Book Title: Bharat me Durbhiksha
Author(s): Ganeshdatta Sharma
Publisher: Gandhi Hindi Pustak Bhandar

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Page 13
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थात्-मनुष्यको पुरुषार्थ--प्रयत्न--करते हुए अदीन वृत्तिसे सौ वर्षों तक जीनेकी इच्छा सदा अपने मनमें रखनी चाहिए। सौ वर्ष अथवा सो वर्षसे भी अधिक आयु तक अपनी सत्र शक्तियों को उन्नत रखनी चाहिए।" इस वेदमंत्रको प्रायः द्विज मात्र सन्ध्योपासनाके समय बोलते हैं। परन्तु उस पर विचार नहीं करते। अब सब शक्तिया उन्नत रखने के लिये हमें पुरुषार्थकी आवश्यकता है; और वह पुरुषार्थ बिना सख-सामग्रियों के प्राप्त होना असंभव है। यहाँ रात दिन घानीके बैलकी तरह काममें पिले रहने पर भी भरपेट अन्न मिलना भी कठिन हो रहा है । पौष्टिक पदार्थ घत, दुग्धादि जो शक्तिको सरक्षित रखने के लिये मूल पदार्थ हैं; लाज स्वर्गलोकके अपाण्य अमतसे भी अधिक दुर्लभ हो गये हैं। इन्ही चिंताओंमें निमग्न रहने तथा भरपेट भोजन न मिलने के कारण मस्तिष्क भी निर्बल हो गया है अर्थात देशव्यापी भयंकर दुर्भिक्षके कारण भारतवासियोंका बुरा हाल हो गया है। जब आजसे सौ वर्ष पहले की बातें सुनते हैं और वर्तमान काल पर दृष्टि डालते हैं तो चित्तको भारी चोट पहुँचती है। जब मैंने अपने स्वर्गीय श्रीपूज्यपिताजीकी सन १८९३ ई. की एक डायरीको देखा तो उसमें लिखे अनके भावको देख कर मुझे अत्यंत आश्चर्य हुआ। उस समय चौघीस सेर गेहूँ, दस सेर चावल, तीस सेर मग, दस सेर गुड़ और दो सेर घी एक रुपये का मिलता था। यह आजसे ठीक २७ वर्ष पहलेका भाव है, जब कि लेखकका जन्म भी नहीं हुआ था। जब मैं आजकलकी इस बढ़ती हुई महँगीकी तरफ दृष्टि डालता हूँ तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इस समय देशमें गेहूँकी दर औसतसे ५ सेर फी रुपया है। यह महँगी इन छ: वर्षों में ही इस प्रकार पराकाष्ठाको पहुँची है । इसका कारण यह है कि सन् १९१५ से सरकारको अधिक वक्रदृष्टि हमारे खाद्य पदार्थ पर हुई और गेहूँ विदेश भेजा जाने लगा । और जहाँ तक मुझे ध्यान है। लगभग ९७ लाख टन हमारे देशका खाद्य पदार्थ सन् १९१५ से १९१८ तक बाहर विदेशोंको भेजा गया है। भारत भले ही भूखों मरे उन्हें इसकी कोई चिंता नहीं; कोई कुछ कहनेवाला नहीं, क्योंकि: "परम स्वतन्त्र न सिर पर कोऊ।" For Private And Personal Use Only

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