Book Title: Balbodh Jain Dharm Part 01
Author(s): Dayachand Goyaliya
Publisher: Daya Sudhakar Karyalaya

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Page 138
________________ (६४) रोकता है। लोहे, मिट्टी, पत्थरके बीचमेसे होकर निकल जाता है। पर्याप्ति-यह वह नामकर्म है जिसके उदयसे अपने योग्य अपने आहार, शरीर, इंद्रिय श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन इन पर्याप्तियोंकी पूर्णता हो । ___ अपर्याप्ति-यह वह नामकर्म है जिसके उदयसे एक भी पर्याप्ति न हो। १ प्रत्येक-इस नामकर्मके उदयसे एक शरीरके स्वामी एक ही जीव होता है। १ साधारण-इस नामकर्मके उदयसे एक शरीरके स्वामी अनेक जीव होते हैं। १ स्थिर-इस नामकर्मके उदयसे एक शरीरके धातु और उपधातु अपने अपने ठिकाने रहते हैं। १ अस्थिर-इस नामकर्मके उदयसे शरीरके धातु और उपधातु अपने ठिकाने नहीं रहते हैं। १ शुभ-इस नामकर्मके उदयसे शरीरके अवयव (हिस्से) सुंदर होते हैं। १ एकेंद्रिय जीवके भाषा और मनके बिना ५ पर्याप्ति होती हैं । द्विइन्द्रिय त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असैनी पंचेन्द्रिय लीवके मनके बिना ५ पर्याप्ति होती है । सैनी पचेन्द्रिय जीवके छहों पर्याप्ति होती हैं। ___ २ अनंत निगोदिया जीवोंका एक ही शरीर होता है और उन सबका जन्म और मरण स्वास वगैरह लेना सब क्रियाएँ एक साथ होती है।

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