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(४५) अविरति, आदि परिणामोंके कारण कर्म आते हैं। और वे आत्माके प्रदेशोंके साथ मिल जाते हैं। जैसे धूल उड़कर गीले कपड़ेमें लग जाती है। __बंध और आस्रव साथ साथ एक ही समयमें होता है । तथापि इनमें कार्य-कारणभाव है, इसलिए जितने आस्रव है उन सवको बंधके कारण समझना चाहिए ।
संवर। आस्रवका न होना अथवा आस्रवका रोकना, अर्थात नष्ट कौका नहीं आने देना, संवर है ।
जैसे जिस नावमें छेद हो जानेसे पानी आने लगा था अगर उस नावके छेद बंद कर दिये जायें तो उसमें पानी आना बंद हो जायगा, इसी प्रकार जिन परिणामोंसे कर्म आते हैं, वे न होने पावे और उनकी जगहमे उनसे उल्टे परिणाम हों, तो काँका आना बंद हो जायगा । यही संवर है । इसके भी भावसंवर और द्रव्यसंवर दो भेद हैं। जिन परिणामोंसे आस्रव नहीं होता है, वे भावसंवर कहलाते हैं और उनसे जो पुद्गल परमाणु कर्मरूप होकर आत्मासे नहीं मिलते हैं, उसको द्रव्यसंवर कहते हैं। __ यह संवर ३ गुप्ति, ५ समिति, १० धर्म, १२ अनुप्रेक्षा २२ परीपहजय और ५ चारित्रसे होता है अर्थात् संवरके गुप्ति, समिति, अनुप्रेक्षा परीपहजयचारित्र ये ५ मुख्य भेद हैं। __गुप्ति-मन, वचन और कायसे. हलन चलनको रोकना, ये तीन गुप्ति है।