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( ४७ ) कायके हलन चलनसे कौका आस्रव होता है सो बहुत दुखदाई है, इससे बचना चाहिए।
८ संवरभावना-ऐसा विचार करना कि संवरसे यह जीव संसार-सछुद्रसे पार हो सकता है, इसलिए संवरके कारणोंको ग्रहण करना चाहिए।
९ निर्जराभावना-ऐसा विचार करना कि काँका कुछ दूर होना निर्जरा है, इसलिए इसके कारणोंको जानकर कर्माको दूर करना चाहिए।
१० लोकभावना-लोकके स्वरूपका विचार करना कि कितना बड़ा है, उसमें कौन कौन जगह है और किस किस जगह क्या क्या रचना है और उससे संसार-परिभ्रमणकी हालत मालूम करना।
११ बोधिदुर्लभभावना-ऐसा विचार करना कि मनुष्यदेह बड़ी कठिनाईसे प्राप्त हुई है, इसको पाकर बेमतलव न खोना चाहिए, किंतु रत्नत्रयको (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र ) धारण करना चाहिए।
१२ धर्मभावना-धर्मके स्वरूपका चिंतन करना कि इसीसे इसलोक और परलोकके सब तरहके सुख मिल सकते हैं।
परीपह-मुनि कर्मोंकी निर्जरा, और कायक्लेश, करनेके लिये समताभावोसे जो स्वयं दुःख सहन करते हैं उन्हे परीपंह कहते हैं।
१ परीषासे परीषर-सहन समझना चाहिए ।