Book Title: Balbodh Jain Dharm Part 01
Author(s): Dayachand Goyaliya
Publisher: Daya Sudhakar Karyalaya

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Page 41
________________ सोपा राट | | ३ दुहवी असे जिन गाये, वो भी निशदिन भूज । कछु भेदाभेद न पायो, व्यो न्यों कर उसे भगयी ||११|| अनन्तानुबन्ध' मो जाने, प्रत्याख्यान अप्रत्यायने । मंज्वलन चौकड़ी गुनिये, भेद ॥१२॥ परिहास अर्ति रति शोभयग्यानिग पनवी जु भेट भये में पाप किये एम १३॥ निद्रावश शयन कराया, सुपनन मनि दोष लगाया 1 फिर जागि विषयवन श्रीयो, नानाविध विषफल या ॥१४॥ आहार निहार विहारी, इनमें नहि जनन विचारा | विन देखे धरा उठाया, विन शोधा भोजन याथा ||१५|| तब ही परमाद सतायो, वह विधविकलप उपजायां । कल सुधि नाहि रही है, मिथ्यामति' छाय गयी है ॥ १६ ॥ मर्यादीतुमडिंग लोनी, ताह में दोष जु कोनी | भिने भन अप कैसे कहिये, तुम ज्ञान व मन पहये ॥ १७ ॥ हा ! हा ! मैं दु अपराधी, त्रम जीवनको जु विरोधी । १ - नाईस, २ - अभय -- न यानेयोग्य, ३-रात, ४- नागे, ५- पेट, ६ - अनन्तातुवन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ और प्रत्याख्यान सम्बन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ और अप्रत्याख्यान सम्बन्धी क्रोध, मान, माया, लाभ और न सम्बन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ ये १६ पायें होती है, ७-सोल्ह, ८-इसना ९-द्वेष, १०- प्रीति, ११-शोष, १२चिन करना, १३ तीनों वेद-स्त्री वेद, पुरुष वेद, पच्चीस १५ - इस प्रकार, १६ - वप्रयरूपी वनमें, १७ - दौटा, १८ - शौन नपुंसक वेद १४ 1 जाना या पेशाब करना, १९- इधर उधर फिरना, २० -खोटी बुद्धि, २१ - नल नियम, २२ - तुम्हारे सामने, २३ - अलग, २४- दुष्ट, २५ - हिंसा करनेवाला |

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