्ययुतानि च ॥"
-महर्षि वाल्मीकि । अर्थात-सारी प्रजा प्रसन्न, मुदित, तष्ट, पृष्ट आधि-व्याधिसे रहित, धार्मिक और दुर्भिक्षके भयसे मुक्त हो गई। न किसीको भूखकी ही चिंता थी
और न चोरोंहीका भय था। इस प्रकार समस्त नगर और राष्ट्र धनधान्यसे परिपूर्ण हो गये।" प्यारे देशभाइयो,
कौन ऐसा मनुष्य है जो ऊपर लिखे अनुसार राज्यकी इच्छा न करता हो ? कौन ऐसा मनुष्य है जो ऐसे राज्यमें जाकर बसनेका इच्छुक न हो ? परन्तु यह तो मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्रजीके उसी राज्यकालका वर्णन है जिसे लोग रामराज्य कहते हैं । आज सभी बातें ठीक उसके विपरीत हैं। प्रजा दुखी, कृष, क्षीणकाय, अल्पायु, आधि-व्याधि युक्त, धर्मच्युत और दुर्भिक्षके भयसे भयभीत है । सबको सुबह उटनेसे लगा कर, रात्रिके सोने तक अपने पेटकी ज्वालाको शान्त करनेकी हाय हाय लगी रहती है, तो भी पूरी तरहसे भरपेट अन्न नहीं मिलता। हमारे नगर और राष्ट्र धनधान्यसे शून्य हो गये । हम दीनता और दासतामें फंसे हुए अपने जीवनको भार रूप समझे बैठे हैं । हम लोग " दो दिनकी जिन्दगी" और "क्षणभंगुर शरीर " कह कर हताश हो गये हैं । हमें वेद उपदेश देते हैं।
" पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं शृणुयाम शरदः शतं प्रब्रवाम शरदः शतं अदीना स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात् ।"
-यजुर्वेद अ० ३६।२४
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