Book Title: Balbodh Jain Dharm Part 01 Author(s): Dayachand Goyaliya Publisher: Daya Sudhakar Karyalaya Catalog link: https://jainqq.org/explore/010158/1 JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLYPage #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. 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Page #2 -------------------------------------------------------------------------- Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JAIN RELIGIOUS READERS SERIES KEERTAI IMES BALBODH JAIN DHARMA 1. बालबोध जैन-धर्म [पहला भाग] लेखक:श्रीयुत बावू दयाचन्दजी गोयलीय, बी. ए. प्रकाशक:बाबू रूपचन्दजी गोयलीय, मालिक-श्री दयासुधाकर कार्यालय, गढ़ी अब्दुल्लाखाँ (सहारनपुर) Palm ३२ वी आवृत्ति के मूल्य -)| आना ॥ “जैनविजय" प्रिन्टिंग प्रेस-सुरतमें मूलचन्द किसनदास कापड़ियाने मुद्रित किया। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 4 अध्यापक महाशयोंसे निवेदन । I यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि बालकका हृदय अति कोमल होता है । जो बातें बचपन में बालकोंके हृदयमें जमा दी जाती हैं उनको वे उमर भर नहीं भूलते हैं । अतएव धार्मिक शिक्षाकी वृद्धिके लिये यह आवश्यक है कि चालकनही प्रत्येक विषय भले प्रकार समझा दिये जायें । समझाने के लिये सर्वोत्तम मार्ग पुस्तक से संकेत लेकर उदाहरणों से मौखिक शिक्षा देनेका है। क्योंकि ऐसा करने से सहज ही में कोंकी समझ आ जाता है और दिल भी लग जाता है वन आपको भी हमी मार्गका अनुमरण करना उचित है । । नीव, अजीव, त्रम और स्थावर के गेंद तमवीर्गे तथा द्वारा अथवा अन्यान्य वस्तुओं ममझाना चाहिये कपटक समातिका पुस्तक छपे हुए प्रश्न तथा प्रभाव और और प्रश्न भी विद्यार्थियों पूछना और इस वहिये । आपका सेवक, दयाचन्द्र गोयलीय, बी०ए० । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीवीतरागाय नमः ॥ बालबोध जैनधर्म प्रथम भाग। पहिला पाठ। णमोकार मंत्र । गाथा। णमो अरहताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरीयाणं । ममो उवज्झायाणं, णमों लोए सबमाहूणं ।। १ ।। अर्थ-- अरहन्ताको नमस्कार अर्थ- अरहन्तोंको नमस्कार हो, सिद्धोंको नमस्कार हो, आचार्यों को नमस्कार हो, उपाध्यायोंको नमस्कार हो, और लोकमें सर्वसाधुओंको माओं को नमस्कार हो । अहेत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्वमाधु . इन पांचो " पचपरमेष्ठी" कहते है । गमोकार मंत्रका माहात्म्य । एसो पंच णमोयारो* सबपावप्पणागणो । मंगलाणं च सव्वेसिं पढमं होइ मंगलं ॥ २ ॥ ___ अर्थ-यह पच नमस्कार मन्त्र सब पापों का नाश अरनेवाला है और सब मगलोंम पहला मगल है। प्रश्नावली । १-णमोकार मन्त्रको शुद्ध पदो । २-इस मात्रका क्या माहात्म्य है ? ३-इम मन्त्रमे किन किनको नमस्कार किया है ? ४-सम्मेष्ठीके नाम बताओ। * मुहरो तपा मोकारो भी पाठ हैं। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोरे उठकर णमोकार मंत्र पढ़ो। .... दूसरा पाठ। वर्तमान चौवीस नीर्थकरों के नाम । १ श्री ऋषभ, २ आजिन, ३ संभव, ४ अभिनन्दन, ५ सुमति, ६ पद्मप्रभु, ७ सुपार्श्व, ८ चन्द्रप्रभु, ९ पुष्पदन्त, १० शीतल, ११ धेयान्म, १२ वासुपूज्य, १३ विमल, १४ अनन्त, १, धर्म, १६ शांति, १७ कुन्थु १८ अर, १९ मात्र, २० मुनिसुनत, २१ नमि, २२ नेमि, २३ पानाथ, २४ महावीर । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किसीका जी मत दुखाओ। [३ तीसरा पाठ। जीव और अजीव । जीव-उन्हें कहते हैं जो जीते हों, जिनमें जान हो, जिनमें जानने देखनेकी ताक़त हो, जैसे आदभा, घोड़ा, बैल, कीड़े मकोड़े वगैरह। भावार्थ-जगतमें हम जितने पुरुष, स्त्री, पशु, पक्षी, कीड़े. मकोड़े वगैरहको खाले, पीते, बलते, फिरते देखते हैं, उन सबमें जीव है। __ अजीव-उन्हें कहते हैं जिनमें जान न हो, जैसे-सूखी मिट्टी, इंट, पत्थर. लकड़ी, मेज़, कुरसी, कलम, कागज, टोपी, रोटी वगैरह । जीवके भेद । जीव दो तरहके होते हैं-एक मुक्त जीव और दूसरे संसारी जीव ! ___१. मुक्त जीव-उन्हें कहते हैं जो संमारसे छूट गये हैं अर्थात् जिनको मोक्ष होगया है और जिन्होंने मदाके लिये सबा सुख पा लिया है और जो कभी संमारमें लौटकर नहीं आते। २. मंसारी जीव वे हैं जो संसारमें घूमकर Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परनेमें मन लगाओ। གནས་ནས་ས་གནས་གནས་དཀའ་ ཨ་ པ་ ནས ་་ ་ w བུ་ཨ་ནཱ ཞབས་ {་ ་ ཡ जन्म मरणके दुःख उठा रहे हैं। ऐसे जीव त्रम और स्थावर दो तरहके होते हैं। १. त्रस जीव उन्हें कहते हैं जो अपनी इच्छासे चलते फिरते हों, डरते हों भागते हों, वाना ढूंढ़ते हो, अर्थात दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पांच इन्द्रिय जीव, जैसे-लट, चिटी. मावी, घोड़ा, बेल, आदमी वगैरह । २. स्थावर जीव-अर्थात् एक इन्द्रिय जीव, उन्हें. कतने है, जो पेदा होते हों, बढ़ते हों, मरते हो पर अपने आप बल फिर न मकते हों। - रवी जमीन), अप (पानी), तेज (आग), चार हरा और वनम्पति (पेड़) वगैरह। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विना पूछे किसीकी चीज मत उठायो। ५ चौथा पाठ। इन्द्रियां। इन्द्रिय-उसे कहते हैं जिसके द्वारा जीव पहचाना जाये। वे इन्द्रियां पीच होती है । १-स्पर्शन इन्द्रिय अर्थात् त्वचा ( चमड़ा); २--रसना इन्द्रिय अर्थात् जीमः ३-बामा इन्द्रिय अर्थात् नाक, ४--चक्षु इन्द्रिय अर्थात् आँखा ५-कर्ण इन्द्रिय अर्थात् कान । १. स्पर्शन इन्द्रिय-उसे कहते हैं जिससे छू जाने पर हलके, भारी. रून्वं. जिकने, कड़े. । नर्म, ठंड, गर्मका ज्ञान हो । जसे आग छूनेसे __ गर्म और पानी छूनेसे ठंडा मान्म होता है । २. रसना इन्द्रिय--उसे कहते हैं जिसस खट्ट. मीठ, कडवे, चरपरे और कपायल रस द न्वाद ) का ज्ञान हो । जैसे--पेड़ा चखनेर मीठा, नीमके पत्ते कडुवे मिरच चरपरी और बी सट्टा मालूम होता है। ३. घाणइन्द्रिय--उसे कहते है जिसके द्वारा Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __; पातो छानकर पिओ शरीर साफ रखो। सुगन्ध ( खुशबू) और दुर्गंध (बदबू ) का ज्ञान हो जैसे-गुलाब कवड़ेके फूलोंसे सुगन्ध और मिट्ट तैसे दुर्गंध आती है। वक्ष इन्द्रिय--उसे कहते हैं जिससे काले, चार नीले. लाल, सफेद रंगका तथा उन रंगोंक गोरो बने हुए तरह तरहके रंगोंका ज्ञान हो। जैकर दही. चांदी सफेद है, कोयला काला और मन लाल है, सोना पीला और मोरका कर्णन्द्रिय--उसे कहते हैं जिनसे आदमी तथा वाजवाहकी आवाज जान जाय। _ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सबसे मीठे वचन बोलो। [७ पाँचवाँ पाठ। पांच तरहके जीव। एक इन्द्रिय जीव-उनको कहते हैं जिनके सिर्फ एक ही स्पर्शन इन्द्रिय हो। जैसे-मिट्टी, पानी. आग, हवा, फल, फूल, पेड़। दो इन्द्रिय जीव-उनको कहते हैं जिनके स्पर्शन और रसना ये दो इन्द्रियां हो। नेसलट, केंचुआ, जोंक, शंख वगैरह ।। तीन इन्द्रिय जीव--उन्हें कहते हैं जिनके स्पर्शन, रसना.घ्राण ये तीन इन्द्रियां हो। जैसे-- चिंवटी, चिंवटा, खटमल. जूं वगैरह । ___ चार इन्द्रिय जीव--उन्हें कहते हैं जिनके स्पर्शन, रसना, घाण और चक्षु ये चार इन्द्रियां हों। जैसे--भौंरा, बर्र, ततइया. मकवी, छर, टिड्डी वगैरह। ___ पांच इन्द्रिय जीव--उन्हें कहते हैं जिनके पांचों ही इन्द्रियां हों । जैसे-व. नारकी, मर्द, औरत, बेल, घोड़ा वगैरह । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पता न बोलो और बड़ोका आदर करो। प्रश्नावली। 2खो पैल. कुत्ता, सांप, चिवटी, केंचुआ, लट, हाथी, our car मानो, इन जीवोंके कौन-कौनसी इन्द्रियां होती हैं ? - नार न्दन जीवोंमें दो इन्द्रिय जीवोंसे क्या बात --निस के आंख होती है उसके नाक होती है या v. तसके नाक होती है उसके आंस होती है या नहीं ? . हा कौन-कौनसी इन्द्रियां हैं ? स्थावर जीवके कौन वर्ग: ।' या ना होती ५ -~~rh सादगी जन्मसे अन्धा हुआ तो बताओ उसके Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । आवश्यक निवेदन। ____ जैन पाठशाला, जैन बोर्डिंग, जैन पटनक्रममें पढाये जानेवाले बालबोध : शिक्षावली चारों भाग, सरल जैनधर्म छ ढाला, रत्नकरड श्रावकाचार द्रव्यसंग्र जैन सिद्धान्त प्रवेशिका, क्षत्रचूडामणि तीर्थयात्रा दर्शक, न्यायदीपिका, सुषित तथा विशारद एवं शास्त्रीय कक्षाके स पयोगी सभी पुराण, कथायें, पूजन, भF यहांसे मंगाइये। क आर्मिक चारों भाग, धर्म । चारों भाग, शास्त्र, नाममाला, । पाठावली, जैन सम्यक्तकौमुदी, एवं स्वाध्यायोपंथ हमारे ही ___हमारे यहा पवित्र काश्मीरी केशर, धूप, अगरबत्ती, मालायें, जनेड, जैन पंडा, चांदीके रंगीन व सादे चित्र भी मिलते हैं। मैनेजर, दिगम्बर जैन पुस्तकालय-सूरत । - -- Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्यार्थियोंके लिये अत्यंत उपयोगी पुस्तकें। ( बालबोध जैनधर्म पहला भाग " , दूसरा भाग " " तीसरा भाग । , , चौथा भाग श्री जिनवाणी गुटिका ( जिनेन्द्र गुण गायन ) रत्नकरण्ड श्रावकाचार मान्धयार्थ माक्षणात द्रव्य संग्रह उहादाला टाला-दौलतगमजी कृत मूल मोक्षगामा मृत निगेन्द्र पंचकल्याणक-पांची कल्याणक है दान पाट ) आलोचना सामायिक पाठ -) नमिद्रांत प्रवेशिका !) दर्शन कथा ), 1 ) 17, कया ) दान कथा ), )। नZ-यापको नया दुकानदारो को काफी कमीशन । १-, । कवा अवय सायं । न! याउपचन्द्र गायलीय, श्री दयावान कार्यालय, गदी (महानपर)। my. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JAIN RELIGIOUS READERS SERIES. Home मारणासात temaperमारवजापान RAJAN Sanlunteerunima THIPATIENT BALBODH JAINOHARMA II. बालबोध जैनधर्म [ दूसरा भाग] लेखकभीयुत् बाबू दयाचन्दजी गोयलीय, बी. ए. IndisnugadeurukmanduInstrsmuskayanticnmantikunymsems Tramanthapuri प्रकाशकःघाबू रूपचन्दजी गोयलीय, मालिक- श्री दया सुधाकर कार्यालय, गढ़ी अब्दुल्लाखां (सहानपुर ) मूल्य =) आना। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यापक महाशयोंसे प्रार्थना । महाशय। लीजिये "बालबोध जैनधर्म दूसरा भाग" आपकी भेंट है, भाशा है कि इसको भी आप पहिले भागकी तरह नबीन रीलानुसार चालकोंको पढ़ायेंगे । हमने इस पुस्तकमें कठिन बातों का सरल भाषामें ऐसी रीतिसे लिखनेका प्रयास किया है कि जिससे गेल-तमागे के तौरपर हरएक छोटी छोटी उमरके बालकोंको समझमें सा जाय और उनको विषयके जानने में कुछ भी कठिनता न हो, गिरी व बडे होकर चाके मूल विषयों को सहजमें ही समझने लग IIT | इस कारण आपसे पूर्ण आशा है कि हमारे उद्देश्यों पर विचार था उनको निज उद्देश बनाकर हमको अनुगृहीत करेंगे। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Him श्रीवीतरागाय नमः । बालबोध जैनधर्म । दूसरा भाग। पहिला पाठ। पं. दौलतरामजी कृत स्तुति । दोदा। । सकल ज्ञेय नायक तदपि, निजानन्द रसलीन । मो जिनेन्द्र जयवन्त नित, अनि रजग्हम विहीन ।। १ ।। परि छन्द। जय वीनराग वितानपूर, जय मोह निमिरको हग्न सूर । जय ज्ञानअनन्तानंतधार, ग. रुख बीज मंडित अपार ॥२॥ -नीय । {मानावय तथा दानावरचीर हर्म । ३.अन्साय धर्म । ४-नंत दर्शन अन्त दुर, अनंत वीर्य । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग। [३ तुमको विन जाने जो कलेश, पाये सो तुम जानत जिनेश । पशु नारकनरसुर-गति मंझार, भव धरि घरि मरयो अनंतबार ॥११॥ अब काललब्धि वलत दयाल, तुम दर्शन पाय भयो खुशाल । मन शांत भयो मिट्यो सकलद्वंद, चाख्यो स्वातमरस दुख निकंद।।१२ तातें अब ऐसी करहु नाथ, विछुरै न कभी तुम चरण साथ । तुम गुणगणको नहिं छे। देव । जगतारनको तुम विरद एव ॥१३॥ आतमके अहित विपय कपाय, इनमें मेरी परिणति न जाय । मै रहू आपमें आप लीन, सो करो होहुँ ज्यो निजाधीन ॥१४॥ मेरे न चाह कुछ और ईश, रत्नत्रय निधि दीजे मुनीश मुझ कागजके कारन सु आप, शिव करहु हरहु मम मोहताप ॥१५ शशि शांतकग्न तपहरनहेत, स्वयमेव तथा तुम कुशल देत । पीयत पियूप ज्यो रोग जाय, त्यो तुम अनुभवत भव नमाय ॥१६ त्रिभुवन तिहुकाल मझार कोय, नहिं तुम बिन निज सुखदायहोय । मो उर यह निश्चय भयो आज,दुख जलधि उतारन तुम जहाज॥१७ दोहा । तुम गुण गण मणि गणपती, गणत न पाहि पार । • दौल 'स्वल्पमति किम कहैं. नम, त्रियोग नमार ॥ १८ ॥ १- । २-पदान, सम्पान, सम्पर चरित्र । ३-चन्द्रमा । - ५ - म मरोग, चना , पारे । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m aAMALYANMAR AMAITAMATATAN in Alm maranthanaamaasman ४] बालबोध जैन–धर्म। प्रश्नावली । (१) इस स्तुतिके बनानेवाले कौन हैं ? (२) पहिले और अन्तके दोहेको शुद्ध पढ़ो । (३) 'आतमके अहित विषय कषाय' इससे आगे अन्त तक पढ़ो। ( ४ ) आदिसे लेकर स्वाभाविक परिणतिमय अछीन' तक पढो। (५) इस स्तुतिमें जो पद्य तुमको सबसे प्रिय लगते हों, उनको कहो। (६) इम स्तुतिका भावार्थ अपनी भापामें लिखो। (७) स्तुति किसे कहते है और इसके पढनेसे क्या लाभ है ! दूसरा पाठ। भूधरदासजी कृत वारह भावना । दाहा। नित्य-गना गणा छत्रपति, हाथिनके अमगार । मग्ना मवको एक दिन, अपनी-अपनी बार ॥ १॥ बादलबले, दे देवता, मान पिता परिवार । माती विग्यिाँ जीवको, कोट न गमनहार ॥२॥ ___ -दाम विना निधन दुनी, नागावा धनवान । कब न मम मं माम, मय जग दंग्या छान ॥ ३ ॥ - दान' । २-५२२ समय । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग । [ ५ एकत्व - आप अकेला अवेतरै, मरे अकेला होय । यों कहूं या जीवको, साथी सगा न कोय ॥ ४ ॥ अन्यत्व - जहां देह अपनी नहीं, तहां न अपना कोय | घर संपत्ति पर प्रकट ये, पर हैं परिजन लोय ॥ ५ ॥ अशुचि - दिपैं चाम चादर मढ़ी, हाडपींजरा देह | भीतर या सर्वे जगतमें, और नही घिनगे ॥ ६ ॥ सोरठा । आश्रव आव — मोह नीद के जोर, जगवामी घूमै सदा । - कर्म चोर चहुं ओर, सरबस लूटें सुधि नहीं ॥ ७ ॥ संवर -- सतगुरु देय जगाय, मोहनीद जब उपशमै । तब कुछ वनै उपाय, कर्म चोर आवत रुकें ॥ ८ ॥ निर्जरा -- ज्ञानदीपे तप तेलभर, वर शोधै TO भ्रम छोर । या विधिनि निक्से नहीं, पैठे पूर्खे चोर ॥ ९ पंच महाव्रत संचरने, ममिति पंच परकार | प्रबल पंच इन्द्रिय विजये, धार निर्जरा मार ॥१०॥ म देता है, २ धनादिक, ३- कुमके लोग, ४- चनक्ती है, ५-६ दिनावनी, ७-१२ कृत १- अर्थ दे,Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारबोध जैन-धर्म | ६ ] लोक - चौदह रार्जु उतंगे नभै, लोक पुरुपसंठानें । HD HIDI 11TH A तामें जीन अनादितें, भरमत हैं विन ज्ञान ॥ ११ ॥ जांने सुरतर्फे देव सुख, चितत चितारै । चिन जांचे नि चितये, धर्म सकल सुखदैन ॥ १२ ॥ कर्मचने राजसुख, सबहि सुलभकरें जान । की है गंमार में, एक जथास्थ ज्ञान ॥ १३ ॥ इति वारह भावना | Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूमरा भाग। तीसरा पाठ। द्रव्यचर्चा। (पहिले भागसे आगे) प्रस जीवोंके भेद । त्रम जीव चार प्रकारके होते है: १-दोइन्द्रिय जीव, तीनइन्द्रिय जीव, ३-चतुरिन्द्रिय जीव, पंचेन्द्रिय जीव । ___ नोट-दो इन्द्रिय जीव, तीन इन्द्रिय जीव और चतुरिन्द्रय जीव इन जीवोको विकलत्रय कहते हैं । पंचेन्द्रिय जीवोमसे तिर्यच पचेन्द्रिय जीव तीन प्रकारके हैं: १-जलचर जीव । २-थलचर जीव । ३-नभचर जीव । जलचर जीव उन्हें कहते हैं जो जल में ही रहे। जैसे--मन्छी , मगरमच्छ इत्यादि । २-थलचर जीव-उन्हें कहते है, जो पृथ्वीपर चलतेफिरते । जैसे गाय, मम, कुना. विही इत्यादि । -मचा जीव-उन्हें कहते हैं जो आवागमें उहा करते है । जैसे-गोवा. चील, ववृतर न्यादि। समस्त पंचेन्द्रिय जीव मनी, अर्मनीक भेदसे दो-दो प्रणारे होते हैं। इ-मनी (मटी), २-अमैनी ( अयंती), Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालबोध जैन-धर्म । - --- --. . . . . . मैनी जीव-उन्हें कहते है, जिनके मन हो अर्थात जो शिया और उपदेश प्रण कर सकें । जैसे ऊंट, हाथी, करी, मेर, बन्दर इत्यादि पंचेन्द्रिय निर्यच, मनुष्य, देव, नारकी। जागनी जीन-उन करते हैं, जिनके मन नहीं हो अर्थात् LFT और उपदेश ग्रहण न कर सके। ऐसे जीव प्रायः के रज जी के गंगोगरो पैदा नहीं होते किन्तु ___ नगरे के गोगरो पैदा होजाते हैं । जल में रहने- 2 ): पानी होते है, कोई कार्ड तोता भी अौनी Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग। [९ (५) नीचे लिखे जीवों में जलचर जीव कौन कौनसे हैं ? हस, कुत्ता, मुर्गी, चील, कौआ, मेंढक, बगुला । (६) क्या आकाशमें केवल तिथंच पचेन्द्रिय जीव ही उड़ सकते हैं, और क्या उनकी शक्ति रखनेवाले सब जीव नभचर कहलाते हैं ? (७) जो जीव आकागमें बहुत ऊँचा उहता है और जमीन पर अपना घोंसला बनाना है, वह थलचर है या नभचर ? (८) एक बागमें ३ आगके वृक्षों पर चार कोयलें मीठी मीठी बोल रही है, और उनके पाम ही चार गुलाबके पेड़ों पर ७ भोर गूंज रहे हैं, तो बताओ वहां पर कितने असैनी जीव हैं। चौथा पाठ। स्थावर जीवोंके भेद । धावर जी जिनके केवल एक स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है. ये पांच प्रकार के होते है। -पृवीकायिक जीव-अधांत पृथ्वी ही जिनका शरीर । जने-मिट्टी. पाषाण अभ्रक (मोडल), रन मोना, चांदी । 4t:१३ - २' ' . जीव, इन्की पटना . Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mer-1-.. . . . . ८ बालबोध जैन-धर्म । मैनी जीव-उन्हें कहते है, जिनके मन हो अर्थात जो शिक्षा और उपदेश ग्रहण का मकें । जैसे ऊंट, हाथी, बकरी, मोर, बन्दर इत्यादि पंचेन्द्रिय निर्यच, मनुष्य, देव, ना की। ___ असैनी जीव-उन्हें कहते है, जिनके मन नहीं हो अर्थात जो शिक्षा और उपदेश ग्रहण न कर नक। ऐसे जीव प्रायः माता पिताके ग्ज और बीयके गयोगसे पैदा नहीं होते किन्तु आपसमें एक दूसरेके सयोगसे पैदा होजाते हैं । जल में रहनेवाले सर्प प्रायः अमनी होते है, कोई कोई तोता भी अपनी होता है। प्रश्नावली । ११) नीचे लिखे जीवोंमेसे कौन कौन विकल्चय हैं ? हाथी, घोहा, मकोडा. मक्खी, भौरा । १२) सैनी असैनीमे क्या भेद है, और इनमें से तुम कौन हो ? १३) क्या सब पंचेन्द्रिय जीव सैनी होते हैं ? __ और क्या सब सैनी पंचेन्द्रिय होने हैं ? (४) सैनी जीवके अधिकसे अधिक कितनी इन्द्रियां होती हैं, और कमसेकम कितनी ? जिस जीवके आख नही होती, उसमें और सैनी जीवमें क्या मेद है ? १-एकेन्द्रिय, दोहन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव तो नियमसे अनी ही होते है। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग । [ ९ (५) नीचे लिखे जीवों में जलचर जीव कौन कौनसे हैं ? हँस, कुत्ता, मुर्गी, चील, कौआ, मेंढक, बगुला । ( ६ ) क्या याकाशमें केवल तिथेच पचेन्द्रिय जीव ही रह सकते हैं. और क्या उनेकी शक्ति रखनेवाले मंत्र जीव नभचर कला है ? ( ७ ) जो जीव नाकाशमें बहुत ऊँचा उठना है और जमीन पर सपना घोसला बनाना है, वह थलचर है या नमचर ? ( ८ ) एक बाग ३ आपके वृक्षों पर चार कोयलं मीठी मीठी बाल रही है, और उनके पास ही चार गुलाबके पेड़ों पर ७ और ग्रेज रहे है, तो बताओ वहा पर कितने असैनी जीव है ? चौथा पाठ । स्थावर जीवोंक भेद । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. नानोमाना। इत्यादि बानसे निकलनेनाली भातुर्ग, पन्त उनि मानो अलग होने पर उगे जीत नही रहता। २-जलमागिक जी-1-गीन जल की निकासी हो । जगे-जल, ओला, , ग मादि। ३-अभिकाधिक जी--- अमिती का शरीर हो। जैसे-अगि। ४-नायुकागिक जीत~~ अर्थात नाय की जिनका शरीर हो । जैसे-गा। -নননি কাশি ভীমগণ্য ন ি fান शरीर हो, जैसे- क्ष, वेल, फल-फल, जीपी न्यादि । ये पांच कामक जीन वादा (माल) और रस के भेदसे दो प्रकार के होते हैं। प्रश्नावली। (१) स्थावर जीव कितने प्रकार के होते है । ( २ ) जिम जीवका शरीर हवा है, उपको क्या कहते हैं ? ( ३ ) आमके वृक्ष, अगृाकी वेल, गुलाब के फूल और नीमके पत्त कौनसे जीव है ? (५) एक तालावमे कपलने फूलोंपर भार गूंज रहे हों, तो बताओ वहांपर कौन-कौनसी कायके जीव हैं ? Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग। पाँचवाँ पाठ। पंत्र पाए । पाप पांच होते है। १-हिमा, २-झठ, ३-चोरी, ४- घुशील. ५-परिग्रह। १-हिमा-प्रमाद से अपने व दुसरे के प्राणोंको घात करने व दिल दखानेको हिमा कहते हैं । इस पापके करनेवाले को हिमक, निर्दयी. हत्याग कहते हैं । इसलिये -- जीवनकी करुणा मन धार । यह सब धर्मामे है यार ॥ २-ठ-जिर वान या जिम चीजको जमा देखा हो गामा कराया जमा सुना हो. उमको वमा कहना मो Fट इस पाप करने वाले इंटे दगाशन कहलाते है । महि . टचन मन पर मतलाय । मारक पर गा मा ।। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] बालयोग जैन -गर्म । इसलिये मालिककी आना विन कोग। चीज गहे यो चोरी होय ॥ तान आज्ञा बिन मन गहा। चोरीसे नित डरत रही ।। ४-कुशील-पराई स्त्रीके माथ रमनेको कुगील कहते हैं। इस पापके करनेवालोंको व्यभिचारी, जार, लुचा, बदमाश कहते हैं, और वे लोकमें बुरी नजरसे देखे जाते हैं। इसलिये परदाराके नेह न लगी । इमसे तुम दूरहिनै भगो॥ ५-परिग्रह-जमीन, मकान, धन, धान्य, गौ, बैल, हाथी, घोड़े, वस्त्र, वर्तन, जेवर इत्यादि चीजोसे मोह रखना और इन्हीं संसारी चीजोके इकट्ठे कग्नेमें लालसा रखना, सो परिग्रह है। इस पापके करनेवालोंको लोभी, बहुधंधी और कस कहते हैं । इमलिये-- धन गृहादिमें मूर्छा हगे। इनका अति संग्रह मत करो ॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग । प्रश्नावली | ( १ ) पापके नाम बताओ, सबसे बढा पाप कौनसा है ? [ १३ गया, (२) एक विद्यार्थी दूसरे विद्यार्थीकी पुस्तक विना पूछे घर ले बताओ हमने कौनमा पाप किया 2 (३) एक लहको कपड़ों का बहुत शौक है, हररोज नये नये कपड़े बनवाता जाता है तो बताओ तुम उसको क्या कहोगे ? - (४) एक बालकने दूसरे बालकको एक थप्पड मारा, अध्यापकने जब उनसे पूछा कि क्यों तुमने मारा है ? उमने इन्कार कर दिया, तो बताओ उसने कौनमा पाप किया ? Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ बालबोध जैन-नर्म। छठा पाठ। कपाय। कपाय---उसे कहते हैं. जो आत्माको कमै अति दुःख दे, ऐसी कपायें चार है-१-क्रोध, २-मान, ३-माया, ४-लोभ । १-क्रोध-गुस्सेको कहते हैं। २-मान-घमण्डको कहते हैं । ३-माया-छलकपट करनेको कहते हैं अर्थात् मनमें और, वचनमें और, करे कुछ और ।। ४-लोभ-लालच और तृष्णाको कहते हैं। ये चागे ही कषायें पापनन्धकी मुख्य कारण है और जीवको बहुत दुःख देनेवाली हैं। ताः क्रोध कभी मत करो, मान कपाय न मनमें धरो। माया मन वच तन हरो, लालचमाहि काहु मन परो ॥ प्रश्नावली। (१) कषायें कितनी है, नाम सहित बताओ? (२) कपायें करनेसे तुम्हारी क्या हानि है ? ( ३ ) लाल वी और घमण्डी आदमी के कौन कौनसी कषायें होती हैं? (४) एक विद्यर्थी जो पढ़ने लिखने में बड़ा चतुर है, दूमरे विद्यार्थीको जो पढ़ने-लिखने में कमजोर है, पूछने पर कुछ भी सहायता Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृमरा भाग। [ १५ . .. . ....... . . . . . . m m mmmmm नहीं देता टलटा उमकी गई और अपनी तारीफ करता है, तो बताओ उमके कोनमी कषाय है ? (५) गुम्सा करनेसे हिंमा होती है या नहीं ? (६) माया किसे कहते है ? मायाचारी झूठा होता है या नहीं ? सातवाँ पाठ। गतियां । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६] बालबोन जैन-मर्म । ३-मनुष्यगति---कोई भी जीन मकर मनुष्का शीर धारण करे, तो उनको मनुष्गगति में जन्म लेना कहने हैं। मनुष्यगतिके जीव पंचेन्द्रिग ही होते हैं। ४-देवगति-उपर कहे हए तीनो प्रकारके मिवाम एक चौथ प्रकारके जीव होते हैं, जिनको अनेक प्रकार के उत्तमोत्तम भोगोपभोग प्राप्त होते हैं, और जो गत दिन सुबमें मग्न रहने है, उनको देव कहते है। उन देवोमें मरकर जो कोई जीन जन्म लेवे, तो उनको देवगतिका होना कहते है । इस गतिके जीव पंचेन्द्रिय ही होते है। प्रश्नावली । (१) गति कितनी होती हे नाम सहित बताओ ? (२) सबसे अच्छी गति कौनसी है और सबसे बुरी कौनसी । (३) नरक कितने हैं ? वे जमीनके नीचे है या ऊपर ? वहां रहने ___ वार्लोको दु ख होता है या सुख ? । ( ४ ) ये जीव किस गतिमे है-बिल्ली, बैल, मच्छी, नारकी, वृक्ष, मनुप्य, घोडा, बंदर, नौकर, औरत बच्चा, कीडा, देव ।। (५) एक गाय मरकर मनुष्य होगई, तो बताओ पहिले वह किस गतिमें थी और फिर किस गतिमें गई ? । (६) एक जीव नरकसे निकलकर कुत्ता बना, तो बताओ वह अन. अच्छा है या पहिले अच्छा था ? (७) तुम देवगति पसंद करते हो या मनुष्यगति ? सम्पूर्ण। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नालगोन जन-प। ३-मनुष्णगति---कोई भी जीन मरकर मनुष्य का नारीर धारण करे, तो उनको मनुगनिमें जन्म लेना कहते है। मनुष्यगतिके जीव पंचेन्द्रिग की होने हैं। ४-देवगति----ऊपर कहे हा नीनो प्रकारके गिनाग एक चौथे प्रकारके जीन होते हैं, जिनको अनेक प्रकारक उत्तमोनम भोगोपभोग प्राप्त होते है, और जो गत दिन गुममे मग्न रहते है, उनको देव कहते है। उन देशों में मरकर जी कोई जीत्र जन्म लेवे, तो उनको देवगतिका होना कहते हैं । इस गतिके जीव पंचेन्द्रिय ही होते है । प्रश्नानलो। (१) गति कितनी होती हे नाम सहित बताओ ? (२) सबसे अच्छी गति कौनसी है और मबसे बुरी कौनसी ! (३) नरक कितने हैं । वे जमीनके नीचे है या ऊपर ? कहां रहने - वालोंको दु ख होता है या सुख ? (४) ये जीव किस गतिमे है-विली, बैल, मच्छी, नारकी, वृक्षा, मनुष्य, घोडा, वंदर, नौकर, औरत बच्चा, कीडा, देव । (५) एक गाय मरकर मनुष्य होगई, तो बताओ पडिले वह किस गतिमें थी और फिर किस गतिमें गई ! (६) एक जीव नरसे निकलकर कुत्ता बना, तो बताओ वह अर अच्छा है या पहिले अच्छा था ? (७) तुम देवगति पसंद करते हो या मनुष्यगति ? सम्पूर्ण। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Owuo?!DUDU WW विद्यार्थियों के लिये अत्यंत उपयोगी पुस्तकें | चालयोध जैन धर्म पहला भाग दूसरा भाग तीसरा भाग चौथा भाग "" "" " 22 duindia "" " श्री जिनवाणी गुटिका ( जिनेन्द्र गुण गायन ) रत्नकरण्ड श्रावकाचार सान्ववायें मोक्षशास्त्र द्रव्य संग्रह छहढाला छहढाला- दौलतरामजी कृत आदिनाथ स्तोत्र - ( भक्तामर मूल और भाषा ) मोक्षशास्त्र अर्थात् तत्त्वार्थसूत्र जिनेन्द्र पंचकल्याणक - पांचों क्ल्याणक हैं - ) | दर्शन पाठ जैन सिद्धांत प्रवेशिका ) शीलकथा "" "" " अहिंसा धर्म प्रकाश दर्शन कथा | =) दानकथा पता - बाबू रूपचन्द्रजी गोयलीय, श्री दयासुधाकर कार्यालय, गढ़ी अब्दुल्लाखां (सहारनपुर ) ... 10 -) .. SMS " जैन विजय " प्रिन्टिंग प्रेम - सूरत मे मूलचन्द किसनदास कापडियाने मुद्रित किया । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JAIN REC 15:२४ - 21! 2.55 ५ . . 4A ' - ." PK BALBODH JAINDUARI2A 111 बालबोध जैन-धर्म [ तीसरा भाग] म..... . ७ .. ... .. an .. . श्रीयुत बाय दगानन्दनी गायलीय, चौ. ए. ५ 1. प्रकाशक:--- बाद रूपचन्दजी गायलीय, गारिक-श्री व्यानुधाकर कार्यालय, गढ़ी अब्दुल्लाखों (महाना) २५ वी आवृति] मूल्य ४)॥ आना "जैनविजय" प्रिन्टिंग प्रेस-मृरतमें मूलचन्द फिरानदार कापड़ियाने मुद्रित किया। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] नालगोभ जैन धर्म । मम ममारंभ आरम, मन बच तन कीने प्रारंभ । कुन कारित मोदन करिके, क्रोधादि चतुष्टय धरिके ।। ४ ।। शत आर्ट जु इन भेदन, अर्घ कीने परछेदनेत ।। तिनकी कहूँ कोलो' कहानी, तुम जानत केलजानी ॥५॥ विपरीत एकांत विनयके, मंशग अनान कुनैयके । उम होय घोर अब कीने, वर्चत नहिं जात कहीने ॥६॥ कुगुरुनकी सेवा कीनी, केवल अदया कर भीनी । या विधि मिथ्यात बढायो, चहुँ गतिमें दोष उपायो ॥ ७ ॥ हिंसा पुनि झूठ जु चोरी, पम्वनिता मों द्वेग जोरी। आरंभ परिग्रह भीने, पैन गए जु याविधि कीने ।। ८ ।। सपस रमना घाननको, ₹ग कान विषय सेवनको। बहु काम किये मनमाने, कछ न्याय अन्याय न जाने ॥ ९ ॥ फल पंच उधर खाये, मधु मांस मद्य चित चाये। नहिं अॅर्ट मूलगुण धारे, सेये कुविसी दुखकारे ॥१०॥ १-किसी काम करनेका गदा करना, २-किसी कानके कग्नेका मामान इकठा करना, ३-किसी कामका शुम्भ करना, ४-खुर करना, ५-दूसरेसे कराना, ६-दूमरेको करता देवकर खुश हाना, ७-कार, मान, माया, लोभ, ८-एकमौ आठ, ९-पाप, १०-दूसरेको दुःख देनेसे, ११-कब तक, १२-विपरीत, एकान्त, विनय, सशय और अनान ये जांच मिथ्यात्व होते है, इनका स्वरूप अगली पुस्तकोंमें दिया जायगा । १३पचनसे, १४-दयाका न होना, १५-भी हुई, १६-फिर, १७-परले से, १८-अखि ल्हाना, १९-पांच, २०-इम प्रकार, २१- स्पा २२-खि, २३-योग्य, २४-अयोग्य, २५-पीपल, बड, गूलर, कठूमर, (अजोर ) और पाकर, २६-शहद, २७-शराष, २८-आठ, २९-चे गुण जिनके ---विना श्रावक नहीं हो मकता, ३०-व्यसन-दुर्गुण, जुआ खेलना, मांस * ना, शराब पीना, परस्त्रीसेवन, वेस्यासेवन, शिकार खेलना, चोरी करना । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोपा राट | | ३ दुहवी असे जिन गाये, वो भी निशदिन भूज । कछु भेदाभेद न पायो, व्यो न्यों कर उसे भगयी ||११|| अनन्तानुबन्ध' मो जाने, प्रत्याख्यान अप्रत्यायने । मंज्वलन चौकड़ी गुनिये, भेद ॥१२॥ परिहास अर्ति रति शोभयग्यानिग पनवी जु भेट भये में पाप किये एम १३॥ निद्रावश शयन कराया, सुपनन मनि दोष लगाया 1 फिर जागि विषयवन श्रीयो, नानाविध विषफल या ॥१४॥ आहार निहार विहारी, इनमें नहि जनन विचारा | विन देखे धरा उठाया, विन शोधा भोजन याथा ||१५|| तब ही परमाद सतायो, वह विधविकलप उपजायां । कल सुधि नाहि रही है, मिथ्यामति' छाय गयी है ॥ १६ ॥ मर्यादीतुमडिंग लोनी, ताह में दोष जु कोनी | भिने भन अप कैसे कहिये, तुम ज्ञान व मन पहये ॥ १७ ॥ हा ! हा ! मैं दु अपराधी, त्रम जीवनको जु विरोधी । १ - नाईस, २ - अभय -- न यानेयोग्य, ३-रात, ४- नागे, ५- पेट, ६ - अनन्तातुवन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ और प्रत्याख्यान सम्बन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ और अप्रत्याख्यान सम्बन्धी क्रोध, मान, माया, लाभ और न सम्बन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ ये १६ पायें होती है, ७-सोल्ह, ८-इसना ९-द्वेष, १०- प्रीति, ११-शोष, १२चिन करना, १३ तीनों वेद-स्त्री वेद, पुरुष वेद, पच्चीस १५ - इस प्रकार, १६ - वप्रयरूपी वनमें, १७ - दौटा, १८ - शौन नपुंसक वेद १४ 1 जाना या पेशाब करना, १९- इधर उधर फिरना, २० -खोटी बुद्धि, २१ - नल नियम, २२ - तुम्हारे सामने, २३ - अलग, २४- दुष्ट, २५ - हिंसा करनेवाला | Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ ] HTM बालबोध जैन अम । ܢ ܢ ܠ ܐ ܢ करुना नहि लोनी ॥१८॥ ११ जलायो । थावरकी जनत न कीनी, उम्में पृथिवी बहु खोद कराई, महलादिक जागा चिनाई । विनगोल्यो पुनि जल ढोल्या, पंखात पवन विलोल्यो" ॥१९॥ हा ! हा! मैं अदद्याचा, बहु हरित जु काय विदारी । या मर्धि जीवन के खदी, हम खाये धरि आनन्दा ||२०|| हा ! हा ! परनाद पाई, विन देखे अनि जलाई । ता मध्य जीव जे आये, तेह परलोके सिवाये ||२१|| चीधो "अनशशि पिमायो वन विन शोध झाडु ले जगा बुहारी, चिट आदिक जीव जल छानि जिवानी" कीनी, मोहू पुनि डारि जु दीनी । नहि जल थानक पहुंचाई. किरियां विन पाप उपाई ||२३|| जल मलमोरि गिरिखायो, कृमिकुल बहु बात करायो । नदियन विच चीरें धुवावे, कोसन के जीव मराये ||२४|| अन्नादिकं शोध कराई, ता मध्य जीव निसराई " । तिनको नहि जतन करायो गलियारे धूप डरायो ॥ २५॥ पुनि द्रव्ये कमावन का, बहु आम्म्मे हिमा मात्रै । ॥ २२॥ 1 १ - चित्तमें, २- जगह, ३-विना छना हुआ ४ - डाला ५ - हिलाई, ६ - दया नहीं करनेवाला, ७- नए की, ८- इसमे ९ - स्कन्ध समूह १० - मर गये 11 - चुना हुआ, १२- अनाज, १३- चिउट, १४ - पानी छान लेनेपर छने में जो जाव रह जाते हैं, यदि किस वर्तनपर वह छन्ना उलटकर रखद और ऊपरसे छना हुआ पानी डाल्द तो वे जीव उस पानी के साथ उस वर्तनम आ जाते है, उसी जीवोंसे भरे हुए पानीको जीवाना कहते हैं। पानी दोहरे छन्ने में बारीक धारसे छानना चाहिये और छने हुए पानीसे जिवानीको उसी जगह जहांसे पानी लिया है धोकर डाल देना चाहिये । १५ - क्रिया यत्न, १६- मोरियों में, १७ - लट कीडी आदि जीवोंके समूह, १८ वस्त्र १९ - अनाज, ६ विनवाना, २०- निकलवाये, २१- रुपया, २२ - हिंसा के साज समान । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तोमग भाग 1 .......... कीये तिमनाया भारी, पास्ता नहीं च सिनारी ॥२६॥ इत्यादिक पाए अनन्ना. हम कोने श्री गन्ना । नंतत चिरकाले उपाई. बानी कही न माः ॥२७॥ ताको जु उदे अब आयो. नानाविधि मोहिमता" । फल मुंज जिय दृस्ट पावें, बचनें फैमे मरिगा ॥८॥ तुम जानत केवलजानी'. दर दर को शिवयों नी । हम तो तुम गरन लही है, जिन नाग्न विन्द की ॥२५॥ इक गाँवपती जो होये. मां भी दुनिया दख यो । तुम तीन भुवनके" चामी. दख भेटी अनजामी ॥३०॥ डोपदिको चीर बटाया, मीता प्रति कमल रचाया। अञ्जनसे किये अक्रामी, दुरस मेटो अन्तरजामी ॥३१॥ मेरे अवगुणं न चिताग . प्रभु अपनो निग्द निहाग" । मय दोपरहित कर बामी, दुल मंटो अन्तरजामी ॥३२॥ इन्द्रादिक पद नहि चाहूँ, विपयनमें नहीं लुभाऊँ । नागोंदिक दोष हरीजे, परमातम निज पद दीजे ॥३३॥ दोहा। दोपरहित जिनदेवजी, निज पद दीजे मोय । मर जीवनके सुख बढे, आनन्द मंगल होय ॥ ३४ ॥ ५-तृष्णा अर्थात् लाभ कमायके वा, २-जरा भी, ३-बात, ४लगातार, ५-बहुत काल नक, ६-अनेक प्रकार, ७-दुप दिया, ८-भोगते हुए, ९-ससारफे समस्त पदार्थाको जानने वाले, १०-सिद्ध, ११-कीति, १२-एक गांवका स्वामी, १३-तीनों लोकोंक, १४-इच्छारदित, १५हृदयकी बात जाननेवाले, १६-दोष, १७-विचारो, १८-देग्यो, १९राग द्वेष वगैरह दोष, २०-सिद्धपद । - - Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६] बालबोध जैन धर्म।। ____ अनुभव माणिक, पारखी', जौहरी आप जिनन्द । येही वर मोहि दीजिये, चरन शरन आनन्द ॥३५॥ नोट-यह आलोचना पाठ दर्शन और तोपो पी भगवानो __ दाहिनी और सामने बठकर पदना नाहिगे। प्रदनावली। १ -आलोचना किसे कहते हैं ? इस पाटको कब और क्यों पहना चाहिये ? २-" हा ! हा! मै दुट अपराधी " यहांसे लेकर " हम रताये धरि आनन्दा " तक पहो। ३-आदिके चार छन्द और अन्तके दोहे पढ़ो। ४-पंच उदुम्बर, अष्ट मूलगुण, म्प्त व्यसन, पांच मिथ्यात्व. पांच पाप पाच इन्द्रिय, चार गति, सोलह कषाय, इनके केवल नाम बताओ। ५-केवलज्ञानी, अन्तरजामी, अरति, सजीव, परलोक जिवानी. अभक्ष, परमात्मपद, इन्द्र इनसे क्या समझते हो ? ६-सीता, द्रौपदी और अंजनचोर इनके विषयमें जो कथायें प्रसिद्ध है उन्हें सुनाओ। ७–पाठमें जो “ शत आठ जु इन भेदनते" आया है सो १०८ भेद गिनकर बताओ। ८-इस पाठमें जो छन्द अत्यन्त प्रेम और नम्रता लिये हों, उनको पढो। १-आत्माका अनुभव, २-एक प्रकारका रत्न, ३-परखनेवाले हैं। हे जिनेन्द्र | आप स्वात्मानुभवरूपी रत्नके परीक्षक जौहरी हैं, मुझे यही वरदान दीजिये कि मै आपके चरणोंकी शरणका आनन्द लेता रहू । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो भाग। दसरा पाठ। जिनेन्द्र गर्भकल्याणक . ( म्यान ५० रुपी पा ) पणविवि पंच परमगुरु, गुरुं जिनकामना । मकल सिद्धदातार सु, विधन विनाशनी ।। शारद अरु गुरु गोतम. सुमति प्रकाशन । मंगलकर चउ संघहि. पाप गानो । पापहि प्रणाशन गुणहि गरवा. दोष अष्टादर्श रहो । धर ध्यान कर्मविनाश केवलज्ञान अविचल जिन लगा ॥ प्रभु पंचकल्याणक विगजित, सकल सुर नर ध्यावहीं । त्रैलोक्यनाथ सुदेव जिनवर, जगत मंगल, गावहीं ॥ १ ॥ जाके गरभकल्याणक, धनपति आइयो । अवधिज्ञानं परवान, सु इन्द्र पठाईयो । रचि नव चारह योजन, नयरि मुहावनी । कनक ग्यणमणि मण्डित, मंदिर अति बनी ।। १- नमस्कार करता ह २-महान, ३-श्री महावीरस्वामके मुख्य गण धरका नाम, ४-मुनि, प्रायिका, श्रावक, श्राविका-इनके समूहको कहते है, ५-बहुत,६-अठारह' दोषरहित, ७-ऐमा मान जिससे सप्तारके समस्त पदार्योको जाने, ८-अविनाशी, ९-भगवानके गर्भ, जन्म, नप, विलसान और मोक्ष ये पांच कल्याणक होते हैं अर्थात् इन पांचोंमे ही उत्सव होता है । '१०-तीनों लोकोंके स्वामी, ११-कुवेर, १२-एक प्रकारका ज्ञान जिससे मर्यादापूर्वक परोक्ष वस्तु भी प्रत्यक्ष जानते हैं. १३-भेजता है, १४ नगरी, १५-रत्न। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८] बास्योम जैन धर्म । - - • • • • • • • • • • __ अति बनी पौरि पगारि परिखा, सुनन उपान मोहगे। नर नौरि सुन्दर चतुर मेख सु, देव जन मन मोहगे । तहां जनक गृह छ, माम प्रयमहि, रतन भाग वरपियो। पुनि रुचिकै बायिन जर्ननि सेवा, कहि मन विधि हरपियो ॥२॥ सुर कुंजरममै कुंजर, धनलं धुरन्धगे" । केहरि" केमर गोभित, नखशिख सुन्दरो ॥ कमला कलश न्हवन, दुइ दाम सुहावनी । रवि शशिमाडल मधुर मीन जुग पावनी॥ राबनि कनक घर्ट जुगम पूग्ण, कमलकलित सरोवगे। कल्लोल माला कुलितं मागर, सिंहपीट' मनोहरो॥ रमणीक अमर विमान फणपति, भवन भुवि छवि छाजये। रुचि रत्नराशि दिएन्त ढहन सु, तेजपुंज विराजये ॥ ३॥ ये सखि मोलेहें सुपने सूती सयनहीं। देखे मार्य मनोहर पश्चिम रयनहीं । उठि प्रभात पिय पूछियो अवधि प्रकाशियो। त्रिभुवनपति सुत होसी' फल तिहि भासियो । भासियो फल तिहि चिंति, दंपति, परम आनंदित भये । छह मास परि नव मास पुनि तह, रयनदिन सुखसो गये ॥ १-कोट दीवार २-खाई, ३-स्त्री, ४-पहिले ही, ५-रुचिकपर्वत पर रहनेवाली देवियां, ६-माता, ७-ऐरावत, हाथोके समान, ८-हाथी, ९-सफेद, १०-बेल, ११-सिंह. १२-गर्दन परके बालोंसे गोभायमान, १३-कलशोंसे स्नान करती हुई लक्ष्मी, १४-माला, १५-सूर्य, १६चन्द्रमण्डल, १७-महल', १८-घडा, 1९-कमल सहित, २०-लहरों महित, २१-सिंहासन, २२-देवोंका विमान, २३-धरणोन्द्रका भवन, २४-अग्नि, २५-सोलह, २६-माता, २७-पिछलो, २८-रातमें, २९-सबेरे, ३०५-पति, ३१-होगा, ३२-विचार करने, ३३-रात दिन । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तोमा भाग। ... गर्भावतार महंत महिमा, मुनत मर सुग पा भनि 'रूपचंद' मुदेव जिनवर, जगत मंगल गावहीं ॥४॥ त ... भावार्थ-माल्याण जिम समय श्रीतीर्थकर भगवान गभर्म आने हैं. उमसे छः महीने पहिले ही स्वर्गमे इन्द्र कुवरको भेजता । गुबर आकर बड़ी सुन्दर शोभायमान नगरीकी रचना करता है, जिममें बहुत ही सुन्दर और रत्नमय मंदिर, वन, उपचन होते हैं, जिनको देखकर लोगोको बढ़ा आनन्द होना है। उसी समयसे ग्लोकी वर्षा होने लगती है और देवियां माताकी सेवा करनी है । माताको गत्रिक पिछले भाग ५६ यम दिखाई देते है। वह सवेरे ही उठकर अपने स्वामीसे उनका फल पृलती है। स्वामी उनका फल कहते हैं कि तुम्हारे तीन लोकका स्वामी पुत्र होगा। माता पिता दोनों ही इस बातगे आनंदित होते हैं और भगवान्के जन्मपर्यन्त आनन्दसे समय व्यतीत करते है। प्रश्नावली। -भगवान्के कल्याणक कितने होते है, क्रमस नामसदिन बताओ। २-भगवान्की माताको कितने बन्न दिखाई देते है और किम समय? ३-भगवान्के गर्भमें आने समयसे लेकर जन्मममय तह जो जो होता है, उसको संक्षेपसे कहो। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माल मर्म । पकल्गार, विमान, केवलजान, मन-नर सम्बन्ध ज्या जानते हो। - पावन, कनक वर 'सेका फल तिहिं भानियो तक रही। -गवानकी नानाको ज १६ बम दिग्लाई देते हैं, उन्न नाम बताओ। ७-गल कर और किस समय प्ने जाते हैं ? तीसरा पाट। जिनेन्द्र जन्मकल्याणक । मति सुते अवधि विराजित, जिन जब जनमियो । तिहुँ लोक भयो छोभित, सुरगण भरमियो।। कल्पवालि दर चण्ट, अनाइदै चजियो । जोति वर हरिनादे, महज गर्ल गजियो । गाजियो महजहिं शंख भावन, भुवन सगर्दै सुहावने । स्तिर निलयं पटुपटह बजहि, कहत महिमा क्यों बने । कम्पित सुरास्न अवधिवल जिन. जन्म निहचे जानियो । धनरीज तब गजगजे मायामयी, निरमय आनियो ॥५॥ १-श्रुतज्ञान, -कर प्रवासी जातिके देव जो १६ स्वर्गामे रहते है, ३-विना जाप, ४-ज्योतिषी जानिके देव, ५-सिहनाद, ६-एक प्रकारका चाजा, ७-भवनवामी जातिके देव, ८-शब्द, ९-व्यन्तर जातिके देवोके ..पा, १० कुबेर, ६-हाथो, १२-म्नाकर । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीमा भाग नीम माni जोजन लाल गयंद, बदनं नौ निगमय । उदन बढन यई दन्त, दन्न मर मंटगे । मर मर मोपणवीम, कमलिनी कानहीं। कमलिनि, कमलिनी कमान, पचीन विराज । गजही कमलिनी कमल अटोनर-माँ मनोहर दल बने । इल दहि अपहर नहि नवग्म, हार मात्र महायने ।। मणि कनक क्रिकणि वर विचित्र. सु अमर मटप मोरये। बन घण्ट चवर ध्वजा पताका, दंग्य त्रिभुवन मोहये । ६॥ तिहि करि हरि चटि आयट र परिवाग्यिो । पुरहि प्रदन्छन देत सु जिन जगमारियां ।। गुप्त जाय जिन जननिहि" मुख निद्रा रची। मायामय गिर्नु गखि, तो जिने आन्यो शची! आन्यो शची जिनाए निरखत, नयन नृपन न हजिये । तर परम हरपित हृदय, हग्नेि महम लोचन पृजिये ।। युनि कर प्रणाम सु प्रथम इन्द्र. उछंगधरि प्रम लीनऊ। ईशान हन्द्र मु चन्द्र छवि, सिर छत्र प्रमुके दीन ॥७॥ - मनतकुमार महेन्द्र, चमर दुई द्वारहीं। शेष शंक जयकार, मंट उचारहीं ।। १-हाथी, २-मुग्व, ३-एकसौं, ४-आठ, -बनाये, ६-एको पच्चीम, ७-कमलोकी बेल, ८-एकमो आठ, ९-हाथीपर, १५-रिवारमदित, १५-प्रदक्षिणा, १२-प्रसूतियानमें, १३-गवान्की माताको, १४ - बालक, १५-भगवान्को, १६-इन्द्राणी, १७-हजार नत्र, १८-बनाये, १९-पहले -सौधम स्वर्गका इन्द्र, २०-गोद, २१-दूसरे स्वगके इन्द्रका नाम २२-तीसरे स्वर्गके इन्द्रका नाम, २३-चौरेस्वर्गके इन्द्र का नाम, २४-इन्द्र, २५-यान्द ., Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] बालनोन जैन धर्म । उच्छव सहित चतुरेविधि, सुर हरगित भगे । जोजन सहस निन्यानवे, गगन उलंवि गये ॥ लंवि गये मुरगिरि जहां पांडके-बन विचित्र विगजही । पांडुक-शिला तहां अर्द्धचन्द्र. ममान मणि छवि छाजही ।। जोजन पचाम विशाल दुगुणायाम, वसु ऊँची पनी । वर अष्टमगले कनक कलशनि, सिंहपीट मुहावनी }}८ गचि मणिमण्डप शोभित मध्य सिंहामनी । थाप्यो पूरव मुख तहां प्रभृ कमलामनी ।। वाजहिं ताल मृदंग, भेरि वीणा बने । दुन्दुभि प्रमुख मधुर धुनि, और जु बाजने ।। १-चार प्रकारके देव भवनवासी, व्यन्तर प्योतिाक और कत्यवामी, २-सुमनपर्वत एक लस्त्र योजन ऊँचा है, टम्म एक हजार योजन जमी नके मात्र है जेर ९९ हजार योजनकी ऊँचाई पर डक-वन ', ३आकाश, ४-५ इन जम्वृदीपक मध्यभागमे एक लाख याजन ऊना मुमेक पर्वत है। जिनमें हजार योजन जनीनके भीतर है। जमीनपर भद्रमाल वन है । पाचसी योजन ऊँचा नन्दनवन है। इससे बासठ हजार पाँचसो जन ऊँचा सोमनम बन और फिर उत्तीस हजार योजन ऊँचा पाडुकवन । इसी वनमे मध्यभागमे चारों दिशाओंमें एक एक स्फटिकमणिको शिला पड़ी हुई है, जिनका नाम पाडुक शिला है। वे शिलाए अष्टमगल द्रव्य और तोरणा आदिकोंसे सुशोभित है । इनपर नजडित त्वर्णश्य' तिहासन रक्खे हुए है, जिनपर भगवानका अभिषेक हाता हे भरतभत्रम उत्पन्न हुए तीयाका अभिषेक दक्षिण दिशाकी पाडुक शिलापर इता है, ६वह शिला १०० ये जन लम्बी, ५० योजन चौडो, ८ येजन ऊंची है, ७-दुगुणं लाबी, ८-आठ, ९-अष्टमगलद्रव्य, १०-पद्मासन ११-बाजे। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीमरा माना चाजने राजहिं शची मय मिलि, धवल, मंगल, गावहीं । पुनि करहिं नृत्य सुगंगना पब, इंच कौतुक धावहीं ।। भरि क्षीरमागर जल, जु हार्ट, बाथ सुरगन न्यावी । गोधर्म अरु ईशान इन्द्र सु, कलश ले, प्रभु न्यावहीं ।।९।। बदन-उदर अवगाह, कलशगन जानिये । पंक चार वसु जोजन, मान प्रमानिये ।। महम अठोत्तर कलशा, प्रभुके. मिर टेरें । पुनि शृङ्गारे-प्रमुख, आचार मं करें । करि प्रकट प्रभु महिमा महोच्छव, आनि पुनि मानहिं दयो । घनपनिहि सेवा गखि सुरपति, आप मुग्लोकहि गया । जनमाभिषक महंत महिमा, सुनन मब मुग्व पावहीं । भन रूपचन्द सुदेव जिनवर, जगन मंगल गावहीं ॥१०॥ भावार्थ-जन्मकल्याणक । __ जिम ममय मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान संयुक्त श्री तीर्थकर भगवानका जन्म होता है, उस समय तीनो लोकमें आनन्द होजाता है। इस समय इन्द्रका आसन कंपायमान होता है, जिससे वह जानता है कि भगवानका जन्म हुआ। इसी समय कुबेर एक बड़ा सुन्दर मायामयी ऐरावत हाथी बनाता है, जिसकी शोभा बड़ी ही अद्भुत होती है। इन्द्र उस हाथीपर १-देवागना, २-पांचवा समुद्र, जिमका जल दूधके समान है, ३कलगोंका मुंह एक योजन, पेट चार योजन और ऊँचाई आठ योजन, ४-एक हजार आट, ५-वस्त्राभूषण पहिनाना आदि ६-माताको। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४] , मासबोध जैन मम । चढ़कर परिवार महित आता है और जयजय गन्द्र करना आ नगरकी प्रदक्षिणा देता है। इन्द्राणी प्रतिगृहमें जाकर भगवानकी माताको मायामे मुला देती है और फिर नहीं वैया की मायामयी बालक बकर भगवानको बाहर ले आती। जल इन्द्र भगवानका रूप देवता हुआ तृप्त नहीं होता है. नर हजार आंखे बनाता है पहिला सौधर्म इन्द्र भगवानको प्रणाम कर गोदने लेना है। दूसरा गान इन्द्र छत्र लगाता है। तीसरे चौथ स्वगके इन्द्र चमर ढोरते है और बाकी इन्द्र जय जय शब्द उच्चारण करते है। ____ इस प्रकार चाग प्रकारके देव परम हर्पित हो. वडे उत्सवसे भगवानको गवत हाथीपर विगजमान कर मरुपर्वत पर ले जाते है और वहांकी पांडक शिलापर रक्खे द्वारा नवमयी सिंहासन पर विराजमान करते है। उम समय अनेक प्रकार के बाजे बजते हैं, इन्द्राणी मंगल गाती है और देवागनाएँ नृत्य करती है। देवगण हाथोहाथ भीरममुद्रसे कलशे भरकर लाते है और सोधर्म और ईशान इन्द्र भगवानका अभिषेक करते हैं। फिर भगवानको वस्त्राभूषण पहना कर आनंद-उत्सवसे लौटते है। इन्द्र भगवानको माताकी गोदमे देता है और उनकी सेवाके लिये कुबेरको छोडकर आप अपने स्थानको चला जाता है। प्रश्नावली। १–भगवान्को जन्मसे ही कौन कौनसे ज्ञान होते हैं और — न्द्रको भगवान्का होना कैसे मालूम होता है ? Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा भाग। १५. २-भगवान्के जन्म समय क्या होता है और इन्द्र न्या __३-उन्म हुए पोट भगवान को कौन बाहर नता है क्सि प्रकार ? ४-भगवानको मेरुपर्वत पर ले जाकर क्या करते हैं। '-उन सम्बन्ध या जानते हो- अववियन, राज, जोजन, मनतकुमार. पाक बन 3 शिला, सीमा सुपति. धनपति. सुमेरुपर्वत । ६-आदिसे लेकर कमर पचीस विराजही तक और बदन रदर अवगाह' से लेकर अन्त तक पहो । ७-इन मंगलों के बनानेवाले कौन हैं। वे मुनि थे या श्रावक ? __ क्या किसी स्थान पर उन्होंने अपना नाम प्रक्ट किया है। चोथा पाठ। अजोयके भेद। अजीव प्रांच प्रकारके होते है:१-पुल, २-धर्म, ३-अधर्म ४-आकाश, ५-काल । १-पुद्गल, उसे कहते है, जिसमें स्पर्श, रस, गन्ध ओर वर्ण पाये जावें । पुद्गलके कई भेद हैं । स्थूल ( मोटा) पुद्गल तो आंखोसे देखनेमें आता है, परन्तु सूक्ष्म (बारीक) __पुद्गल नहीं दिखाई देता । युद्गलके सबसे छोटे टुकड़ेको परमाणु १-स्पर्श, रस, गन्ध, वर्णका पाठ आगे दिया गया है। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालबोमजन । कहते हैं । दो या दोसे ज्यादा मिले हुए पुद्गल परमाणुआको स्कन्ध कहते हैं । आप, छाया, अन्धेरा, चादनी मत्र पुगलकी ‘पर्यायें ( हालतें ) हैं। २---धर्म द्रव्य उसे कहते है, जो जीव और पुद्गलांके चलनेमें सहकारी हो, अर्थात यह पदार्थ तमाम लोकमे पाया जाता है और अपनी आंग्बोसे देरनेमें नहीं आता। __ ३-अधर्म द्रव्य उसे कहते हैं, जो जीव और पुदलाके ठहरनमें महकारी हो। जैसे पंडकी छाया थके हुए मुमाफिरोंको ठहरनेमें सहकारी है । यह पदार्थ नमाम लोकमे पाया जाता है और अपनी आंखोसे देखनेमें नहीं आता । धर्म अधर्म द्रव्य जीव पुद्गलको प्रेरणा करके चलाते या ठहराते नहीं हैं, परन्तु जब वे चलते हैं अथवा ठहरते है उमसमय उनकी मदद करते हैं। हां, यह जरूर है कि यदि धर्म द्रव्य न हो तो कोई पदार्थ ठहर नहीं सकता। यहां धर्मअधर्मसे साधारण धर्म अधर्म न समझना चाहिये जिनके अर्थ पुण्य पापके हैं। ४-आकाश उसे कहते हैं, जो अन्य चीजोंको अवकाश नोट-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन पाच प्रकारके अजीवोंमें एक जीव द्रव्य और मिलानेसे छ. द्रव्य हो जाते हैं। इन छहों द्रव्योंमें से काल द्रव्यको छोडकर इंए पांच द्रव्य पञ्चास्तिकाय कहलाते है । द्रव्य कायवान नहीं है। उनका एक एक अणु अलग अलग है । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नोमग माग (स्थान) दे, अर्थात यह वह पढाध है, जिसमें सर चीजें रहती हैं। इसके दो भेद है-१-लोकाकाश, २-अशोकाकाश । लोकाकाशमे जीय, अजीत्र, पदल, धर्म, अधर्म वगैरह पर चीज पाई जाती है, परन्तु अन्नो काकाशमें केवन, आकाश ही __ आकाश है, और कुछ नहीं । ५-काल उसे कहते है, जो बीजॉकी हालनाके बदलनेमें मदद देता है । व्यवहारमं पन्न, बड़ी, पहर, दिन, गमाह (हफ्ता), पक्ष (पन्द्रहवाहा), माम. वप वगेरहको काल, कहते है। प्रश्नावली ! १-कौन कौन द्रव्य लोको पाये जाने हैं। क्या भोका ___ भी काई द्रव्य है? २-आकाशके कितने मन हैं ? नान मदिन बनाओ। जहा हम बैठे हुए हैं. वहांपर आकाश क्रय है नहीं ? ३...उन द्रव्यों के नाम बनाया जिनमें चेतना पाई जाती है। 2- यदि धर्म य न हो. नो क्या हम चल, मकते हैं ! ५.---अजीवके कितने भेद है और उनमें से कौन सर्वत्र पाया ‘जाता है ? ६-क्या यह जरूरी है कि छहों द्रव्य एक स्थान पर हों ? दोई ऐसा स्थान भी है, जहा केवल एक या दो द्रव्य ही हो । ७.-पंचास्तिकायका नाम बताओ। ८-अन्धेरा, चादनी शन, दूध. भूप, छाया, वायु कौनसे ...अणु और कन्चमें क्या भंद है ? . Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ] बालबोध जन धर्म | पाँचवाँ पाठ | प. रस, गन्ध, स्पी रूप, रस, गंध और स्पर्श ये पुलके गुण है। ये मदा पुलमें ही पाये जाते है । पुलको छोड़कर और किसी व्य नहीं रहते। ये चारो ही सदा साथ साथ रहते है। जैसे प हुए आममें पीला रूप है, मीठा रस है, अच्छी गन्ध है और कोमल स्पर्श है । रूप उसे कहते है, जो नेत्र इन्द्रियसे जाना जाय । वह पांच प्रकारका होता है - कृष्ण (काला), नील (नीला ), रक्त (लाल), पीत (पीला) और श्वेत (सफेद) जैसा - कोयलेमे काला, नीलमें नीला. गेरुमें लाल, सोनेमें पीला और दूधमे सफेद रूप है । रूपका दूसरा नाम रंग है । इन रंगो के मिलानेसे और भी कई तरह के रंग हो जाते है। जैसे नीला और पीला रंग मिलानेसे हरा रंग बन जाता है। रम उसे कहते है, जो रमना (जिह्वा) इन्द्रियसे जाना जाय । रस प्रांच प्रकारका होता है - तिक्त ( तीखा ) अथवा चग, कटु ( कडवा ), कपायला ( कमैला ), अम्ल (खड्डा ) और मधुर ( मीठा ) । जैसे- मिर्च में तीखा, नीममें कडुआ, आंवले में कसैला, नीवृमं खट्टा और गन्ने में मीठा रस होता है । गंध उसे कहते है, जो घ्राण ( नासिका ) इन्द्रिय से जानी जाय । गंध दो प्रकारको होती है- सुगंध (खुशवृ) और Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तोमग भाग। १९ दुर्गध (बदबू) जैसे-गुलावके प्लमें मुगंध और मिट्टीके नेलम दुर्गध होती है। ___ स्पर्श उसे कहते है, जो स्पशन इन्द्रियसे या छनेसे जाना जाय। स्पर्श आठ प्रकारका होता है-निन्ध (चिकना), सस (रूखा), शीत (ठंडा). उष्ण (गम) और लघु (हलका) जैन्ने घीमें स्निग्ध, वाल्मे लक्ष. पानी में गीत. अनिमे उष्ण, मक्सनमे मृदु, पत्थरमें कर्नश, लोहमें गुरु और मटमें लघु म्पर्य रहता है। रूप ५, रस ५. गंध २ और स्पर्श ८ इसप्रकार मत्र मिलकर पुद्गलमें २० गुण होते है । प्रटनावली। १-रूप और स्पर्शमें क्या भेद है? जिस वस्तुमें रस होता ___ है. उसमें म्पर्श होता है या नहीं: २-किसी ऐमी वस्तुका नाम लो, जिसमें रूप. रम, म्पर्य न पाए जावें। ३--रूप और रसके कितने भेट है 2 नीचे लिख हुओंमें कौन कोन गुण हैं ? पत्थर, तावा. अंगूर, लकडी, तिनका, ओला, इत्र. दहीं। ४-वायुमें कैसा स्पर्श है ? धूप, चादनी और अंधेरेमें कैसा रूप है ? जलमें कैसी गंध है ? और वीमें कैसा रस है ? -नीचे लिखे गुण किन किन इन्द्रियोंसे जाने जाते हैं ? मधुर, रूक्ष, पीत, शीत, क्टु और मृदु । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०] बाबोस जैन मम । ६ – किसी ऐसी नीजका नाम लो जिसमें सफेद रूप हो, fare स्पर्श हो, खट्टा रस हो और गंग कुछ दूरी हो । ७ छ. द्रव्योंमें कौन कौन रूपी हैं। छठा पाठ । आठ कर्म । कर्म उन्हें कहते हैं, जो आत्माका असली स्वभाव प्रकट न होने दें। जैसे बहुतमी धूल मिट्टी उड़कर सूरजकी गंशनीको ढक देती है, उसी प्रकार बहुतसे पुल परमाणु ( छोटे २ टुकड़े ) जो इस आकाशमें सब जगह भरे हुए हैं- आत्मामें क्रोध आदि कषाय उत्पन्न होनेसे आत्मा के प्रदेश के साथ मिलकर आत्माका स्वरूप टक देते हैं । कषायके सम्वन्धसे उनमें सुख दुख वगैरह देनेकी शक्ति भी हो जाती है, इसलिए उनको कर्म कहते हैं । कर्म आठ हैं - ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । ज्ञानावरणी कर्म उसे कहते हैं, जो आत्मा के ज्ञान गुणको प्रकट न होने दे। जैसे - एक प्रतिमा पर परदा डाल दिया गया, अब वह परदा प्रतिमाको ढके हुए हैं- प्रकट नहीं होने देता । इसी प्रकार ज्ञानावरणी कर्म ज्ञानको ढक लेता -है, प्रकट नहीं होने देता । जैसे मोहन अपना पाठ खूब Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा भाग। याद करता है. परन्तु उसे याद नहीं होता। हममें मोहन के ज्ञानावरणी कर्मका उदय समझना चाहिये । किमीक पटनेमें विघ्न डालना, किमीकी पृस्तक फाड देना, छुपा देना. किमीको न बताना, अपने गुरु अथवा और किसी विद्वानको निन्दा करना, अपने बानका गर्व करना, विद्या पढनेमें आलस्य करना, अठा उपदेश देना वगैरह कामोंसे ज्ञानावग्णी कम बंधता है अर्थात ज्ञानका प्रकाश नहीं होता. किन्तु इनसे विपरीत करनेसे ज्ञानका प्रकाश होता है। दर्शनावग्णी कर्म उसे कहते है, जो आमाके दर्शन गुणको प्रकट न होने दे । जैसे-एक राजाका पहरेदार पहरंपर बैठा हुआ है, वह किसीको भी अन्दर जाकर राजाके दर्शन नहीं करने देता, मयको बाहरसे ही रोक देता है, इसी प्रकार दर्शनावरणी कर्म किसीको दर्शन नहीं होने देता। जैसे - मोहन मदिरमें दर्शन करने के लिये गया था, परन्तु मन्दिरका ताला लगा पाया । इमसे समझना चाहिये कि मोहनके दर्शनावरणी कर्मका उदय है। किसीके देखनेमे विघ्न करना, स्वयं देखे हुए पदार्थको प्रकट न करना, अपने पासकी वस्तु दूसरोको न दिखाना, अपनी दृष्टिका गर्व करना, दिनमे सोना, दूसरेकी आंखें फोडना, मुनियोको देखकर ग्लानि करना और धर्मात्माको दोष लगाना ऐसे कर्मोंसे दर्शनावरण! कर्म बंधता है और इनके विपरीत | करनेसे आत्माका दर्शन गुण प्रकट होता है। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२] माला जैन म । वेदनीय कम उसे कहते हैं, जो आमाको सुनन दुःरा दे। इस कमके उदयसे समारी जीवनी यी चीजोका मिलाप होता है जिसके कारण वह मुन दान्त माल मा करते हैं। जैसेशहद लपेटी नलवारकी धार बाटने का दावा दोनो होने है । अर्थात शहद मीठा लगता है, इसमें मुम्ब होता , परंतु तलवारकी धाग्म जीभ कट जाती है उसमे दर होता है । हमी प्रकार वेदनीय कम मुग्म दुःर दान देता है। प्रकाशचन्द्रने लड्डू खाया, अन्छा लगा और में कांटा गट गया, दुःख हुआ-दोना ही हालतले वेदनीय कर्मका ही उद्ध समझना चाहिये । जिमसे मुन्द्र होता है. उसे नातावेदनीय कहते है। दुःख करना, गोक करना, पश्चानाप करना, गना; माग्ना, पीटना ऐसे कमासे अमाता (दुःख देनेवाले) वेदनीय कर्मका बंध होता है। मर जीवापर दया करना. व्रत पालना, लोभ नहीं करना, क्षमा धारण करना, दान देना, ऐसे कामोसे साता ( सुख देनेवाले ) वेदनीय कर्मका वध होता है। ___ मोहनीय कम उसे कहते है, जिसके दयसे यह आत्मा अपनेको भूल जाय और अपनेसे जुदी चीजोमें लुभा जाये । जसे-शराब पीनेवाला शगर पीकर अपनेको भूल जाता १-परीक्षाम अथवा और किसमें सफलता न होने पर अथवा किमीत म हार जानपर पछताना । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा पाट ...... [३. है, उसे भले बुरेका कुछ भी ज्ञान नहीं रहता और न यह भाई बहिन स्त्री पुत्रादिको पहचान सकता है। हमी प्रकार मोहनीय कर्म इस जीवको भुला देता है। माहनीय कर्मक उदयसे इस जीवको अपने भले बुरेका कुछ भी नान नहीं रहता और न वह बुरे कामसे डरता है। काम, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि सब मोहनीय कर्मक उदयने होते हैं। सोहनने क्रोधर्म आकर मोहनको मार टाला, रामने लोभम आकर गोविन्दके मालको लूट लिया, इससे समझना चाहिये कि सोहन और गमके मोहनीय कर्मका उदय है । मच देव शास्त्र गुरुको दोष लगानेसे व काम, क्रोध. नान, माया, लोभ, हिंमा वगैरह करनेसे मोहनीय कर्म बधता है। आयु कर्म उसे कहते है, जो आमाको नरक, तिथंच मनुष्य और देव शरीरोमेंसे किसी एकमें रोक रक्खे । इस कर्मके कारण जीव इस संसारमें नानाप्रकार की योनियोमें भ्रमण करता हुआ काल व्यतीत करता है। जैसे-एक मनुष्यका पेर काठमें ( खाटेमे ) फँसा हुआ है। अब वह काठ उस मनुष्यको उस स्थान पर रोके हुए है। जबतक उसका पैर काठमें फंसा रहेगा, तबतक मनुष्य दूसरी जगह नहीं जा सकता । इसी प्रकार आयु कम इस जीवको मनुष्य आदिके शरीरमें रोके हुए है । जब तक वह आयु कर्म रहेगा, तब तक यह जीव उमी शरीरमें रहेगा। हमारा । इस मनुष्य-शरीरमे रुका हुआ है, इसलिये समझना चा. Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४] बालबोध जैन मर्म । हमारे मनुष्य आयु कर्मका उदय है और घोड़का जीव तिर्गत्र शरीरमे रुका हुआ है, उसके तिर्यञ्च आयु कर्मका उदय है। __बहुत हिंसा करनेसे, बहुत आरंभ और परिग्रह रखनेसे नरक आयु बंधती है, अर्थात ऐसा करनेसे यह जीव नरकमें जाता है। छल कपट कग्नेसे तिर्यञ्च होता है। थोडा आरंभ और थोडा परिग्रह रखने से मनुष्य होता है। व्रत उपवास करनेसे, शांति-पूर्वक भूख, प्यास, गर्मा, और सर्दीकी बाधा सहन करनेसे देव होता है। ___ नाम कर्म उसे कहते है, जो आत्माको अनेक प्रकार परिणमावे, अर्थात जिसके उदय होनेसे तरह तरहका शरीर और उसके अंगोपांग बने जैसे चित्रकार (चितेग ) अनेक प्रकारके चित्र बनाता है । कोई मनुष्यका, काई हाथीका, कोई स्त्रीका, कोई बैलका, किसीका हाथ लम्बा, किसीका छोटा, कोई कुबडा, कोई बोना । इसी प्रकार नाम कर्म इस जीवको कभी सुन्दर, कभी चपटी नाकवाला, कभी लम्बे दांतवाला, कभी कुबडा. कभी बौना, कभी काला, कभी गोरा, कभी सुरीली आवाजबाला, कभी मोटी आवाजवाला अनेक रूपसे परिणमाता है। हमारा शरीर और आंख नाक कान वगैरह सब नाम कर्म के उदसे बने है। घमण्ड करना, आपसमें लड़ना, झुठे देवोंको पूजना, , चुगली खाना, किसीकी नकल करना, किसीका बुरा Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा भाग २५ सोचना वगैरह कामोसे अशुभ नामकर्म चंधता है। आपसमें मिलकर रहना, धर्मात्माको देखकर खुश होना, न कभी किसीफा युग मोचना, न युग करना, मन वचन कायको मरल रखना, ऐसे कर्मासे शुभ नामकर्म बंधना है। गोत्र कर्म उसे कहते हैं, जो हम जीयको ऊंचे अथवा नीचे कुलमें पेदा करे। जैसे कुम्हार छोटे बरे मब तरहके वर्तन बनाता है, उसी प्रकार गोत्र कर्म हम जीवको ऊचा अधा नीचा बना देना है। उच्च गोत्रके उदयसे अच्छे चास्त्रियाले लोकमान्य कुलमें पैदा होता है और नीच गोत्रके उदय होनेमे खोटे आचरणशले लोकनिंद्य कुलमें पेढा होता है, जहां हिमा, झठ, चोरी वगैरह बुरे कर्म करता है। दृमरेकी निन्दा और अपनी प्रशंसा करनेसे, देव गुरु शास्त्रका अविनय करनेसे, अपनी, जाति, कुल, रूप, विद्याका घमण्ड करनेसे नीच गोत्र बंधता है। दृमरोंकी प्रशंसा करने, स्वयं विनीत भावसे रहने और अहंकार नहीं करनेसे नीच गोत्र संधता है । __अन्तराय कर्म उसे कहते हैं, जिसके उदयसे किसी कार्यमें विघ्न आजाय अथश जो किसी कार्यमें विघ्न डाले । जैसे किसी महाराजने किमी विद्यार्थीके लिये १००) रु० देनेकी आज्ञा दी, परन्तु खजांची सादबने कुछ गडबड करके अथवा कुछ वहाना बना करके वह रुपया नही दिया। अर्थात् विद्यार्थीके सौ रुपये मिलनेसे खजांची साहन्न विवरूप होगए । इसी प्रकार Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ] बालबोध जैन धर्म । अन्तराय कर्म कार्यों में विघ्न किया करता है। मोहन रोटी खा रहा था, अकस्मात बन्दर आकर हाथसे गेटी छीन ले गया, तो मोहनके अन्तराय कमका उदय समझना चाहिये। किमीको लाभ होता हो उसे न होने देना. बालकोंको विद्या न पढाना, अपने आधीन नौकर चाकरको धर्म सेवन न करने देना, दान देते हुएको रोक देना, दृसरेकी भोगने योग्य वस्तुओंको बिगाड देना, ऐसे कामोसे अन्तराय कर्म बंधता है। प्रश्नावली। १-हमको मनुष्य किसने किया और तुम्हार मुंह, नाक, कान किसने बनाये ? २-कर्म किसे कहते है? इनमे फल देनेकी शक्ति कैसे पैदा हो जाती है ? ३–सबसे बुरा कर्म कौनमा है ? और तुम्हारे इस समय कौन कौन कर्मों का आवरण है ? ४-असातावेदनीय, ज्ञानावरणी और गोत्र कर्मके बन्धके कौन कौन कारण हैं ? ५-सातावेदमीय, दर्शनावरणीय और मोहनीय कर्म क्या क्या काम करते हैं ? ६-बताओ इनके किस कर्मका उदय है ? (क ) यद्यपि गोपाल धर्मका स्वरूप सच कहता है, तथापि लोग उसकी निन्दा करते हैं। (ख) राम सुबहसे लेकर शाम तक पाठ याद करता है, परन्तु उसे याद नहीं होता। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Mulaal तोमरा भाग । (ग) मोहन सदा रोगी और दुखी रहना है (घ) शंकर एक एक पैसेके लिये ज्ञान देता है । (ङ) कुन्दनको आम स्वानेका है। शो छ (च) मोहन दिनभर सोता रहता है । (छ) अर्जुन चार सालसे स्वागत है। ७. - बताओ इनके किस किमस्माकम--- (क) रामने अपने लहकेको पारिश पाटशालाको नष्ट भ्रष्ट कर दिया । (ख) मोहन वहा मानी है. उसने एक भावना परिया वडा अनादर किया । (ग) एक विद्यार्थीने परीक्षा में पास न होनेपर ट किया और परीक्षकको बुरे शब्द कहे। (घ) उसने एक धर्मात्माकी बुगई की और एक आद मीके सिरमें लाठी मारी ! ड ) रामने गोविंदकी आंख फोड दी और उसकी पुस्तक फाड दी । 2 (च) एक व्यभिचारीने मदिरा पीकर सब लोगोंको गालियां दीं। ८ - बताओ निम्नलिखित वाक्योंमें क्या अशुद्धि ( क ) मोहनने तमाम उमर विद्या प्राप्त करने में खर्च की, इसलिये मरते समय उसके ज्ञानादरणी कर्मका क्षय होगया । (ख) सोहन सातावेदनीयके उदयसे नाच रंग तमाशेमें लगा हुआ है । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८] बालबोध जैन धर्म । (ग) गोविन्द्र के अन्तगय कर्मका उदय है, इस कारण जन्ममे अन्धा है। (घ) बगीने एक कमाईको जीव वध करने के लिये एक तलवार ढी तो उसके ज्ञानावग्णी फर्मका बंध हुआ। (ट) राममूर्तिका शारीर मा सुन्दर और सुटौल उच्च गोत्र कर्मके उदयसे हुआ है। सातवाँ पाठ। सचे देव, शास्त्र, गुरू। सच्चा देव । सच्चा देव उसे कहते है, जो वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी हो। वीतगगी उसे कहते है, जो क्षुधा (भूख ), तृपा, निद्रा, जन्म, मरण, बुढ़ापा, रोग, गर्व, भय, राग, द्वेष, मोह, चिन्ता, रति, अरति खेद, स्वंद ( पसीना) और आश्चर्य इन अठारह दोपोसे रहित हो, अर्थात् जिसमें ये १८ दोप न हो. जो न किसीसे राग करता हो न किमीसे द्वेष रखता हो, सबको सम (बराबर ) देखता हो। ____ सर्वज्ञ उसे कहते हैं जो मंमारके मव पदार्थोंको सब दशाओमें देखे और जाने । अर्थात् संमाग्में ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं है जिसे सर्वज्ञ न जानता हो । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीमरा भाग। जो कुछ पहले दो गया, जो अब हो रहा है और जो कुछ आगे होगा, वह सब सर्वज्ञको मालूम होता है । हितोपदेशी उसे कहते हैं, जो सव जीवाके कल्याण करनेवाला उपदेश दे। जिस देवमें ये तीन गुण पाए जायँ, जो बीतगगी, गर्वन और हितोपदेशी दो-वही मचा देव है । उसको अरहंत, जिनेन्द्र, तीर्थंकर परमेष्ठी आदि अनेक नामासे पुकारते है । ससा शास्त्र । सच्चा शास्त्र उसे कहते हैं, जो मच्चे देवका कहा हुआ हो, कोई भी जिसका खंडन न कर सके, जिसमें किसी तरहका विरोध न हो, जिसमें सच्ची बातोंका उपदेश भरा हो, जिसके पढने, पढ़ाने, सुनने, सुनानेसे जीवों का कल्याण हो, और जो खोटे मार्गका नाश करनेवाला हो, डमको आगम, सरस्वती, जिनवाणी भी कहते हैं। सच्चा गुरु । सच्चा गुरु उसे कहते हैं, जो पांचों इन्द्रियोंके विषयोमेंसे किसी भी विषयकी लालसा न रखता हो, जो त्रस जीवो तथा स्थावर जीवोंकी हिंसासे दूर रहता हो, जिसके पास किसी प्रकारका भी आरम्भ व परिग्रह न हो और जो मदा पढने, पढ़ाने, अपनी आत्माका चितवन करने तथा ध्यानमें लीन रहता हो । ऐसे गुरुको ही साधु, मुनि, यति, तपस्वी आदि कहते हैं। . Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालबोध जैन धम। प्रश्नावली । १-एक देवके पास एक गाम और एक स्त्री है, एक शाम्पमें जीवहिमाका उपदेश है और उसमे एक स्थानपर एक बातको अच्छा कहा है और दूसरे स्थानपर उसी शतको बुग कहा है । एक गुरुके पास मवारी के लिये घोडा है और वह जहा जाता हे लोगोंसे पर पुजवाता है, और मेंट लेका भोजन करता है। बताओ ये तीनों मञ्च देव, गाक, गुरु हैं या नहीं ? यदि नहीं तो क्यों ? २-संच देवके लिये किन किन बातोंकी जरूरत है,? जिम देवमें सत्रह दोष तो हैं नहीं, परन्तु एक दोष है, तो बताओ यह सच्चा है या नहीं? मर्वज्ञ किसे कहते हैं ? सर्वजका कटा हुआ शास्त्र ही क्यों सञ्चा शाल है ? यह पुस्तक शास्त्र है या नहीं। ३-बीतरागी और हितोपदेशीमे क्या भेद है ? वीतरागी हितोपदेशी कैसे हो सकता है । ४-सच्चे गुरुका म्वरूप कहो । पाठशालाओमे नीति, शास्त्र, गणित, व्याकरण गहानवाले अध्यापक सच्चे गुरु है या नहीं ? आठवाँ पाठ। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र । सम्यग्दर्शन । सच्चे देव, सच्चे गुरु, सच्चे शास्त्र तथा दयामयी धर्मका सच्चे दिलसे श्रद्धान ( यकीन ) करना, इसका नाम सम्यग्दर्शन है। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीमरा भाग १ सम्यग्दर्शन धर्मरूपी पेड़की जड है अथवा धर्मरूपी घरको नींव है। सबसे पहले इसे धारण करना चाहिये। इसके बिना सब धर्म कर्म निष्फल हैं। उनसे कुछ अधिक लाभ नहीं होना है। सम्यग्दर्शनकी बड़ी महिमा है। जिन जीवको सम्यग्दर्शन होगया है वह मरकर उत्तम देव या मनुष्य ही होता है. खियाम पदा नहीं होता, नरक भी जाय तो पहले नकसे नीचे नहीं जाता। मम्यान पदार्थके स्वरूपको ठीक जमाका नैमा जानना और उनमें किसी प्रकारका सन्देह या संशय नहीं करना, इसका नाम सम्यग्ज्ञान है। सम्यग्दर्शनके होनेसे पहले जो ज्ञान होता है उसे कुज्ञान कहते हैं। वही ज्ञान सम्यग्दशन होनेपर सम्यग्ज्ञान कहलाता है। सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञानका कारण है। विना सच्ची श्रद्धाके सम्यग्ज्ञान नहीं हो सकता। ____ सम्यग्ज्ञानसे ही आत्मज्ञान और केवलज्ञान होता है । इसलिये सम्यग्ज्ञानको शास्त्र स्वा-याय, पड़ने पढ़ाने, सुनने सुनाने, तथा बारबार विचारनेसे प्राप्त करना चाहिये । ____ ज्ञानकी बडी महिमा है। ज्ञान होनेसे थोड़ीसी जिंदगीमें भव भक्के पाप कटते हैं जो अज्ञानी जीव है उनके करोड़ों जन्मकी मेहनतसे भी नहीं कटते। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HEnanananal salt Diam IE Rial MM RAPIFICale विद्यार्थियोंके लिये अत्यंत उपयोगी पुस्तकें । -elinasaniliancanluscana aalocalincandalancannascalia Mandalnicalnimarcane hunchlinical insanilunselinescal tes यालबोध जैन धर्म पहला भाग " , दूमग भाग " , तासग भाग " चौथा भाग श्री जिनवाणी गुटिका (जिनेन्द्र गुण गायन) रत्नकरंड श्रावकाचार सान्वयार्थ मोक्षशास्त्र सचित्र द्रव्य-संग्रह छहढाला छहढाला--दौलतराम कृत। मोक्षशास्त्र अर्थात् तत्वार्थसूत्र जिनेन्द्र पञ्चकल्याणक-पांची कल्याणक है दर्शन पाठ ) अहिंसा धर्म प्रकाश ॥) जैन सिद्धान्त प्रवेशिका =) दर्शन कथा शीलकथा =) दान कथा पता-बाबू रूपचन्द्र गोयलीय, श्री दयासुधाकर कार्यालय, गढ़ी अब्दुल्लाखाँ (सहारनपुर) । ". ire . . . nam e . . . . सब प्रकारके दिगम्बर जैन ग्रन्थ मिलनेका सुप्रसिद्ध पता दिगम्बर जैन पुस्तकालय-~-सूरत । FacाणाधारणIRPsgUgeणा Meresrespea Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 श्रीपरमात्मने नमः । बालबोध-जैनधर्म चौथा भाग । लेखक स्व० बाबू दयाचन्द्र जैन वी० ए० और धर्मरत्न पं० काळाराम शास्त्री । 20 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्रीवीतरागाय नमः । * बालबोध-जैनधर्म चौथा भाग। प्रकाशकमदनलाल मोहनलाल बाकलीवाल, मालिक, जैन-ग्रन्थ-रत्नाकर कार्यालय, हीराबाग वम्बई नं० ४. ___ जुलाई, सन् १९४५ तेरहवीं आवृत्ति ] * मूल्य सात आने मुद्रक-रघुनाथ दिपाजी देसाई, न्यू भारत प्रिंटिंग प्रेस, ६ केलेवाडी, गिरगाँव, बम्बई ४. १ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन ( दूसरी आवृत्तिका ) बालबोध जैनधर्म नामक पुस्तकमालाका चौथा भाग पहले एक बार प्रकाशित हो चुका है। अब पुनः यह भाग सगोषित करके प्रकाशित किया जाता है। इस भागमें 'देवशास्तगुरुपूजा'. पचपरमेष्ठीके मूलगुण' आदि ११ पाठ हैं, जिनको प्रथम तीन भागोंके अनुसार पढना योग्य है। हमने इस पुस्तकमालाके चारों भागोंमे अत्यन्त सरलताके साथ थोड़े शब्दोंमें जैनधर्मकी कुछ मुख्य मुख्य बातोंका वर्णन किया है। जिनको पढकर जैनधर्मका साधारण ज्ञान हो सकता है और रत्नकरण्डश्रावकाचार, द्रव्यसंग्रह, तत्त्वार्थसूत्र आदि आचार्यों द्वारा प्रणीत शास्त्रोंमें बालक तथा बालिकाओंका अति सुगमतासे प्रवेश हो सकता है और उनके विषयको वे अच्छी तरह समझ सकते हैं । हमने यथासम्भव इसके सम्पादन तथा सशोधनमें सावधानी रक्खी है, पहली आवृत्तिमें भाषा कुछ कठिन हो गई थी, उसे भी अबकी बार जहॉतक हो सका सरल करदी है और भी उचित परिवर्तन कर दिये हैं। यदि कहींपर कोई अशुद्धी रह गई हो, तो उसे अव्यापकगण कृपा करके विद्यार्थियोंकी पुस्तकोंमें ठीक करा देवे और हमें भी सूचना देवें कि जिससे अगली आवृत्तिमें अशुद्धियाँ ठीक हो जायें। लखनऊ ) आपका सेवक दयाचन्द्र गोयलीय बी० ए० ता० ५-३-१५ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FAS नमः सिद्धेभ्यः। बालबोध-जैनधर्म। चौथा भाग। पहला पाठ। देवशास्त्रगुरुपूजा। ॐ जय जय जय । नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु । गाथा । णयो अरहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरीयाणं । णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं ॥१॥ ॐ अनादिसूलमन्त्रेभ्यो नमः। (यहाँ पुष्पाञ्जलि क्षेपण करना चाहिए ) चत्तारि मंगलं-अरइंतमंगलं, सिद्धमंगलं, साहूमंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं । चत्तारि लोगुत्तमा-अरहंतलोगुत्तमा, सिद्धलोगुत्तमा, साहूलोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा । चत्तारि सरणं पव्वज्जामि-अरहंतसरणं पञ्चज्जामि, सिद्धसरणं पन्वज्जामि, साहूसरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि ॥ नोट-पूजन करनेसे पहले स्नान करके शुद्ध वस्त्र पहिनकर तीसरे भागमसे एक अथवा दोनों मंगल पढते हुए भगवानका न्हवन ( अभिषेक) करना चाहिए । पूजाके लिए सामग्री शुद्ध होनी चाहिए। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) ॐ नमोऽर्हते स्वाहा । ( यहाँ पुष्पाञ्जलि क्षेपण करना चाहिए ) ____अडिल्ल छन्द। प्रथमदेव अरहंत, सुश्रुतसिद्धांत जू । गुरुनिरेग्रन्थमहंत मुकतिपुरपंथे जू ।। तीन रतन जगमांहि, सु ये भवि ध्याइये । तिनकी भक्तिप्रसाद, परमपद पाइये ॥ १॥ दोहा। पूजों पद अरहंतके, पूजों गुरुपद सार । पूजो देवी सरस्वती, नितँप्रति अष्टप्रकार ॥२॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुसमूह । अत्र अवतर अवतर । सवौषट् । ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुसमूह । अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठः ठः । ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुसमूह । अत्र मम सन्निहितो भव भव । वषट् । गीताछन्द। सुरपति उर्रगनरनाथ तिनकर, वन्दनीक सुपदप्रभा । अति शोभनीक सुवरण उज्जल, देख छवि मोहत सभा ॥ __वर नीर छीरसमुद्र घर्ट भरि, अंग्र तमु बहुविधि नचूँ । __ अरहंत श्रुत सिद्धांत गुरु, निरग्रंथ नित पूजा रचूँ ॥१॥ दोहा। मलिनवस्तु हर लेत सब, जलस्वभाव-मल-छीन । जासों पूजो परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥ १ ॥ ॐ हीं देवशास्त्रगुरुभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल नि० स्वा० । १ परिग्रह रहित । २ मोक्षनगरीका रास्ता। ३ सदा-हररोज | ४ आठ तरह .५ इन्द्र । धरणेन्द्र । ७ उत्तम । ८ क्षीरसागरका । ९ घड़ा । १० आगे। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जे त्रिजगउदरमझार पानी, तपत अति दुद्धर खरे । __ तिन अहितहरन सुवचन जिनके, परमशीतलता भरे ॥ तसु भ्रमरलोभित घ्राणे पावने, सरस चन्दन घसि सचूँ । अरहंत श्रुत सिद्धांत गुरु, निरग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥२॥ दोहा। चन्दन शीतलता करै, तपत वस्तु परवीन । जासों पूजों परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥२॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः ससारतापविनाशनाय चदन नि० स्वा० । यह भवसमद्र अपार तारण-, के निमित्त सुविधि ठही । अति दृढ परमपावन जथारथ, भक्ति वर नौका सही ।। उज्जल अखंडित सालि तंदुल-पुंज धरि त्रयगुण ज→ । अरहंत श्रुत सिद्धांत गुरु, निरग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥३॥ दोहा । तंदुल सालि सुगंध अति, परम अखंडित वीन । जासों पूजो परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥ ४॥ ॐ हीं देवशास्त्रगुरुभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि० स्वाहा । जे विनयवंत सुभव्य-उर-अंबुज-प्रकाशन भान हैं । जे एक मुखचारित्र भाषत, त्रिजगमांहि प्रधान हैं। लहि कुंदकमलादिक पहुँप, भव भव कुवेदनसों बचूँ । अरहंत श्रुत सिद्धांत गुरु, निरग्रन्थ नित पूजा रचूं ॥४॥ १ तीनों लोकमें। २ कठिन । ३ दुःखको हरनेवाले, हित करनेवाले ४ सुगन्ध । ५ प्रासुक । ६ श्रेष्ठ । ७ चावल । ८ हृदयकमल । ९ सूर्य १० पुष्प | ११ बुरे दुःख । - - - - - Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोहा । विविध भांति परिमल मुमन, भ्रमर जास आधीन । जासों पूजों परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥४॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः कामवाण विवमनाय पुष्प नि० स्वाहा। अति सवल मद कंदर्प जाको, क्षुधौ-उरंग अमान है। दुस्सह भयानक तास नाशन,को सुगरुड़ समान है। उत्तम छहों रसयुक्त नित, नैवेद्य वर घृतमे पंचें । अरहंत श्रुत सिद्धांत गुरु, निरग्रन्थ नित पूजा रचें ॥५॥ दोहा। नानाविध संयुक्तरस, व्यंजन सरस नवीन । जासो पूजो परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥ ५ ॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य नि० त्वाहा । . जे त्रिजग उद्यम नाश कीने, मोहतिमिरं महाबली । तिहिं कर्मघातक ज्ञानदीप, प्रकाश जोतिप्रभावली ॥ इह भांति दीप प्रजाल कंचन, के सुभाजनमे खंछु । अरहंत श्रुत सिद्धांत गुरु, निरग्रंथ नित पूजा रच ।। ६॥ दोहा। स्वपरप्रकाशक जोति अति, दीपक तमरि हीन । जासो पूजो परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥ ६ ॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीप नि० स्वाहा । जो कर्म-इंधन दहन, अग्निसमूहसम उद्धत लसै। . वर धृप तास सुगंधि ताकरि, सकल परिमलता हँसै । १ सुगन्ध । २ पुष्प । ३ क्षुधारूपी। ४ सर्प । ५ प्रमाण रहित । ६ पकवान बनाकर । ७ धीमें पकाऊँ । ८ स्वादिष्ट । ९ मोहरूपी अन्धरा । १० सजाकर ११ अन्धरा। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इह भाँति धूप चढ़ायनित, भव-ज्वलनमांहि नहीं पचूँ । अरहंत श्रुत सिद्धांत गुरु, निरग्रंथ नित पूजा रचूँ ॥७॥ दोहा। अग्निमाहिं परिमल दहन, चन्दनादि गुणलीन । “जासो पूजों परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥७॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो अष्टकर्मविध्वसनाय धूप नि० स्वाहा । लोचन सुरसना घ्राण उर, उत्साहके करतार हैं। . मोपै न उपमा जाय वरनी, सकल फल गुणसार हैं। सो फल चदावत अर्थपूरन, सकल अमृतरस सचू । अरहंत श्रुत सिद्धांत गुरु, निरग्रंथ नित पूजा रचूँ ॥८॥ दोहा। जे प्रधान फल फलवि, पंचकरणरसलीन । जासो पूजों परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥९॥ ॐ हीं देवशास्त्रगुरुभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फल नि० स्वाहा । जल परम उज्जल गंध अक्षत पुष्प चरु दीपक धरूँ। वर धूप निर्मल फल विविध, बहु जनमके पातक हरूँ। इह भाँति अर्घ चढ़ाय नित, भव करत शिवपंकति मंचू । अरहंत श्रुत सिद्धांत गुरु, निरग्रंथ नित पूजा रचूँ ॥१७॥ दोहा। वसविधि अर्घ संजोयकै, अति उछाह मन कीन । जासों पूजों परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥९॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि० स्वाहा । १ नेत्र । २ पाँचों इद्रियाँ। ३ चावल । ४ नैवेद्य । ५ पाप | ६ रचूँ । ७ उत्साह । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) जयमाला देव शास्त्र गुरु रतन शुभ, तीन रतन करतार । भिन्न भिन्न कहुँ आरती, अल्प सुगुणविस्तार ॥ १ ॥ __पद्धड़ि छन्द । चउकर्मकी त्रेसठ प्रकृति नाशि, जीते अष्टादश-दोपरोशि । परम सुगुण हैं अनंत धीर, कहवतके छयालिस गुण गंभीर २॥ शुभ समवशरण शोभा अपार, शतइन्द्र नमत करें श धार । देवाधिदेव अरहंत देव, वन्दो मनवचतनकरि सेव ॥३॥ जिनकी धुनि के ओकाररूप, निरअक्षरमय महिमा (नूप । दशअष्ट महाभाषा समेत, लघुभाषा सातशतक सुचेत ४ ॥ सो स्यादवादमय सप्तभंग, गणधर गूंथे बारह सुअङ्ग । वि शशि न हरै सो तम हराय, सो शास्त्र नमों बहु प्रीति याय ॥ ५॥ गुरु आचारज उवझाय साध, तन नगन तनत्रय निधि अगाध । संसार देह वैराग्यधार, निरवांछि पै शिवपदनिहार ॥६॥ गुण छत्तिस पचिस आठवीस, नवतारंनतरन जिहाज ईस । गुरुकी महिमा वरनी न जाय, गुरुनाम जपों मन वचन काय ॥७॥ सोरठा। कीजे शक्तिप्रमान, शक्तिबिना सरधा धरै। 'द्यानत' श्रद्धावान, अजर अमरपद भोगवै ॥८॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो महार्घ्य निर्वामीति स्वाहा ॥ १ अठारह । २ समूह । ३ एक सौ। ४ हाथ । ५ सात सौ। ६ सूर्य । ७ चन्द्र। ८ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र । ९ संसारसे तरने और तारनेवाला । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) शान्तिपाठ ।* रूप चौपाई (१६ मात्रा) शांतिनाथमुख शशिउनहारि, सीलगुणव्रतसंजमधारी । लखन एकसौआठ विराजै.निरखत नयन कमलदले लाजै॥१॥ पंचमचक्रवर्तिपदधारी, सोलम तीर्थंकर सुखकारी । इन्द्रनरेन्द्रपूज्य जिननायक, नमो शांतिहित शांतिविधायक ॥२॥ दिव्य॑विटपपहुपनकी वरसा, दुंदुभि आसन वाणी सरसा । छत्र चमर भामंडल भारी, ये तु प्रातिहार्य मनहारी ॥ ३ ॥ शांति जिनेस शांतिसुखदाई, जगतपूज्य पूजो सिर नाई। परमशांति दीजै हम सबको, पढ़ें जिन्हे पुनि चार संघको ॥४॥ वसन्ततिलका। पूजें जिन्हे मुकुट हार किरीट लाके, इन्द्रादिदेव, अरु पूज्य पदार्ज जाके । सो शांतिनाथ वरवंशजगत्पदी, मेरे लिये करहिं शांति सदा अनूप ॥५॥ इन्द्रवज्रा। संपूजकोंको प्रतिपालकोंको, यतीनको औ यतिनायकोंको । राजा प्रजा राष्ट्र सुदेशको ले, कीजे सुखीहे जिन शांतिको __ * शातिपाठ बोलते समय दोनों हाथोंसे पुष्पवृष्टि करते जाना चाहिये। १ चन्द्रमाके समान । २ लक्षण । ३ कमलके पत्ते । ४ अशोकादि कल्पवृक्षके । ५ पुष्पोंकी। ६ दिव्य बनि । ७ तुम्हारे। ८ मृकुट । ९ चरणासविंद । १० जगतको प्रकाशित करनेवाले । ११ साधुओंको । १२ देश। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्दाक्रान्ता। होवै सारी प्रजाको, सुख बलयुत हो, धर्मधारी नरेशो । होवै वर्षा समैप, तिलभर न रहै, व्याधियोका अंदेशा ॥ होवै चोरी न जारी, सुसमय वरते, हो न दुष्काल भारी ॥ सारे ही देश धारे, जिनवरवृपंको, जो सदा सौख्यकारी ॥७॥ दोहा। घौतिकर्म जिन नाशकर, पायो केवलराज । शांति करें ते जगतमें, वृपभादिक जिनराज ॥ ८॥ मन्दाक्रान्ता। शास्त्रोंका हो पठन सुखदा, लाभ सत्संगतीका। सवृत्तोका सुजसं कहके दोप ढां. सभीका ।। वोलू प्यारे वचन हितके, आपका रूप ध्याऊं। तौलो सेऊं चरन जिनके, मोक्ष जोलौं न पाऊं ॥९॥ आयो। तवपद मेरे हियमें, मम हिय तेरे पुनीत चरणामे । तवलौं लीन रहे प्रभु, जवलौं प्राप्ती न मुक्तिपदकी हो ॥१०॥ अक्षर पद मात्रासे, दूपित जो कछु कहा गया मुझसे । क्षमा करो प्रभु सो सब, करुणाकरि पुनि छुड़ाहु भवदुखसे११ जगवन्धु जिनेश्वर, पाऊं तव चरणशरण बलिहारी । मरणसमाधि सुदुर्लभ, कर्मीका क्षय सुवोध सुखकारी॥१२॥ (परिपुप्पांजलिं क्षिपेत् ) १ राजा। २ धर्मका। ३ ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय अन्तराय । ४ केवलजान । ५ समीचीन व्रतधारियोंके । ६ गुण ! ७ तेरे चरण । ८ मेरा । ९ फिर। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९) विसर्जनपाठ। दोहा। विन जाने वा जानके, रही टूट जो कोय । तुम प्रसादतें परमगुरू, सो सब पूरन होय ॥ १॥ पूजन विधि जानें नहीं, नहिं जानें आव्हान । और विसर्जन हू नहीं, क्षमा करो भगवान ॥२॥ मंत्रहीन धनहीन हूँ, क्रियाहीन जिनदेव । क्षमा करहु राखहु मुझे, देव चरणका सेव ॥३॥ आये जो जो देवगण, पूजे भक्तिप्रमान । ते अब जावहु कृपाकर, अपने अपने थान ।। ४ ॥ प्रश्नावली। १-पूजनसे क्या समझते हो-और पूजनके लिए किन किन चीजोंकी जरूरत है । पूजनके अष्टद्रव्योंके नाम बताओ? २-पूजनके पीछे शातिपाठ क्यों पढा जाता है और पूजनके पहले आव्हान क्यों किया जाता है ? ३-अर्ध किसे कहते हैं और अर्घ कब चढाया जाता है ? ४-अष्टद्रव्य जो चढाये जाते हैं, वे किसी क्रमसे चढाये जाते हैं या जिसे चाहें उसे पहले चढा देते हैं ? ५-पूजा खड़े होकर करना चाहिये या बैठकर पूजा करने वालोंको सबसे पहले और सबसे अन्तमें क्या करना चाहिए ? ६-अष्टद्रव्योंके चढानेके पश्चात् जो जयमाला पढी जाती है उसमें किस वातका वर्णन होता है ? ७-अक्षत और फल चढानेके छद पढो और यह बताओ कि छद पढनेके पश्चात् क्या कहकर द्रव्य चढाना चाहिए ? Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) दूसरा पाठ | पंचपरमेष्ठी के मूलगुण । परमेष्ठी उसे कहते हैं, जो परमपदमें स्थित हो । ये पॉच होते हैं: - १ अरहंत, २ सिद्ध, ३ आचार्य, ४ उपाध्याय और ५ सर्वसाधु | अरहंत उन्हे कहते हैं, जिनके ज्ञानवरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय ये चार घातियाकर्म नाश हो गए हो । और जिनमें निम्ननिखित ४६ गुण हो और १८ टोप न हो । दोहा | चवतीसो अतिशयं सहित, प्रातिहार्य पुनि आठ । अनंत चतुष्टय गुण सहित, छीयालीलो पाठ ॥ अर्थात् ३४ अतिशय, ८ प्रातिहार्य, और ४ अनंतचतुष्टय ये ४६ गुण हैं । ३४ अतिशयोमे से १० अतिशय जन्मके होते हैं, १९ केवलज्ञानके हैं और १४ देवकृत होते हैं । जन्मके दश अतिशय । r अतिशय रूप सुगंध तन, नाहि पैसेव निहार । प्रियहितवचन अतुल्यवर्ले, रुधिर श्वेत आकार || लच्छन सहसरु आठ तन, समचतुष्क संठाने । वज्रवृपभनाराचजुत, ये जनमत दश जान || १ अत्यन्त सुन्दर शरीर, २ अति सुगन्धमय शरीर, ३ १ अद्भुत बात, ऐसी अनोखी बात जो साधारण मनुष्यों में न पाई जावे । २ अनत । ३ पसीना । ४ जिसकी कोई तुलना न हो । ५ सुडौल 1 सुन्दर आकार | 144 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) पसेव रहित शरीर, अर्थात् ऐसा शरीर जिसमे पसीना न आवे, ४ मल मूत्र रहित शरीर, ५ हितमितप्रियवचन बोलना, ६ अतुल्यबल, ७ दूधके समान सफेद खून, ८ शरीरमें एक हजार आठ लक्षण, ९ समचतुरस्र संस्थान और १० वज्रवृषभ नाराच संहनन, ये दश अतिशय अरहंत भगवानके जन्मसे ही होते हैं । अर्थात् अरहंत भगवानका शरीर जन्मसे ही बड़ा सुन्दर सुडौल होता है । उसमेंसे बड़ी अच्छी सुगंध आती है और उसमे न पसीना आता है, न मल मूत्र होता है । उनके शरीरमें अतुल्य बल होता है और उनका रक्त सफेद दूधके समान होता है । वे सबसे मीठे वचन बोलते हैं । उनके शरीरके हाड़ वगैरह वज्रके होते हैं और उनके शरीरमें १००८ लक्षण होते हैं। केवलज्ञानके दश अतिशय । योजन शत इकमे सुभिख, गगन-गमन मुख चार । नहिं अदया उपसर्ग नहिं, नाही कवलौहार ॥ सबविद्या-ईश्वरपनो, नाहिं वर्दै नख केश । अनिमिष दृग छायारहित, दशकेवलके वेश ॥ १ एकसौ योजनमें सुभिक्षता, अर्थात् जिस स्थानमे भगवान हों उससे चारो तरफ सौ सौ योजनमे सुकाल होना, २ आकाशमे गमन, ३ चारों ओर मुखोका दीखना, ४ अदयाका अभाव, ५ उपसर्गका न होना, ६ कवलाहार (ग्रासवाला) आहार न लेना, ७ समस्त विद्याओका स्वामीपना, ८ नख के. १ हाड़ वेष्टन और कीलोंका वज्रमय होना । २ आकाश । ३ ग्रासाहार । ४ बाल। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) शोंका न बढ़ना, ९ नेत्रोकी पलकें न झपकना, १० और शरीरकी छाया न पड़ना । जब अरहंतभगवानको केवलज्ञान हो जाता है, तो उस समयसे जहाँ भगवान होते हैं, उस स्थानसे चारो तरफ सौ सौ योजन तक मुकाल रहता है । पृथिवीसे ऊपर उनका गमन होता है, देखनेवालोको चारो तरफ उनका मुँह दिखलाई देता है। उनपर कोई उपसर्ग नहीं कर सकता और उनके शरीरसे किसी भी जीवकी हिंसा नहीं होती । न आहार लेते हैं, न उनकी पलके झपकती हैं, न उनके बाल और नाखून बढ़ते हैं, और न शरीरकी परछाँई पड़ती है, वे समस्त विद्या और शास्त्रोके ज्ञाता हो जाते हैं । ये दश अतिशय केवलज्ञान होनेके समय प्रकट होते हैं । देवकृत चौदह अतिशय । देवरचित हैं चारदश, अर्द्धमागधी भाप । आपसमाही मित्रता, निर्मलदिर्श आकाश ॥ होत फूल फल ऋतु सगै, पृथिवी काचसमान । चरण कमल तल कमल है, नर्भते जय जय वान ॥ मन्द सुगंध वयारि पुनि, गंधोदककी वृष्टि । भूमिविषे कण्टक नहीं, हर्षमयी सब सृष्टि । धर्मचक्र आगे रहे, पुनि वसु मंगल सार । अतिशय श्रीअरहंतके, ये चौंतीस प्रकार ॥ १ भगवानकी अर्द्धमागधी भापाका होना, २ समस्त १ भाषा । २ दिशा । ३ काच, दर्पण । ४ आकाशसे । ५ वाणी । ६ हवा। ७ काँटे, कङ्कर । ८ आठ मंगलद्रव्य । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) जीवोंमे परस्पर मित्रताका होना, ३ दिशाओंका निर्मल होना, ४ आकाशका निर्मल होना, ५ सब ऋतुके फल फूल धान्यादिकका एक ही समय फलना, ६ एक योजन तककी पृथि. वीका दर्पणकी तरह निर्मल होना, ८ चलते समय भगवानके चरणकमलोके तळे सुवर्ण-कमलोंका होना, ८ आकाशमे जय जय ध्वनिका होना, ९ मन्द सुगंधित पवनका चलना, १० सुगंधमय जलकी वृष्टि होना, ११ पवनकुमार देवोंके द्वारा । भूमिका कण्टक रहित होना, १२ समस्त जीवोका आनन्दमय | होना, १३ भगवानके आगे धर्मचक्रका चलना, १४ छत्र चमर । ध्वजा घंटा आदि आठ मंगल द्रव्योंका साथ रहना। इस प्रकार सब मिलकर ३४ अतिशय अरहंत भगवानके होते हैं । आठ प्रातिहार्य। तरु अशोकके निकटमें सिंहासन छबिदार । तीन छत्र सिरपर लसैं, भामण्डल पिछवार॥ दिव्यध्वनि मुखः, खिर, पुष्पवृष्टि सुर होय ॥ ढोरें चौसठि चमर जखें, बाजै दुन्दुभि जोय ।। अर्थात-१ अशोक वृक्षका होना, २ रत्नमय सिंहासन, ३ भगवानके सिरपर तीन छत्रका होना, ४ भगवानके पीठके पछि भामण्डलका होना, ५ भगवानके मुखसे निरक्षरी (विनाअक्षरकी ) दिव्यध्वनिका होना, ६ देवोंके द्वारा फूलोकी १ पीछे । २ भगवानकी अक्षर रहित सबके समझमें आनेवाली सुन्दर अनुपम वाणी। ३ देवकृत । ४ यक्ष जातिके व्यतर देव। । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) वर्षा होना, ७ यक्ष देवोद्वारा चौसठ चमरीका इरना और ८ दुन्दुभि वाजांका वजना, ये आठ प्रतिहार्य हैं । अनन्त चतुष्टय | ज्ञान अनंत अनंत सुख, दरस अनंत प्रमान | वल अनंत अरहंत सो, इष्टदेव पहिचान || १ अनंतदर्शन, २ अनंतज्ञान, ३ अनंतमुख, ४ अनंतवीर्य, ये चार अनंत चतुष्टय कहे जाते हैं । इनसे भगवानका ज्ञान, दर्शन, सुख तथा वल अनंत होता है, अर्थात् इतना होता है कि जिसकी कोई सीमा या हद नहीं होती है । इस प्रकार ३४ अतिशय, ८ प्रतिहार्य, ४ अनंत चतुष्टय सब मिलाकर ४६ गुण अरंहत भगवान के होते हैं । अठारह दोष | जन्म जैरा तिरखा छुधा, विस्मैय आत खेद । रोग शोक मद मोह भय, निद्रा चिन्ता स्वेढे || राग द्वेष अरु मरणजुत, ये अष्टादर्श दोष । नहिं होते अरहन्तके, सो छवि लायक मोप ॥ १ जन्म, २ जरा ( बुढ़ापा ), ३ तृपा ( प्यास ), ४ क्षुधा ( भूख ), ५ विस्मय ( आश्चर्य ), ६ अरति ( पीड़ा ), ७ खेढ ( दुःख ), ८ रोग, ९ शोक, १० मद, ११ मोह ( अज्ञान ), १२ भय ( डर ), १३ निद्रा, १४ चिन्ता, १५ स्वेद ( पसीना ), १६ राग, १७ द्वेष और १८ मरण | ये अठारह दोप अरंहत भगवानमे नहीं होते हैं । ३ आश्चर्य । ४ क्लेश । ५ पसीना । १ जिनका अन्त न हो । २ बुढापा I ६ अठारह । ७ मूर्ति | Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) सिद्ध परमेष्ठी के मूलगुण । सिद्ध उन्हे कहते हैं, जो आठो कमका नाश करके संसारके बन्धनसे सदैवके लिए मुक्त हो गये हैं, अर्थात् जो फिर कभी संसारमे न आयेंगे। इनमे नीचे लिखे हुए ८ मूलगुण होते हैं । सोरठा । 1 समकित दरसन ज्ञान, अगुरुलेघू अवगाहना । सूच्छैम वीरजवान, निरार्बोध गुण सिद्धके ॥ इन गुणोंकी परिभाषा ( स्वरूप ) समझना इस पुस्तकके पढ़नेवाले विद्यार्थियोंकी शक्तिसे बाहर है, इसलिये केवल नाम मात्र दे दिये गए हैं । १ सम्यक्त्व, २ दर्शन, ३ ज्ञान, ४ अगुरुलघु, ५ अवगाहनत्व, ६ सूक्ष्मत्व, ७ अनन्तवीर्य, ८ अव्यावाधत्व | आचार्य परमेष्ठी के मूलगुण । आचार्य उन्हें कहते हैं, जिनमें नीचे लिखे हुए ३६ मूलगुण हाँ । ये मुनियोंके संघके अधिपति होते हैं, और उनको दीक्षा तथा प्रायश्चित्त वगैरह दंड देते हैं । द्वादशै तप दश धर्मजुत, पार्ले पंचाचार । षट् आवशियगुप्तिगुन, आचरज पद सार ॥ अर्थात् - तप १२, धर्म १०, आचार ५, आवश्यक ६, गुप्ति ३ | १ न हलका न भारी । २ एक एक आत्माके आकार में अनेक आत्माओं के आकारोंका रहना । ३ अतीन्द्रियगोचर । ४ बाधा रहित । ५ बारह । ६ छह ७ तीन गुप्ति । ८ आचार्य | २ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह तप । अनशन उनोदर कर, व्रतसंख्या रस छोर । विविक्तशयनासन धरे, काय कलेश सुठोर ॥ प्रायश्चित्त घर विनयजुत, वैयावत स्वाध्याय । पुनि उत्सर्ग विचारकै, धरै ध्यान मन लाय ॥ अर्थात्-१ अनशन ( भोजनका त्याग करना ), २ ऊनोदर (भूखसे कम खाना ), ३ व्रतपरिसंख्यान (भोजनके लिये जाते हुए घर वगैरहका नियम करना), ४ रसपरित्याग (छहों रस या एक दो रसका छोड़ना), ५ विविक्तशय्यासन (एकांत स्थानमे सोना बैठना), ६ कायक्लेश ( शरीरको कष्ट देना), ७ प्रायश्चित्त (दोषोका दंड लेना), ८ रत्नत्रय व उसके धारकोंका विनय करना, ९ वैयात्रत अर्थात् रोगी वृद्ध मुनिकी सेवा करना, १० स्वाध्याय करना ( शास्त्र पढ़ना) ११ व्युत्सर्ग ( शरीरसे ममत्व छोड़ना) और ध्यान करना । दश धर्म। छिमां मारदव, आरजव सत्यवचन चितपागे । संजम तप त्यागी सरव, आकिञ्चन तियत्याग ।। १ उत्तम क्षमा (क्रोध न करना), उत्तम मार्दव (मान न करना), ३ उत्तम आर्जव (कपट न करना), ४ उत्तम सत्य ( सच बोलना), ५ उत्तम शौच (लोभ न करना, अन्तःकरणको शुद्ध रखना), ६ उत्तम संयम (छह कायके जीवोकी दया पालना और पॉचो इंद्रियोको व मनको वशमे रखना), १क्षमा । २ चित्तको पाक वा शुद्ध रखना शौच है । ३ स्त्रीत्याग । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) ७ उत्तम तप, ८ उत्तम त्याग ( दान करना), ९ उत्तम आकिञ्चन (परिग्रहका त्याग करना), १० उत्तम ब्रह्मचर्य ( स्त्री मात्रका त्याग करना)। छह आवश्यक । समता घर वंदन करै, नाना थुती बनाय । प्रतिक्रमण स्वाध्याय जुत, कायोत्सर्ग लगाय ।। १ समता (समस्त जीवोसे समता भाव रखना), २ वंदना ( हाथ जोड़ मस्तकसे लगाकर नमस्कार करना ), ३ पंचपरमेष्ठीकी स्तुति करना, ४ प्रतिक्रमण ( लगे हुए दोषोपर पश्चात्ताप करना ), ५ स्वाध्याय ( शास्त्रोको पढ़ना),६कायोत्सर्ग लगाकर अर्थात् खड़े होकर ध्यान करना । पञ्च आचार और तीन गुप्ति । दर्शन ज्ञान चरित्र तप, वीरज पंचाचार । ___ गोपै मन वच कायको, गिन छतीस गुन सार॥ १ दर्शनाचार, २ ज्ञानाचार, ३ चारित्राचार, ४ तपाचार, ५ वीर्याचार ये पाँच आचार हैं। १ मनोगुप्ति ( मनको वशमे करना ), २ वचनगुप्ति (वचनको वशमें करना),३ कायगुप्ति ( शरीरको वशमें करना), ये तीन गुप्ति हैं। इस प्रकार सब मिलाकर आचार्यके ३६ मूलगुण हैं। उपाध्याय परमेष्ठीके २५ मूलगुण । उपाध्याय उन्हें कहते हैं, जो ११ अंग और १४ पूर्वके पाठी हो । ये स्वयं पढ़ते और अन्य पासमे रहनेवाले भव्य १ स्तुति । २ वशमें करे। - - -- Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) जीवोंको पढ़ाते हैं । ११ अङ्ग और १४ पूर्वको पढ़ना पढ़ाना ही उपाध्यायकं २५ मूलगुण होते हैं । ___ग्यारह अग। प्रथमहिं आचारांग गनि, दुजौ मूत्रकृतांग । ठाणअंग तीजौ सुभग, चौथौ समवायांग ।। व्याख्यापण्णति पाँचौं, ज्ञातृकथा पट जान । पुनि उपासकाध्ययन है, अंतःकृतदश ठान ।। अनुत्तरण उत्पाद दश, मूत्रविपाक पिछान । बहुरि प्रश्नव्याकरण जुत, ग्यारह अंग प्रमान ॥ १ आचारांग, २ सूत्रकृतांग, ३ स्थानांग, ४ समवायांग, ५ व्याख्याप्रज्ञति, ६ ज्ञातृकथांग, ७ उपासकाध्ययनांग, ८ अंतःकृतदशांग, ९ अनुत्तरोत्पादकदशांग, १० प्रश्नव्याकरणांग, और विपाकसूत्रांग ये ग्यारह अंग हैं। चौदह पूर्व। उत्पादपूर्व अग्रायणी, तीजो वीरजवाद । अस्तिनास्तिपरवाद पुनि, पंचम ज्ञानप्रवाद ॥ छट्टो कर्मप्रवाद है, सतप्रवाद पहिचान । अष्टम आत्मप्रवाद पुनि, नवौं प्रत्याख्यान ॥ विद्यानुवाद पूरव दशम, पूर्वकल्याण महन्त । प्राणवादकिरिया बहुल, लोकविन्दु है अन्त ॥ १ उत्पादपूर्व, २ अग्रायणीपूर्व, ३ वीर्यानुवादपूर्व, ४ अस्तिनास्तिप्रवादपूर्व, ५ ज्ञानप्रवादपूर्व, ६ कर्मप्रवादपूर्व ७ सत्यवादपूर्व, ८ आत्मप्रवादपूर्व, ९ प्रत्याख्यानपूर्व, Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९) १० विद्यानुवादपूर्व, ११ कल्याणवादपूर्व, १२ प्राणानुवादपूर्व, १३ क्रियाविशालपूर्व, १४ लोकबिन्दुपूर्व ये चौदह पूर्व हैं। सर्वसाधुके २८ मूलगुण । साधु उन्हें कहते हैं जिसमे नीचे लिखे हुए २८ मूलगुण हो, वे मुनि तपस्वी कहलाते हैं। उनके पास कुछ भी परिग्रह नहीं होता और न वे कोई आरम्भ करते हैं । वे सदा ज्ञान ध्यानमें लवलीन रहते हैं। पञ्च महाव्रत । हिंसा अनुत तसकरी, अब्रह्म परिगह पाय । मन वच तनतें त्यागवो, पंच महाव्रत थाय ॥ १ अहिंसा महाव्रत, २ सत्य महाव्रत, ३ अचौर्य महाव्रत, ४ ब्रह्मचर्य महाव्रत, ५ परिग्रहत्याग महाव्रत । पञ्च समिति । ईर्या भाषा एषणा, पुनि क्षेपण आदान । प्रतिष्ठापनाजुत क्रिया, पाँचौं समिति विधान ।। १ ईर्ष्यासमिति ( आलस्य रहित चार हाथ आगे जमीन देखकर चलना), २ भाषासमिति (हितकारी प्रामाणिक मीठे वचन बोलना), ३ एषणासमिति (दिनमें एक वार शुद्ध निर्दोष आहार लेना ), ४ आदाननिक्षेपणसमिति (अपन पासके शास्त्र, पीछी, कमंडलु आदिको भूमि देखकर १ हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह इन पाँच पापार त्यागको अणुव्रत और सर्वदेश त्यागको महाव्रत कहते हैं । २० ४ मैथुन, कुशील। इन पाँच पापों एक देश Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावधानीसे धरना उठाना), ५ प्रतिष्ठापनसमिति ( साफ भूमि देखकर जिसमे जीव जन्तु न हो मल मूत्र करना)। शेष गुण । सपरस रसना नासिका, नयन श्रोत्रका रोध ॥ पटआवशि मंजन तजन, शयन भूमिका शोध । वस्त्रत्याग कचढंच अंरु, लघु भोजन इक बार। दॉतन मुखमे ना करे, ठाड़े लेहि अहार ॥ १ स्पर्श, २ रसना, ३ घ्राण, ४ चक्षु, ५ श्रोत्र, इन पाँच इंन्द्रियोंको वशमे करना, ६ समता, ७ बन्दना, ८ स्तुति, ९ प्रतिक्रमण, १० स्वाध्याय, ११ कायोत्सर्ग, १२ स्नानका त्याग करना, १३ स्वच्छ भूमिपर सोना, १४ वस्त्र त्याग करना, १५ बालोका उखाड़ना, १६ एक बार थोड़ा भोजन करना, १७ दन्तधावन अर्थात् दॉतोन न करना, १८ खड़े खड़े आहार, लेना, इस प्रकार सब मिलकर २८ मूलगुण सर्वसामान्य मुनियोके होते हैं । मुनिजन इनका पालन करते हैं। प्रश्नावली । १ परमेष्ठी किसे कहते हैं ? परमेष्ठी पॉच ही होते हैं या कुछ कमती बढती भी ? २ पच परमेष्ठीके कुल गुण कितने हैं ? मुनिके मूलगुण कितने हैं ? ३ जो जीव मोक्षमें हैं, उनके और कौन कौन गुण है ? १ स्पर्शन इद्रिय । २ ऑख । ३ कान । ४ छह आवश्यक । ५ शरीरको नहीं धोना । ६ और । ७ थोड़ा। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) ४ सहावीरस्वामी जब पैदा हुए थे, तब उनमें अन्य मनुष्योंसे कौन कौन असाधारण बातें थीं? ५ अतिशय, प्रातिहार्य, आचार्य, गुप्ति, ऊनोदर, आकिंचन्य, प्रतिक्रमण, वज्रवृषभनाराच सहनन, समचतुरस्त्रसस्थान, व्युत्सर्ग, एषणासमिति, स्वाध्याय इससे क्या समझते हो? ६ समिति, महाव्रत, अङ्ग, आवश्यक, और अनन्तचतुष्टयके कुछ भेद बताओ? ७ शयन, खान, पान, सोने, खाने, पीने, नहाने, धोने और पहनने आदि नियमोंमे हममें और साधुओमें क्या भेद है ? ८ आवश्यक, पचाचार, महाव्रत, समिति, प्रातिहार्य किनके होते हैं ? ९ पाठमें आए हुए १८ दोष किसमें नहीं होते ? १० अरहतके देवकृत अतिशयोके नाम बतलाओ १ ये अतिशय कब प्रकट होते हैं ? केवलज्ञानके पहले या पीछे ? ११ एक लेख लिखो जिसमे यह दिखलाओ कि अरहत भगवानमें और साधारण मनुष्योंमें बाहरी बातोंमें क्या अन्तर है ? १२ अरहत मुनि हैं या नहीं ? क्या तमाम मुनियों में केवलज्ञानके होनेपर केवलज्ञानके अतिशय प्रकट हो जाते हैं या केवल अरहंतोंके ? १३ यदि किसी मुनिसे कोई अपराध हो जाता है, तो वे क्या करते हैं ? १४ उपाध्याय किनको पढ़ाते हैं और क्या पढाते हैं ? १५ भगवानकी जो वाणी खिरती है, वह किस भाषामें होती है ? उसको सब कोई समझ सकते हैं या नहीं ? १६ पचपरमेष्ठीमें सबसे बड़ा पद किसका है और सबसे छोटा किसका ?' १७ आचार्य और साधु इनमें पहले कौनसे पदकी प्राति होती है ! १८ सिद्ध और अरहतमें क्या भेद है, और किसको पहले नमस्कार करना चाहिए? १९ एक परमेष्ठीके गुण दूसरे परमेष्ठीमें हो सकते है या नहीं और मोक्षमें रहनेवाले जीवोंको पचपरमेष्ठी कह सकते हैं या नहीं ? Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) तीसरा पाठ। चौबीस तीर्थकरों के नाम चिन्ह सहित नाम तीर्थकर वृषभनाथ अजितनाथ शंभवनाथ अभिनन्दननाथ सुमतिनाथ पद्मप्रभ सुपार्श्वनाथ चन्द्रप्रभ पुष्पदन्त शीतलनाथ श्रेयांशनाथ वासुपूज्य चिन्ह नाम तीर्थकर | चिन्ह वृषभ (बैल) विमलनाथ शूकर (सुअर) हाथी अनन्तनाथ सेही घोड़ा धर्मनाथ वज्रदण्ड वंदर शांतिनाथ हरिण चकवा कुन्थुनाथ बकरा अर.नाथ मच्छ साथिया मल्लिनाथ कलश चन्द्रमा मुनिसुव्रतनाथ कछुआ मगर नमिनाथ लाल कमल कल्पवृक्ष नेमिनाथ शंख पार्श्वनाथ वर्द्धमान गड़ा भैसा सिंह प्रश्नावली । १ दशवें,पंद्रहवें, बीसवे और चौबीसवे तीर्थंकरके नाम चिन्ह सहित बताओ। २ घोड़ा, मगर, भैंसा, मच्छ और कछुआ ये चिन्ह किन किन और कौन कौनसे तीर्थंकरोंके हैं ? ३ उन तीर्थंकरों के नाम बताओ जिनके चिन्ह निर्जीव हैं ? ४ ऐसे कौन कौन तीर्थंकर हैं, जिनके चिन्ह असैनी जीवोंके नाम हैं ? ५ हथियार, बाजे, बरतन और वृक्षके चिन्ह किन किन तीर्थंकरोंके हैं ? अलग अलग चिन्ह सहित बताओ। ६ एक लड़केने चौबीसों तीर्थंकरोंके चिन्ह देखनेके पश्चात् कहा कि कैसी अनोखी बात है कि सबके चिन्ह जुदे जुदे हैं, किसीका भी चिन्ह किसीसे नहीं मिलता, बताओ कि उसका कहना सत्य है या नहीं ? Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) ७ क्या सब ही प्रतिमाओं पर चिन्ह होते हैं ? जिस प्रतिमापर चिन्ह न हो उसे तुम किसकी कहोगे ? ८ यदि प्रतिमाओं पर चिन्ह नहीं हों तो क्या कठिनाई होगी ? ९ यदि अजितनाथ भगवानकी प्रतिमापरसे हाथीका चिन्ह उठाकर गॅडेका चिन्ह बना दिया जावे, तो बनाओ उसे कौनसे भगवान की प्रतिमा कहोंगे ? १० सॉथियाका आकार लिखकर बताओ ?. चौथा पाठ | सप्त व्यसन । व्यसन उन्हे कहते हैं जो आत्माके स्वरूपको भुला देवें, तथा आत्माका कल्याण न होने देवें । किसी भी विषय में लवलीन होनेको व्यसन कहते हैं । यहाँ बुरे विषय में लवलीन होना । ही व्यसन है । व्यसन सेवन करनेवाले व्यसनी कहलाते हैं । और लोकमें बुरी दृष्टिसे देखे जाते हैं । व्यसन सात हैं – १ जुआ खेलना, २ मांस खाना, ३ मदिरापान करना, ४ शिकार खेलना, ५ वेश्यागमन करना, ६ चोरी करना, और ७ परस्त्री सेवन करना । १ रुपये पैसे और कोड़ियों वगैरहसे नक्की मूठ खेलना और हार जीतपर दृष्टि रखते हुए शर्त लगाकर कोई काम करना जुआ कहलाता है । जूआ खेलनेवाले जुआरी कहलाते हैं जैसे अफीम आदिके १-२-३ आदि अंकोपर सरत लगाना । जुआरी लोगों का हर जगह अपमान होता है । जातिके लोग उनकी निंदा करते हैं और राजा उन्हें दण्ड देता है । जूआ खेलनेवालेको अन्य समस्त व्यसनोमे जबरन फँसना पड़ता है । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) २ जीवोंको मारकर अथवा मरे हुए जीवाका कलेवर खाना, मांस खाना कहलाता है । मांस खानेवाले हिंसक और निर्दयी कहलाते हैं। ३ शराव, भाग, चरस, गॉजा वगैरह नशीली चीजोका सेवन करना मदिरापान कहलाता है । इनके सेवन करनेवाले शरावी और नशेवाज कहलाते हैं। शरावियोंके धर्म कर्म और भल बुरेका कुछ भी विचार नहीं रहता । उनका ज्ञान विचार नष्ट हो जाता है । औरोकी तो क्या घरके लोग भी उनपर विश्वास नहीं करते । ४ जंगलके रीछ, वाघ, मृअर हिरण वगैरह स्वछंद फिरनेवाले जानवरोंको तथा उड़ते हुए छोटे छोटे पक्षियोको अथवा और किसी जीवको बन्दूक वगैरह हथियारोसे मारना शिकार खेलना कहलाता है । इस बुरे कामके करनेवालोके महान् पापका बंध होता है। इन पापियोंके हाथमे बन्दुक वगैरह देखते ही जंगलके जानवर भयभीत हो जाते हैं। _ ५ वेश्या ( वाजारकी औरत ) से रमनेकी इच्छा करना। उसके घर आना जाना, उससे अतिशय प्रीति रखना, वेश्याव्यसन कहलाता है। वेश्या व्यभिचारिनी स्त्री होती हैं। उससे सम्बन्ध रखनेसे ही मनुष्य व्यभिचारी हो जाता है । व्यभिचारसे बुरे काका बन्ध होता है, वेश्यागमनसे अनेक प्रकारके दुःसाध्य रोग भी हो जाते हैं, इसके सिवाय वेश्यासेवन करनेसे मा वहिन सेवन करनेका पाप भी लगता है, वसंततिलका Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) नामकी वेश्या के साथ विषय सेवन करने से एक ही भवमें १८ नातेकी कथा प्रसिद्ध है । ६ प्रमादसे बिना दी हुई, किसीकी गिरी हुई, या पड़ी हुई, या रक्खी हुई, या भूली हुई चीजको उठा लेना अथवा उठाकर किसीको दे देना चोरी है । जिसकी चीज चोरी चली जाती है, उसके मनमे बड़ा खेद होता है और इस खेदका कारण चोर होता है । इसके सिवाय चोरी करते समय चोरके परिणाम भी बड़े मलिन होते हैं । इस कारण चोरके महान् अशुभ कर्मोंका बन्ध होता है । लोकमें भी चोर दंड पाते हैं और सब कोई उन्हें घृणा की दृष्टि से देखते हैं । ७ अपनी स्त्री अर्थात् जिसके साथ धर्मानुकूल विवाह किया है, उसको छोड़कर और सव स्त्रियाँ मां बहिनके समान हैं । अपने से बड़ी मां बराबर है और छोटी वहिन बेटीके बरावर । उनके साथ विषय सेवन करना मानो अपनी मां बहिन और बेटी के साथ विषय सेवना है । प्रश्नावली । १ व्यसन किसे कहते हैं और ये व्यसन कितने होते है ? २ शतरज, ताश, गजफा खेलना, रुई, अफीम लगाना, लाटरी डालना, जिंदगीका बीमा करना, क्रिकेट, फुटबाल खेलना जूभा है या नहीं ? ३ परस्त्री और वेश्यामें क्या भेद ? पत्र यागी रानी है या नहीं ? के ऑ बना ४ मदिरापानसे क्या समझते हो ? ए सग, चरम, नदेखे है या नहीं ? Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) ५ एक अगरेजने जूनागढके जगल्में एक बड़ा शेर माग, बताओ उसको पुण्य हुआ या पाप ? यदि पाप हुआ तो कौनमा ? ६ वसततिलका वेश्याकी कथा नुनी हो तो एक ही भनमें १८ नाते मे हुए। ७ सबसे बुरा व्यसन कोनसा है और ऐसे ऐसे कोन कोन व्यमन है जिनमें हिंसाका पाप लगता है ? ८ परस्त्रीसेवन करनेसे माता बहिन मेवन करनेका पाप क्यों लगता है ? पाँचवाँ पाठ। आठ मूलगुण मूलगुण मुख्य गुणोको कहते है। कोई भी पुरुष जबतक आठ मूलगुण धारण नहीं करता; तबतक श्रावक नहीं कहला सकता है, श्रावक बननेके लिए इनको धारण करना बहुत जरूरी है। मूलनाम जड़का है, जैसे जड़के विना पेड़ नही ठहर सकता, उसी प्रकार विना मूलगुणोके श्रावक नहीं हो सकता। __ श्रावकक ये आठ मूलगुण है-तीन मकारका त्याग, अर्थात् मद्य त्याग, मांस त्याग, मधुका त्याग और पाँच उदुम्बर फलोका त्याग। १ शराब वगैरह मादक वस्तुओके सेवन करनेका त्याग करना मद्यत्याग है । अनेक पदार्थों को मिलाकर और उनको सड़ाकर शराब बनाई जाती है । इस कारणसे उसमे बहुत जल्दी असं ख्यात जीव पैदा हो जाते हैं और उसके सेवन करनेमे जीवोकी महान् हिंसाका पाप लगता है। इसके सिवाय उसको पीकर आदमी पागलसा हो जाता है, और तो क्या शरावियोके Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) मुँहमें कुत्ते भी मूत जाते हैं । इसलिए शराव तथा भंग चरस वगैरह मादक वस्तुओका त्याग करना ही उचित है। = २ मांस खानेका त्याग करना मांस त्याग कहलाता है दो इंद्रिय आदि जीवोके घात करनेसे मांस होता है। मांसमे अनेक जीव हर समय पैदा होते और मरते रहते हैं ।मांसको छूनेसे ही वे जीव मर जाते हैं । इसलिए जो मांस खाता है, वह अनंत जीवोकी हिंसा करता है । इसके सिवाय मांसभक्षणसे अनेक प्रकारके असाध्य रोग हो जाते है और स्वभाव: क्रूर व कठोर हो जाता है, इस कारण मांसका त्याग करना ही उचित है। ३ शहद खानेका त्याग करना मधुत्याग है । शहद मक्खियोका वमन ( कय ) है । इसमें हर समय छोटे छोटे जीव उत्पन्न होते रहते हैं। बहुतसे लोग मक्खियोके छत्तेको निचोड़कर शहद निकालते हैं । छत्तेके निचोड़नेमे उसमेकी मक्खिया और उनके छोटे छोटे बच्चे मर जाते हैं और उनका सारा रस शहदमे आ जाता है जिसे देखनेसे ही घिन आती है । ऐसी अपवित्र वस्तु खाने योग्य नहीं हो सकती। उसका त्याग करना ही उचित है। ४-८ बड़, पीपर, पाकर, कठूमर, (कटहल ) और गूलर इन फलोंका त्याग करना पॉच उदुम्बरोका त्याग करना कहलाता है । इन फलोमे छोटे छोटे अनेक त्रसजीव रहते हैं। बहुतोमे साफ साफ दिखाई पड़ते हैं और बहुतोमें छोटे होनेसे दिखाई नहीं पड़ते । इन फलोके खानेसे वे सव जीव मर जाते है, इसलिए इनके खानेका त्याग करना ही उचित है। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) प्रश्नावली । १ मूलगुण किसे कहते हैं ओर ये गुण किसके होते हैं ? २ मूलगुण कितने होते हैं ? नाम सहित बताओ । ३ एक जैनीने सर्वथा जीवहिंसाका त्याग कर अष्टमूलगुणों का धारी है या नहीं ? ४ मद्यसेवन करने से क्या क्या हानियाँ होती है? सामका लागी मयसेवन करेगा या नहीं ? ५ क्या सब ही फल के नाम दोष है या वह पीवर नगे फलोंम ही ? ओर क्यों ? या तो बताओ कह उन छट्टा भाग । अभक्ष्य । जिन पदार्थों के खानेसे सजीवांका बात होता हो, अथवा बहुत स्थावर जीवोका घात होता हो, जो प्रमाद बढ़ानेवाले हो, और जो शरीरको अनिष्ट करनेवाला हो तथा जो भले पुरुषोके सेवन करने योग्य नही हो वे सब अभक्ष्य हैं अर्थात् भक्षण करने योग्य नहीं हैं । कमलकी डंडीके समान भीतरसे पोले पदार्थ जिनमे बहुतसे सूक्ष्म जीव रह सकते हैं तथा हरी मुलेठी, बेर, द्रोणपुष्प ( एक प्रकार के पेड़का फूल ), ऊमर, द्विदल आदिके खाने मे मूली, गाजर, लहसुन, अदरक, शकरकंदी, आलू, अरवी १ कच्चे दूधमें, कच्चे दहीमें, और कच्चे दूधके जमे हुए दहीकी छाछ में उड़द, मूंग, चना आदि द्विदल ( दो दाल वाले ) अन्नके मिलानेसे द्विदल बनता है । T Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९) (गागली, घुईयाँ), सुरण, तरबूज, तुच्छ फल (जिस फलमें वीज न पड़े हों) बिलकुल अनन्तकाय वनस्पति आदि पदार्थोके खानेमें अनंत स्थावर जीवोंका घात होता है। शराब, अफीम, गांजा, भंग, चरस, तंबाकू वगैरह प्रमाद वढ़ानेवाली चीजें है । भक्ष्य होनेपर भी जो हितकर (पथ्य) न हों उन्हे अनिष्ट कहते हैं। जैसे खॉसीके रोगवालेको बरफी हितकर नहीं है। जिसको उत्तम पुरुष बुरा समझे, उन्हे अनुपसेव्य कहते हैं । जैसे लार, मूत्र आदि पदार्थों का सेवन । इनके सिवाय नवनीत ( मक्खन ) मुखे उदम्बर फल, चमड़ेमे रक्खे हुए हींग, घी, आदि पदार्थ । आठ पहरसे ज्यादहका संधान ( आचार ) व मुरब्बा, कॉजी, सब प्रकारके फूल, अजानफल, पुराने मूंग, उड़द, वगैरह द्विदलान, वर्षाऋतुमें पत्तेवाले शाक और विना दले हुए उडद मूंग वगैरह द्विदल अन्न भी अभक्ष्य है। चलित रस, खट्टा दही, छाछ तथा विना फाड़ी विना देखी हुई सेम, राजभाष, (रोसा) आदिकी फली आदि भी अभक्ष्य है। प्रश्नावली। १ अभक्ष्य किसे कहते हैं ? क्या सब ही शाक पात अभक्ष्य हैं ? यदि कोई महाशय सब्जी मात्रका त्याग कर दे, परन्तु और सब चीजें खाता रहे तो बताओ वे अभक्ष्यका त्यागी है या नहीं ? ___२ अनिष्ट और अनुपसेव्यसे क्या समझते हो ? प्रत्येकके दो दो उदाहरण दो। ३ द्विदल क्या होता है ? क्या तमाम अनाज द्विदल हैं ? यदि नहीं, तो कमसे कम चार द्विदल अनाजोंके नाम बताओ। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) ४ इनमें कौन कौन अभध्य है: बैंगन, टहीतदा, पेट्रा, गोभी का फूल, आम, मक्खन, खीरा, कमलगट्टा, आल, कचाल, सोया, पालक, नी, गाजर, नींबूका आचार, बादाम, चिरोंजीका रायता । ५ कुछ ऐसे अभक्ष्य पदार्थोंके नाम बताओ जिनमें त्रम जीवोंकी हिंसा होती हो । ६ अभध्य कितने हैं ९ लोकमें जो बाईस अभव्य प्रसिद्ध है, उनके विषय में तुम क्या जानते हो ! ७ अभयका त्यागी मूलगुणधारी है या नहीं ? --- सातवाँ पाठ | व्रत । अच्छे कामों के करनेका नियम करना अथवा बुरे कामोका छोड़ना यह व्रत कहलाता है । ये व्रत १२ होते हैं: - अणुव्रत ५, गुणवत ३, शिक्षात्रत ४, इनको श्रावकके उत्तरगुण भी कहते है । इनका पालनेवाला श्रावक ( व्रती ) कहलाता है । अणुव्रत । हिंसा झूठ चोरी वगैरह पॉच पापोका स्थूल रीतिसे एकदेश त्याग करना अणुव्रत कहलाता है । १ श्रावक स्थूल रीतीसे पापका त्याग करते हैं, इस कारण उनके व्रत अणुव्रत कहलाते हैं, मुनि पूर्ण रीतिसे त्याग करते हैं, इसलिए उनके मत महावत कहलाते हैं । f Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१ ) अणुव्रत ५ होते हैं: – १ अहिंसाणुव्रत, २ सत्याणुव्रत, ३ अचौर्याणुव्रत, ४ ब्रह्मचर्याणुत्रत, और ५ परिग्रहपरिमाणाणुव्रत । १ प्रमाद से संकल्पपूर्वक ( इरादा करके ) त्रस जीवोंका घात नहीं करना, अहिंसा अणुव्रत है | अहिंसाणुव्रती ' मैं इस जीवको मारूँ ' ऐसे संकल्पसे कभी किसी जीवका घात नहीं करता, न कभी किसी जीवको मारनेका विचार करता है और न वचनसे किसीसे कहता है कि तुम इसे मारो । घरबार बनाने, खेती व्यापार करने तथा शत्रुसे अपने को बचाने में जो हिंसा होती है उसका गृहस्थ त्यागी नहीं होता । २ स्थूल ( मोटा ) झूठ न तो आप बोलना, न दूसरे से बुलवाना और ऐसा सच भी नहीं बोलना जिसके बोलने से किसी जीवका अथवा धर्मका घात होता हो । भावार्थ - प्रमाद से जीवोको पीड़ाकारक वचन नहीं बोलना सो सत्य अणुव्रत है । ३ लोभ वगैरह प्रमादके वशमें आकर विना दिये हुए किसीकी वस्तुको ग्रहण नहीं करना अचौर्य अणुव्रत है । अचौर्य अणुव्रतका धारी दूसरेकी चीजको न तो आप लेता है और न उठाकर दूसरेको देता है । 1 1 ४ परस्त्रीसेवनका त्याग करना ब्रह्मचर्य अणुव्रत है । ब्रह्मचर्य अणुव्रतका धारी अपनी स्त्रीको छोड़कर अन्य सब स्त्रियोंको पुत्री और वहिन के समान समझता है । कभी किसीको बुरी निगाहसे नहीं देखता है । ५ अपनी इच्छानुसार धन, धान्य, हाथी, घोड़े, नौकर, ३ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) चाकर, वर्तन, कपड़ा वगैरह परिग्रहका परिमाण कर लेना कि मैं इतना रक्खूँगा, बाकी सबका त्याग कर देना, परिग्रहपरिमाण अणुव्रत है । गुणवत । गुणत्रत उन्हे कहते हैं, जो अणुव्रतोंका उपकार करे । गुणत्रत ३ हैं - १ दिग्वत, २ देशव्रत, ३ अनर्थदण्डव्रत । १ लोभ आरंभ वगैरहके त्यागके अभिप्राय से पूरव पश्चिम वगैरह चारों दिशाओमे प्रसिद्ध नदी, गॉव, नगर, पहाड़ वगैरहकी हद बॉध करके जन्मपर्यंत उस हद के बाहर न जानेका नियम करना दिग्वत कहलाता है । जैसे किसी आदमीने जन्मभरके लिए अपने आने जानेकी मर्यादा उत्तर में हिमालय दक्षिणमें कन्याकुमारी, पूर्व में ब्रह्मदेश और पश्चिममे सिन्धु नदी तक कर ली, अब वह जन्मभर इस सीमाके बाहर नहीं जायगा । वह दिखती है । २ घड़ी, घंटा, दिन, महीना वगैरह नियत समय तक और जन्म पर्यंत किए हुए दिग्व्रतमें और भी संकोच करके किसी ग्राम, नगर, घर, मोहल्ला वगैरह तक आना जाना रख लेना और उससे बाहर न जाना देशत्रेत है । जैसे जिस पुरुषने ऊपर लिखी सीमा नियत करके दिखत धारण किया है, वह यदि ऐसा नियम कर लेवे कि मैं भादोके महीने में इस शहरके बाहर नहीं जाऊँगा अथवा आज इस १ कहीं कहीं पर देशव्रतको शिक्षाव्रतों में लिया है और भोगोपभोग परिमाणव्रतको दिग्व्रत । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३) मकानके वाहर नहीं जाऊँगा तो उसके देशव्रत * समझना चाहिये । ३ बिना प्रयोजन ही जिन कामोंमें पापका आरंभ हो उन कामोका त्याग करना, अनर्थदण्डव्रत है । इस व्रतका धारी न कभी किसीको वनस्पति छेदने, जमीन खोदने वगैरह पापके कामोंका उपदेश देता है, न किसीको विष (जहर ) शस्त्र ( हथियार ) वगैरह हिंसाके उपकरणोंको माँगे देता है, न कपाय उत्पन्न करनेवाली कथाएँ सुनता है, न किसीका बुरा विचारता है, और न वेमतलव व्यर्थ जल बखेरता है। और न आग जलाता है । कुत्ता बिल्ली वगैरह जीवोंको भी जो मांस खाते हैं, नहीं पालता। शिक्षाव्रत। शिक्षाव्रत उन्हें कहते हैं जिनसे मुनिव्रत पालन करनेकी शिक्षा मिले। शिशावत ४ हैं:-१ सामायिक, २ प्रोषधोपवास, ३ भोगोपभोगपरिमाण, ४ अतिथिसंविभाग। १ मन, वचन, काय और कृत, काग्नि, अनुमोदना करके नियत समय तक पाँचो पापोंका त्याग करना और सुषम __ *दिग्वत और देशव्रतसे यह न समझना चाहिए विनिम्बाहर जाना अथवा संसारका जान प्राप्त करना हुन है। इनका मदन हम अपने लोभ और आरम्भको जिममें हम दृप कुछ भी नहीं कर सकते हैं, कम करें । केवल मनी इच्छाओंकी का अभिप्राय है । आप चाहे अपने दाने दाग कि हद उसकी जरूर कर लें। पछी Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) राग-द्वेप छोड़कर, अपने शुद्ध आत्मस्वरूपमें लीन होना, सामायिक कहलाता है। सामायिक करनेवालेको प्रातःकाल __ और सायंकाल किसी उपद्रव रहित एकांत स्थानमे तथा घर, धर्मशाला अथवा मंदिरमे आसन वगैरह ठीक करके सामायिक करना चाहिये और विचारना चाहिये कि जिस संसारमे मैं रहता हूँ, अशरणरूप, अशुभरूप, अनित्य, दुःखमयी और पररूप है और मोक्ष उससे विपरीत है इत्यादि । __ प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशीको समस्त आरम्भ छोड़ना __ और विषय कषाय तथा आहार पानीका १६ पहरतक त्याग करना, प्रोषधोपवास कहलाता है। प्रोषध एक वार भोजन करने अर्थात् एकाशनका नाम है । एकाशनके साथ उपवास करना प्रोषधोपवास कहलाता है। जैसे किसी पुरुषको अष्टमीका प्रोषधोपवास करना है, तो उसे सप्तमी और नवमीको एकाशन और अष्टमीको उपवास करना चाहिये और शृंगार आरंभ, गंध, पुष्प ( तेल, इतर फुलेल ), स्नान, अंजन सूंघनी वगैरह चीजोंका त्याग करना चाहिये । यह उत्कृष्ट प्रोषधोपवासकी रीति है । व्रती प्रत्येक अष्टमी व चतुर्दशीको कमसे कम एकभुक्त करके भी धर्मध्यान कर सकता है । ३ भोजन, वस्त्र, आभूण आदि भोगोपभोग वस्तुओको जन्मपर्यन्त अथवा कुछ कालकी मर्यादा लेकर त्याग करना १ जो वस्तु एक बार ही सेवन करनेमें आती है, वह भोग है, जैसे भोजन और जो वस्तु बार वार भोगनेमें आती है वह उपभोग है, जैसे वस्त्र, चारपाई, स्त्री। कहीं कहींपर भोगको उपभोग और उपभोगको परिभोग भी कहा है। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 41 भोगोरभागनिन है। जो प्रज्ञा जल्द है ज्यादा ग्रहण करने योग्य नहीं हैं, उनका दो सर्वथा जानके लिए त्याग करना चाहिए और को भय तथा इन करने योग्य हैं, उनका भी त्याग यही वंच. जिन महीना. ई वगैरह काही मचाना लेकर करना चाहिए। ४ मक्षि नहित, फसी इडा वित. ध नि बरह श्रेष्ठ पुन्गा दान देनाः अनियिविभाव है। दान चार प्रकार है:- आहारज्ञान, ज्ञानज्ञान, ३ गोषदान, ४ अभयदान । १ मुनि, त्यागी, श्रावक व्रती तथा भूले. जनाय विधवाऑको भोजन देना आवारजन है ।। २ पुन वॉटना: पाउमालाएँ खोलना व्याख्यान देकर धर्म और कन्या ज्ञान कराना ज्ञानज्ञान है। गंगा पनुष्योंको औश्य देना. उनकी को करना भोपत्रवान है। ४ जीबी रक्षा करना अयन मुनि त्यगी और ब्रहचारी टोगनिबनके लिए स्थान बनवाना. अंधेरी राव, सडकॉस लेना जलवाना, चौकी पहरा लगना. गेला पुरुषाको दान्त्र और संक्से निकालना अभयदान है। प्रश्नावली। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) उदाहरण देकर समझाओ। ३ इन प्रश्नोंका उत्तर दो:(क) प्रोपधोपवासके दिन क्या क्या करना चाहिये ? (स्व) ग्यारहवीं प्रतिमाधारीके व्रत अणुनत हैं या महाव्रत ? (ग) सामायिक कहाँ और किस समय करनी चाहिये और सामायिक करते समय क्या विचार करना चाहिये ? (घ) अनर्थदण्डव्रतका धारी ऐसी पुस्तके पढेगा व सुनेगा या नहीं जिनमें जीवहिंसा और युद्धका कथन हो ? (ड) पचाणुव्रतका पालनेवाला कौनसी प्रतिमाका धारी है ? (च) अहिंसाणुव्रतका धारी लड़ाई में जाकर लडेगा या नहीं ? मन्दिर, कूआ, तालाव बनवायगा या नहीं ? खेती करेगा या नहीं ? (छ) छपी हुई पुस्तकें बॉटना, अंग्रेजी तथा शिल्प विद्याके लिये रुपया देना ज्ञानदान है या नहीं ? (ज) गुणव्रत तथा शिक्षाव्रत विना अणुव्रतके हो सकते हैं या नहीं ? (झ) एक पुरुपने यह नियम किया कि मैं एगिया, युरोप, अफरीका, अमेरिका, आस्ट्रेलिया अर्थात् पञ्च महाद्वीपोंके बाहर न जाऊँगा तो बताओ उसका यह दिग्व्रत है या नहीं ? (ज) एक पडित महाशय बिना कुछ लिये दिये विद्यार्थियोंको पढाते हैं तो बताओं वे कौनसा व्रत पाल रहे हैं ? (ट) मिथ्यात्वका नाश करने और ज्ञानका प्रकाश करनेके लिये अकलंकने आपत्ति पड़नेपर झूठ बोलकर अपने प्राणोंकी रक्षा की, बताओ उन्हें झूठका पाप लगा या नहीं ? (ठ) सडकपर एक पैसा पड़ा था, हरिने उठाकर एक भिखारीको दे दिया, बताओ हरिने अच्छा किया या बुरा ? (ड) साफ मालूम है कि अपराधीको फॉसीकी सजा मिलेगी, किसी सूरतसे उसके प्राण नहीं बच सकते, उसको बचानेके लिये झूठी गवाही देना अच्छा है या बुरा ? Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७) (ढ) एक दुष्टा स्त्री सदा अपने कटु शब्दोंसे अपने पिताका जी दुखाती है बताओ वह कौनसा पाप करती है ? (ण) एक जुआरी अपना सब रुपया हार जानेके बाद घर आकर अपनी स्त्रीसे कहने लगा कि यदि तुम्हारे पास कुछ रुपया हो तो दे दो। यद्यपि स्त्रीके पास रुपया था, परन्तु जुवेके कारण उसने कह दिया कि मेरे पास तो एक फूटी कौड़ी भी नहीं, मैं कहाँसे दूँ ? बताओ उसने झूठ बोला या सच ? ४ अतिथिसंविभागवत, अनर्थदण्डव्रत, और परिग्रहपरिमाणाणुव्रतसे क्या समझते हो ? उदाहरण सहित बताओ ? आठवाँ पाठ। ग्यारह प्रतिमा । श्रावकोंके ११ दरजे होते हैं, उन्हें ग्यारह प्रतिमा कहते हैं । श्रावक ऊँचे ऊँचे चढ़ता हुआ एकसे दूसरी, दूसरीसे तीसरी, तीसरीसे चौथी, इसी तरह ग्यारहवीं प्रतिमा तक चढ़ता है और उससे ऊपर चढ़कर साधु या मुनि कहलाता है । अगली अगली प्रतिमाओंमें पहलेकी प्रतिमाओंकी क्रियाका होना भी जरूरी है। दर्शनप्रतिमा-सम्यग्दर्शन सहित अतीचार रहित आठ मूलगुणोंका धारण करना और सात व्यसनोंका अतीचार सहित त्याग करना दर्शनप्रतिमा है। इस प्रतिमाका धारी दार्शनिकश्रावक कहलाता है। वह सदा संसारसे उदासीन दृदचित्त रहता है और मुझे इस शुभ कामका फल मिले ऐसी वांछा नहीं रखता। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८) २ व्रतप्रतिमा-पाँच अणुव्रत, तीन गुणवत, चार शिक्षाव्रत, इन १२ व्रतोका पालन व्रतप्रतिमा है । इस प्रतिमाका धारी व्रती श्रावक कहलाता है। ३ सामायिकप्रतिमा-प्रतिदिन प्रातःकाल, मध्यान्हकाल और सायंकाल अर्थात् सवेरे, दुपहर शामको दो दो बड़ी विधिपूर्वक निरतिचार सामायिक करना सामायिकप्रतिमा है । __४ प्रोपधप्रतिमा-हरएक अष्टमी और चतुर्दशीको १६ पहरका अतिचार रहित उपवास अर्थात् प्रोपधापवास करना और गृह, व्यापार, भोग, उपभोगका तमाम सामग्रीका त्याग करके एकांतमें बैठकर धर्मध्यानमे लगना, प्रोपधप्रतिमा है । मध्यम १२ और जघन्य ८ पहरका प्रोपध होता है । ५ सचित्तत्यागप्रतिमा-हरी वनस्पति अर्थात् कच्चे फल फूल वीज पत्ते वगैरहको न खाना सचित्तत्यागप्रतिमा है। १ सामायिक करनेकी विधि यह है.-पहले पूर्व दिशाकी ओर मुंह करके खड़ा होकर नौ बार णमोकार मन्त्र पढ दण्डवत् करे, फिर उसी तरफ खडे होकर तीन दफे णमोकार मन्त्र पढ तीन आवर्त और एक नमस्कार ( शिरोनति ) करे और फिर क्रमसे दक्षिण पश्चिम और उत्तर दिशाकी ओर तीन तीन आवर्त्त और एक एक नमस्कार करे अनन्तर पूर्व दिशाकी ओर मुंह करके खड़े होकर अथवा चैठकर मन वचन कायको शुद्ध करके पांचों पापोंका त्याग करे, सामायिक पढे, किसी मन्त्रका जप करे अथवा भगवानकी शान्त मुद्राका या चैतन्य मात्र शुद्ध स्वरूपका अथवा कर्म-उदयके रसकी जातिका चिन्तवन करे, फिर अन्तमें खड़ा हो ९ दफे मन्त्र पढ दण्डवत करे सामायिकका उत्कृष्ट समय ६ घड़ी, मध्यम ४ घड़ी और जघन्य २ घडी है २४ मिनटकी एक घड़ीहोती है। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३९ ) जिसमें जीव होते हैं उसे सचित्त कहते हैं । अतएव ऐसे पदार्थको जिसमें जीव हों न खाना सचित्तत्यागप्रतिमा है। ६ रात्रिभोजनत्यागप्रतिमा-कृत कारित अनुमोदनासे और मन वचन कायसे रात्रिमें हरएक प्रकारके आहारका त्याग करना अर्थात् सूरज छिपनेके २ घड़ी पहलेसे सूरज निकलनेके २ घड़ी पीछे तक आहार पानीका बिलकुल त्याग करना, रात्रिभोजनत्यागप्रतिमा है । ___ कहीं कहींपर इस प्रतिमाका नाम दिवामैथुन त्याग प्रतिमा भी है । अर्थात् दिनमे मैथुनका त्याग करना । ७ ब्रह्मचर्यप्रतिमा-मन वचन कायसे स्त्री मात्रका त्याग करना ब्रह्मचर्यमतिमा है। ८ आरंभत्यागप्रतिमा-मन वचन कायसे और कृत कारित अनुमोदनासे गृह-कार्य संबंधी सव तरहकी क्रियाओका त्याग करना, आरंभत्यागप्रतिमा है । आरंभत्याग प्रतिमावाला स्नान दान पूजन वगैरह कर सकता है। ___९ परिग्रहत्यागप्रतिमा-धन धान्यादि परिग्रहको पापका कारणरूप जानते हुए आनंदसे उनका छोड़ना परिग्रहत्यागप्रतिमा है । १० अनुमतित्यागप्रतिमा-गृहस्थाश्रमके किसी भी कार्यका अनुमोदन नहीं करना, अनुमतित्यागप्रतिमा है । इस प्रतिमाका धारी उदासीन होकर घरमें या चैत्यालय या मठ वगैरहम वैठता है । घरपर या और जो कोई श्रावक भोजनके लिए Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) बुलावे उसके यहाँ भोजन कर आता है। किन्तु अपने मुंहसे यह नहीं कहता कि मेरे वास्ते वह चीज बनाओ। ११ उद्दिष्टत्यागप्रतिमा-घर छोड़कर वनमे या मठ वगैरहमें तपश्चरण करते हुए रहना, खण्डवस्त्र धारण करना, विना याचना किये भिक्षावृत्तिसे योग्य उचित आहार लेना उद्दिष्टत्यागप्रतिमा है । इस प्रतिमाधारीके दो भेद हैं:-१ क्षुल्लक २ ऐलक । क्षुल्लक अपने शरीरपर छोटी चादर रखते हैं पर ऐलक लंगोटी मात्र रखते हैं। प्रश्नावली। १ प्रतिमा किसे कहते हैं ? और इसके कितने भेद हैं १ नाम सहित बताओ। भगवानकी मूर्तिको भी प्रतिमा कहते हैं, बतलाओ उक्त प्रतिमा अब्दका इससे कुछ सम्बन्ध है या नहीं ? २ प्रतिमाओंका पालन कौन करता है ? किसी प्रतिमाके पालन करनेके लिए उससे पहलेकी प्रतिमाओंका पालन करना जरूरी है या नहीं ? ३ एक आदमी अभी तक किसी भी प्रतिमाका पालन नहीं करता था परन्तु अब उसने पहली प्रतिमा धारण कर ली, तो बताओ उसने पहलेसे क्या उन्नति कर ली ? ___ ४ निम्न लिखित कौन प्रतिमाओंके धारी है ? ब्रह्मचारी, पर्वोके दिन प्रोषधोपवास करनेवाला, घरका कोई भी काम न करके तमाम दिन धर्मध्यान करनेवाला, स्त्री मात्रका त्याग करनेवाला, एक लगोटीके सिवाय और किसी तरहका परिग्रह न रखनेवाला । ___५ ये ऊँचीसे ऊँची कौनसी प्रतिमाओंका पालन कर सकते हैं-गृहस्थ, । स्त्री, पुरुष, पशु, पक्षी। ६ कोट बूट पतलन पहिनते हुए, सौदागिरी करते हुए, रेलमें सफर करते : हुए, लदनमें रहते हुए, लड़ाईके मैदानमें लड़ते हुए, वकालात, अध्यापकी, • वैद्यक, ज्योतिषी, सम्पादकी करते हुए, राज्य और न्याय करते हुए, कौनसी । प्रतिमाका पालन हो सकता है ? Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१) ७ इन प्रश्नोंके उत्तर दो: (क ) सातवीं प्रतिमाधारी स्त्रियोंके बीच खड़ा होकर व्याख्यान दे सकता है या नहीं? (ख) दसवीं प्रतिमाघारीको यदि कोई भोजनका बुलावा दे तो उसके यहाँ जाय या नहीं ? (ग) ग्यारहवीं प्रतिमाधारी पाठशाला खुलवा सकता है या नहीं ? उसके लिए रुपया देनेको अनुमोदना करेगा या नहीं तथा रेल, घोड़े, गाढ़ी वगैरहमें बैठेगा या नहीं? (घ) आठवी प्रतिमाका धारी मंदिर बनानेकी सलाह देगा या नहीं तथा पूजन करेगा या नहीं ? (ड) उद्दिष्टत्यागप्रतिमाधारी किसीसे धर्म पुस्तक अर्थात् शास्त्रके लिए याचना करेगा या नहीं ? कोई पुस्तक लिखेगा या नहीं ? रोग हो जानेपर किसीसे उसका जिक्र करेगा या नहीं ? (च) दूसरी प्रतिमाधारीके लिए तीनों समय समायिक करना जरूरी है या नहीं ? (छ) प्लेग आ जानेपर पहली प्रतिमाका धारी प्लेगग्रसित स्थानको छोड़ेगा __ या नहीं अथवा किसी सम्बन्धीके मरनेपर रोयेगा या नहीं ? (ज) जिस स्थानपर कोई जैनी न हो तथा जैनमदिर न हो वहाँ प्रतिमाधारी रहेगा या नहीं ? (झ) सामायिककी क्या विधि है, इसका करना कौनसी प्रतिमाघारीके लिए आवश्यक है ? (अ) सचित्त किसे कहते हैं ? कच्चे फल फूल सचित्त हैं या नहीं ? (ट) दूसरी प्रतिमाका धारी रातको भोजन करेगा या नहीं ? यदि नहीं तो छट्ठी प्रतिमा रात्रिभोजनत्याग क्यों रक्खी है ? (ठ) सातवीं प्रतिमाधारी मनुष्य क्या क्या काम करेगा और क्या क्या नहीं करेगा? (ड) ग्यारहवीं प्रतिमाधारी श्रावक है मुनि ! उसके पास क्या क्य वस्तुएँ होती हैं? Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२ ) नौवाँ पाठ | तत्त्व और पदार्थ | तत्त्व सात होते हैं: - १ जीव, २ अजीव ३ आसव, ४ बंध, ५ संवर, ६ निर्जरा, ७ मोक्ष | जीव जीव उसे कहते हैं, जो जीवें, जिसमें चेतना हो अथवा जिसमे प्राण हो । पाँच इंद्रिय, तीन वल ( मनवल. वचनवल, कायवल ) आयु और श्वासोच्छ्वास. ये दस द्रव्यप्राण तथा ज्ञान दर्शन ये भावप्राण हैं । जिसमें ये पाये जाते हैं व जीव कहलाते है । जैसे मनुष्य देव, पशु पक्षी वगैरह । अजीव अजीवें उसे कहते हैं जिसमे चेतना गुण न हो अथवा जिसमें कोई प्राण न हो । जैसे लकड़ी पत्थर वगैरह । आस्रव आस्रव बंधके कारणको कहते हैं । इसके २ भेद हैं: १ भावास्रव २ द्रव्यासव । जैसे किसी नावमे कोई छेद हो जाय और उसमेसे उस नावमें पानी आने लगे, इसी प्रकार १ एक इन्द्रिय जीव स्पर्शन इन्द्रिय, आयु कायवल और ब्वासोच्छ्वास, ये चार प्राण होते हैं दो इद्रिय जीव में रसना ( जिह्वा ) इन्द्रिय और वचन बल मिलाकर ६ प्राण होते हैं। तीन इन्द्रिय जीव में नासिका (नाक ) इंद्रिय बढकर सात प्राण हैं । चार इन्द्रिय जीवमें चक्षु ( आँख ) इन्द्रिय बढकर ८ प्राण हैं । पचेन्द्रिय सशीजीव में मन मिलाकर पूरे दस प्राण होते हैं । २ अजीवके पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल ५ भेद हैं, जिनका कथन तीसरे भाग में आ चुका है । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३ ) आत्मा निज भावोसे कर्म आते हैं उन्हें भावास्रव कहते हैं और शुभ अशुभ पुद्गल के परमाणुओंको द्रव्यास्रव कहते हैं । आस्रवके मुख्य ४ भेद हैं: - १ मिथ्यात्व, २ अविरति, ३ कषाय, ४ योग, इन्हीं चार खास कारणोंसे कर्मोंका आश्रव होता है | १ मिथ्यात्व - संसारकी सव वस्तुओसे जो अपनी आत्मासे अलग हैं राग और द्वेष छोड़कर केवल अपनी शुद्ध आत्मा के अनुभव निश्चय करनेको सम्यक्त्व कहते हैं । यही आत्माका असली भाव है, इससे उल्टे भावको मिथ्यात्व कहते हैं । मिथ्यात्वकी वजहसे संसारी जीवमें तरह तरहके भाव पैदा होते हैं और इसीसे मिथ्यात्व कर्मबंधका कारण है । इसके ५ भेद हैं: - १ एकांत, २ विपरीत, ३. विनय, ४ संशय, ५ अज्ञान । २ अविरति - आत्माके अपने स्वभावसे हटकर और और विषयोंमे लगना अविरति है । छह कायके जीवों की हिंसा करना और पॉच इंद्रिय और मनको वशमें नहीं करना अविरति है । ३ कर्णाय - जो आत्माको कपे अर्थात् दुःख दें, वह कषाय है | इसके २५ भेद हैं: - अनंतानुबंधी क्रोध, मान. १ वस्तुनें रहनेवाले अनेक गुगका विचार न करके उसका एक ही रूप श्रद्धान करना एकाननिघ्याल है । २ उल्टा श्रद्धान करना विपरीतनिध्याच है । ३ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान की अपेक्षा न करके चरावर विनय और बाहर करना विनयमिध्यात्व है । ४ पदार्थों सराय (वह) रहना मायमिय्याल है । ५ दिन अहितक बिना ही श्रद्धान करना अज्ञान है। का कर्मप्रकृतियोंमें किया जायगा । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४) माया, लोभ, अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवेद, नपुंसकवेद। ४ योग-मनमें कुछ सोचनेसे या जिह्वासे कुछ बोलनेसे या शरीरसे कोई काम करनेसे हमारे मन, जिह्वा और शरीरमें हलन चलन होता है और इनके हिलनेसे हमारी आत्मा भी हिलती है । यही योग कहलाता है । आत्मामें हलन चलन होनेसे ही कोंका आस्रव होता है। योगके १५ भेद हैं१ सत्यमनोयोग, २. असत्यमनोयोग, ३ उभयमनोयोग, ४ अनुभयमनोयोग, ५ सत्यवचनयोग, ६ असत्यवचनयोग, ७ उभयवचनयोग,८ अनुभयवचनयोग,९ औदारिककाययोग, १० औदारिकमिश्रकाययोग, ११ वैक्रियककाययोग, १२ वैक्रियकमिश्रकाययोग, १३ आहारककाययोग, १४ आहारकमिश्रकाययोग, १५ कार्माणयोग । ___ इस प्रकार ५ मिथ्यात्व, १२ अविरति, २५ कषाय, १५ योग कुल मिलाकर आस्रवके ५७ भेद हैं। वंध। बंधके भी दो भेद हैं-१ भाववंध, २ द्रव्यबंध । आत्माके जिन बुरे भावोंसे कर्मबंध होता है, उसको तो भावबंध कहते हैं और उन विकार भावोंके कारण जो कर्मके पुद्गल परमाणु आत्माके प्रदेशोके साथ दूध और पानीके समान एकमेक होकर मिल जाते हैं, उसे द्रव्यवंध कहते हैं । मिथ्यात्व Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५) अविरति, आदि परिणामोंके कारण कर्म आते हैं। और वे आत्माके प्रदेशोंके साथ मिल जाते हैं। जैसे धूल उड़कर गीले कपड़ेमें लग जाती है। __बंध और आस्रव साथ साथ एक ही समयमें होता है । तथापि इनमें कार्य-कारणभाव है, इसलिए जितने आस्रव है उन सवको बंधके कारण समझना चाहिए । संवर। आस्रवका न होना अथवा आस्रवका रोकना, अर्थात नष्ट कौका नहीं आने देना, संवर है । जैसे जिस नावमें छेद हो जानेसे पानी आने लगा था अगर उस नावके छेद बंद कर दिये जायें तो उसमें पानी आना बंद हो जायगा, इसी प्रकार जिन परिणामोंसे कर्म आते हैं, वे न होने पावे और उनकी जगहमे उनसे उल्टे परिणाम हों, तो काँका आना बंद हो जायगा । यही संवर है । इसके भी भावसंवर और द्रव्यसंवर दो भेद हैं। जिन परिणामोंसे आस्रव नहीं होता है, वे भावसंवर कहलाते हैं और उनसे जो पुद्गल परमाणु कर्मरूप होकर आत्मासे नहीं मिलते हैं, उसको द्रव्यसंवर कहते हैं। __ यह संवर ३ गुप्ति, ५ समिति, १० धर्म, १२ अनुप्रेक्षा २२ परीपहजय और ५ चारित्रसे होता है अर्थात् संवरके गुप्ति, समिति, अनुप्रेक्षा परीपहजयचारित्र ये ५ मुख्य भेद हैं। __गुप्ति-मन, वचन और कायसे. हलन चलनको रोकना, ये तीन गुप्ति है। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) समिति-ईर्या, भाषा, एपणा, आदाननिक्षेपण, उत्सर्ग ये पाँच समिति हैं। धर्म-उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य ये दस धर्म हैं। ___ अनुप्रेक्षा-बार वार चितवन करनेको अनुप्रेक्षा कहते हैं। अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, वोधिदुर्लभ, धर्म ये १२ अनुप्रेक्षा हैं । इनको १२ भावना भी कहते हैं। १ अनित्यभावना-ऐसा विचार करना कि संसारकी तमाम चीजें नाश हो जानेवाली हैं, कोई भी नित्य नहीं है । ___ २ अशरणभावना-ऐसा विचार करना कि जगत्मे कोई शरण नहीं है और मरणसे कोई वचानेवाला नहीं है । ३ संसारभावना-ऐसा चितवन करना कि यह संसार __ असार है, इसमे जरा भी सुख नहीं है। ४ एकत्वभावना-ऐसा विचार करना कि अपने अच्छे बुरे कर्मों के फलको यह जीव अकेला ही भोगता है, कोई सगा साथी नहीं बटा सकता। ५ अन्यत्वभावना-ऐसा विचार करना कि पुत्र ; स्त्री वगैरह संसारकी कोई भी वस्तु अपनी नहीं है ।। ६ अशुचिभावना-ऐसा विचार करना कि यह देह अपवित्र और घिनावनी है, इससे कैसे प्रीति करना चाहिए ? __७ आस्रवभावना-ऐसा चितवन करना कि मन वचन . * समिति और १० धर्मोंका स्वरूप पूर्वमें दिया जा चुका है। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७ ) कायके हलन चलनसे कौका आस्रव होता है सो बहुत दुखदाई है, इससे बचना चाहिए। ८ संवरभावना-ऐसा विचार करना कि संवरसे यह जीव संसार-सछुद्रसे पार हो सकता है, इसलिए संवरके कारणोंको ग्रहण करना चाहिए। ९ निर्जराभावना-ऐसा विचार करना कि काँका कुछ दूर होना निर्जरा है, इसलिए इसके कारणोंको जानकर कर्माको दूर करना चाहिए। १० लोकभावना-लोकके स्वरूपका विचार करना कि कितना बड़ा है, उसमें कौन कौन जगह है और किस किस जगह क्या क्या रचना है और उससे संसार-परिभ्रमणकी हालत मालूम करना। ११ बोधिदुर्लभभावना-ऐसा विचार करना कि मनुष्यदेह बड़ी कठिनाईसे प्राप्त हुई है, इसको पाकर बेमतलव न खोना चाहिए, किंतु रत्नत्रयको (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र ) धारण करना चाहिए। १२ धर्मभावना-धर्मके स्वरूपका चिंतन करना कि इसीसे इसलोक और परलोकके सब तरहके सुख मिल सकते हैं। परीपह-मुनि कर्मोंकी निर्जरा, और कायक्लेश, करनेके लिये समताभावोसे जो स्वयं दुःख सहन करते हैं उन्हे परीपंह कहते हैं। १ परीषासे परीषर-सहन समझना चाहिए । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८) परीपह २२ हैं--क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंश-मसक, नग्न, अरति, स्त्री, चर्या, आसन, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तुणस्पर्श, मल, सत्कार-पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन ।। १ भूखके सहन करनेको क्षुधापरीषह कहते हैं । २ प्यासके सहन करनेको तृषापरीपह कहते हैं । ३ सर्दीका दुःख सहन करनेको शीतपरीपह कहते हैं। ४ गर्मीके दुःख सहन करनेको उप्णपरीपह कहते हैं । ५ डॉस, मच्छर, बिच्छू वगैरह जीवोके काटनेके दुःख सहन करनेको दंश-मसकपरीषह कहते हैं। ६ नंग रहकर भी लज्जा, ग्लानि और विकार नहीं करनेको नग्नपरीषह कहते हैं। ७ अनिष्ट वस्तु पर भी द्वेष नहीं करनेको अरतिपरीषह कहते हैं। ८ ब्रह्मचर्यव्रत भंग करनेके लिये स्त्रियों के द्वारा अनेक उपद्रव होनेपर भी विकार नहीं करना स्त्रीपरीषह है । ९ चलते समय पैरमे कटीली घास कंकर चुभ जानेका दुःख सहन करना चर्यापरीषह है । १० देर तक एक ही आसनसे बैठे रहनेका दुःख सहन करना, आसनपरीषह है। ११ कंकरीली जमीन अथवा पत्थरपर एक ही करवटसे . सोनेका दुःख सहन करना, शय्यापरीषह है। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४९) १२ किसी दुष्ट पुरुषके गाली वगैरह देनेपर भी क्रोध न करके क्षमा धारण करना, आक्रोशपरीषह है। १३ किसी दुष्ट पुरुष द्वारा मारे पीटे जानेपर भी क्रोध और क्लेश नहीं करना, वधपरीषद है । १४ भूख प्यास लगने अथवा रोग हो जानेपर भी भोजन औषधादि वगैरह नहीं माँगना, याचनापरीपह है । १५ भोजन न मिलने अथवा अंतराय हो जानेपर क्लेश न करना, अलाभपरीपह है। १६ बीमारीका दुःख न करना रोगपरीषह है। १७ शरीरमे काँच, सुई, काँटे, वगैरहके चुभ जानेका दुःख सहन करना तृणस्पर्शपरीषह है । १८ शरीरमें पसीना आजाने अथवा धूल मिट्टी लग जानका दुःख सहन करना और स्नान नहीं करना, मलपरीषह है । १९ किसीके आदर सत्कार अथवा विनय प्रणाम वगैरह न करनेपर बुरा न मानना, सत्कारपुरस्कारपरीषह है। २० अधिक विद्वान् अथवा चारित्रवान् हो जानेपर भी मान न करना, प्रज्ञापरीपह है। २१ अधिक तपश्चरण करनेपर भी अवधिज्ञान आदि न होनेसे क्लेश न करना, अज्ञानपरीपह है । ___ २२ बहुत काल तक तपश्चरण करनेपर भी कुछ फलकी प्राप्ति न होनेसे सम्यग्दर्शनको दृपित न करना अदर्शनपरीपह है। चारित्र-आत्मस्वरूपमे स्थित होना चारित्र है । इसके Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) __ ५ भेद हैं:-सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्ध, सूक्ष्मसौंपराय, यथाख्यात । निर्जरा। कर्मोंका थोड़ा थोड़ा भाग क्षय होते जाना निर्जरा है। जैसे नावमे पानी भर गया था, उसे थोड़ा थोड़ा करके बाहर फेकना, इसी प्रकार आत्माके जो कर्म इकट्ठे हो रहे हैं, उनका थोडा थोडा क्षय होना निर्जरा है । इसके भी दो भेद हैं-१ भावनिर्जरा, २ द्रव्यनिर्जरा । आत्माके जिस भावसे कर्म अपना फल देकर नष्ट होता है, वह भावनिर्जरा है और समय पाकर तपसे नाश होना द्रव्यनिर्जरा है। मोक्ष। सब कर्मोंका क्षय हो जाना मोक्ष है । जैसे एक नावका भरा हुआ पानी वाहर फेका जाय तो ज्यो ज्यों उसका पानी बाहर फेंका जाता है त्यो त्यों वह नाव ऊपर आती जाती है, यहाँ तक कि विलकुल पानीके ऊपर आ जाती है, १ सब जीवोंमें समता भाव रखना, सुख दुःखमें समान रहना, शुम अशुभ विकल्पोंका त्याग करना, सामायिकचारित्र है। २ सामायिकसे डिग जानेपर फिर अपनेको अपनी शुद्ध आत्माको अनुभवमें लगाना तथा व्रतादिकमें भग पड़नेपर प्रायश्चित्त वगैरह लेकर सावधान होना, छेदोपस्थापनाचारित्र है । ३ रागद्वेषादि विकल्पोंका त्यागकर अधिकताके साथ आत्म-शुद्धि करना . परिहारविशुद्धिचारित्र है। ४ अपनी आत्माको कषायसे रहित करते करते . सूक्ष्मलोभ कपाय नाम मात्रको रह जाय, उसको सूक्ष्मसापराय कहते हैं। उसके भी दूर करनेकी कोशिश करना सूक्ष्मसाम्परायचारित्र है। ५ कषाय, रहित जैसा निष्कप आत्माका शुद्ध स्वभाव है, वैसा होकर उसमें मम होना ' • यथाख्यातचारित्र है। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी प्रकार संवरपूर्वक निर्जरा होते होते, जब सब कोंका क्षय हो जाता है और केवल आत्माका शुद्ध स्वरूप रह जाता है, तभी वह आत्मा ऊर्ध्वगमनस्वभाव होनेसे तीनों लोकोके ऊपर जा विराजमान होता है और इसीका नाम मोक्ष है। __ पदार्थ । ___ इन्हीं सात तत्त्वोमे पुण्य और पाप मिलानेसे ९ पदार्थ कहलाते हैं। पुण्य । पुण्य उसे कहते हैं जिसके उदयसे जीवोंको इष्ट वस्तु सुख सामग्री वगैरह मिले । जैसे किसी आदमीको व्यापारमें खूब लाभ हुआ, घरमें एक पुत्र भी पैदा हुआ और पढ़ लिखकर उच्चपदंपर नियत हुआ, ये सब पुण्यके उदयसे समझना चाहिए। पाप। पाप उसे कहते हैं कि जिसके उदयसे जीवोको दुःख देनेवाली चीजे मिले । जैसे कोई रोग हो गया अथवा पुत्र मर गया अथवा धन चोरी चला गया, ये सब पापके उदयसे समझना चाहिये। विद्या और जातिकी बढ़वारी करना, परोपकार करना, धर्मका पालन करना ऐसे कामोसे पुण्यका बंध होता है और जूआ खेलना, झूठ बोलना, चोरी करना, दूसरेका कुरा विचारना ऐसे बुरे कामोसे पापका बंध होता है । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२) प्रश्नावली। १ प्राण कितने होते हैं ? जीवमें ही होते हैं या अजीव में भी ? देव, पचेन्द्रिय, असैनी, तिर्यंच, वृक्ष, नारकी, स्त्री, मक्खी और चींटीके कौन कौन प्राण हैं ? २ प्राण रहित पदार्थोंके कितने मेद है नाम सहित बताओ? ३ भावात्रव, द्रव्यास्रव तथा भावनिर्जरा, द्रव्य निर्जराम, क्या भेद है, उदाहरण देकर बताओ तथा यह भी बताओ कि जहाँ भावास्रव होता है, वहाँ द्रव्यास्रव होता है या नहीं ? ४ बंध किसे कहते हैं ? इसके कौन कौन कारण हैं ? और ऐसे कौन कौन कारण हैं जिनसे बन्ध नहीं होता ? ५ निर्जरा और मोक्षमें क्या फरक है ? पहले निर्जरा होती है या मोक्ष ? ६ मिथ्यात्व, योग, गुप्ति, आदाननिक्षेपणसमिति, अनुप्रेक्षा, चारित्र, अदर्शनपरीषहजय, लोकभावना, संशयमिथ्यात्वसे क्या समझते हो? ७ बताओ इन साधुओंने कौन परीषह सहन की ? (क) एक तपस्वी गर्मी के दिनोंमें दोपहरके समय एक पहाड़पर ध्यान लगाये बैठे हैं । प्याससे गला सूख गया है, ढाई घटे हो गये हैं, बराबर एक ही आसनसे बैठे हैं। (ख) सुकुमालका आधा शरीर गीदडने खा लिया। (ग) एक मुनि महाराजको एक दुष्ट राजाने पकड़वाकर कैदमें डलवा दिया, वहॉपर एक सॉपने उन्हें काट खाया। (घ) जिस समय रामचन्द्रजी ध्यानारूढ थे, सीताके जीवने स्वर्गसे आकर अपने अनेक हाव भावसे उनको मोहित करनेकी बहुत कुछ कोशिश की, मगर वे अपने ध्यानसे विचलित न हुए। (ड) एक साधु धर्मोपदेश दे रहे थे। कुछ शराबियोंने आकर उनको गालियाँ दी और उनपर पत्थर बरसाये। (च) राजा श्रेणिकने एक मुनिके गलेमें मरा हुआ साँप डाल दिया था जिसके सम्बन्धसे बहुतसे कीड़े मकोड़े उनके शरीरपर चढ गये। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३ ) (छ) एक तपस्वीको खुजलीका रोग हो गया जिससे तमाम शरीरमें बढ़े बड़े जखम ( फोड़े ) हो गये, परन्तु उन्होंने किसी से दवा नहीं मॉगी । ८ निम्न लिखित प्रश्नोंके उत्तर दो: (क) जीवनतत्त्व और तत्त्वोंसे क्या सम्बन्ध है और कब तक है ? ( ख ) क्या कभी ऐसी हालत हो सकती है कि जब आस्रव और बध बिलकुल न हों, केवल निर्जरा ही हो । ( ग ) बध जो कहने में आता है, सो किस चीजका होता है ? (घ) सवरभावना में क्या चितवन किया जाता है ? (ड) यथाख्यात चारित्रके आस्रव और वध होते हैं या नहीं ? (च) पहले आस्रव होता है या वध १ (छ) परीषह कौन सहन कर सकते हैं और एक समय में एक ही परीषह सहन होती है या ज्यादह भी १ ९ पुण्य पाप किसे कहते हैं और कैसे कैसे काम करनेसे वे होते हैं ? १० निम्नलिखित कामोंसे पुण्य होगा या पाप ? क) एक मनुष्यने एक शहरमें जहाँ १० मंदिर थे और उनमेंसे दो तीन खडहर हो गये थे और तीन में पूजा प्रक्षालनका भी कोई प्रबन्ध न था, वहाँ अपना नाम करने के लिए ग्यारहवाँ मन्दिर बनवा दिया, पूजनके लिए चार रुपये महीनेका पुजारी नौकर रख दिया। (ख) एक सेठ हरेरोज बड़े नम्र भावोंसे दर्शन, पूजन, सामायिक स्वाध्याय करते हैं । ( ग ) एक चनीने एक दूरके गावके टूटे फूटे मंदिरको ठीक कराया और किसीको भी यह जाहिर न किया कि हमने इतना रुपया वहाँ लगाया है । (घ) एक जैनीने पूरे ६०००) रुपयों में अपनी बेटीको देवपर स्थ चलाया और सिंघई पदवी प्राप्त की । (7) विचारखर रिमप्त ( घूँस ) लेना कि वो धर्मके कामों में लगायँगे । (च) एक पडितमहाशय किसी बात को न समझ सके. उन्होने यह नहीं कहा कि मैं इसे नहीं समझता है किन्तु उल्टी तराने समझा दिया । (छ) एक विद्यार्थीने पुस्तक लिए अपने माता मिलने कुछ दान Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) मॉगे, परन्तु उन्होंने देनेसे इन्कार किया, विद्यार्थीने दूकानमेसे पैसे चुराकर पुस्तकें मोल ले ली। (ज) पाठशालाएँ खुलवानेमे, भट्टारक बनकर धर्म गान कुछ भी न करके मजेसे चैन उड़ानेसे, ऐसे भट्टारकोंकी वयावृत्ति करनेने धर्मके लिए झुठ बोलनेसे, बालबच्चोंको न पढानेसे, अनाथालय ओपधालय खुलवानेसे हिंसक मनुष्यों के साथ सम्बन्ध रखनेसे, निर्धन माइयोंकी सहायता करनेसे, पेटके लिये भीख माँगनेसे, विद्या उपार्जन करने के लिये अन्य देशोंमें जानेसे, झूठी हॉ में हाँ मिलानेसे, विद्यार्थियोको वजीफे देकर पढनेमे, जबान भाई बंधुओंके मरनेपर उधार लेकर भाइयोंको लड्डू खिलानेसे, बच्चाकी छोटी उम्रमें शादी करनेसे, धर्मादेके रुपयोंको व्यर्थ खर्च करनेमें, बेटीपर रुपया लेकर अयोग्य वर व्याहनेसे, मासाहारियोंमें दयाधर्मकी पुस्तकें बॉटनेसे, स्त्रियोंको पढानेसे। दसवाँ पाठ। कर्मोकी उत्तरप्रकृतियाँ । ____ कर्मकी मूल प्रकृतियाँ ८ हैं और उत्तरप्रकृतियाँ १४८ हैं । ज्ञानावरणकी ५, दर्शनावरणकी ९, वेदनीयकी २, मोहनीयकी २८, आयुकी ४, नामकी ९३, गोत्रकी २ और अंतरायकी ५। ___ ज्ञानावरणकर्म-मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण ये पाँच ज्ञानावरणकर्मके भेद अथवा प्रकृतियाँ हैं । १ इन्द्रियों तथा मनसे जो कुछ जाना जाता है उसे मतिज्ञान कहते हैं । २ मतिनानसे जानी हुई वस्तुके सम्बन्धसे अन्य बातको जानना श्रुतजान _है। ये दोनों जान चाहे ज्यादह चाहे कम हरएक जीवके होते हैं । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५) १ मंतिज्ञानावरण उसे कहते हैं जो मतिज्ञानको न होने दे अथवा मतिज्ञानका आवरण या घात करे । २ श्रतज्ञानावरण उसे कहते हैं जो श्रतज्ञानका घात करे। ३ अवधिज्ञानावरण उसे कहते हैं जो अवधिज्ञानका घात करे। ४ मन:पर्ययज्ञानावरण उसे कहते हैं जो मनःपर्ययज्ञानका घात करे। ५ केवलज्ञानावरण उसे कहते हैं जो केवलज्ञानका घात करे । दर्शनावरणकर्म-चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधि दर्शनावरण, केवलदर्शनावरण, निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलामचला, और स्त्यानगृद्धि, ये ९ दर्शनावरणकर्मकी प्रकृतियाँ हैं। चक्षुदर्शनावरण उसे कहते हैं जो चक्षुदर्शन ( आँखोंसे देखना ) न होने दे। अचक्षुदर्शनावरण उसे कहते हैं जो अक्षुदर्शन न होने दे। अवधिदर्शनावरण उसे कहते हैं जो अवधिदर्शन न होने दे। १ बिना इन्द्रियोंकी सहायताके आत्मिक-गत्तिने रूपी पदायोंके जानने अवधिशान कहते हैं, यह पचेन्द्रिय सजी जीवफे ही होता है। २ पिना इन्द्रियों की सहायताले दूसरेफे मनदी बात जान नेतो मनापर्यवसान पहते है। यह गान मुनिले ही हो सकता है।३ लोप अहोरवी, भविष्यत् और वर्तमान कालपी सब वस्तुओंगे और उनफे र गुण पर्यायो (हल) को एक साथ जाननेको पेयलमान कहते है। केदरनारीचे, गनने कोई पर बची नहीं रहती। ४ ऑलप विाय बाई इन्द्रियों रक्षा में रिस परशुषी सत्तामार(मौन्दगी) को देना। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६) केवलदर्शनावरण उसे कहते हैं जो केवदर्शन न होने दे। निद्रा उसे कहते हैं जिसके उदयसे नींद आवे । निद्रानिद्रा उसे कहते हैं जिसके उदयसे पूरी नींद लेकर भी फिर सोवे । प्रचला उसे कहते जिसके उदयसे बैठे ही सो जाय अर्थात् सोता भी रहे और कुछ जागता भी रहे। प्रचलाप्रचला उसे कहते हैं जिसके उदयसे सोते हए मुखसे लार वहने लगे और कुछ आंगोपांग भी चलते रहे। स्त्यानगृद्धि उसे कहते हैं जिसके उदयसे नींदमे ही अपनी शक्तिसे बाहर कोई काम कर ले और जागनेपर मालूम भी न हो कि मैंने क्या किया है। वेदनीयकर्म-सातावेदनीय और असातावेदनीय, ये दो वेदनीयकर्मके भेद हैं । इनके दूसरे नाम सवेद और असद्वेद हैं। सातावेदनीय उसे कहते हैं कि जिसके उदयसे इंद्रियजन्य सुख हो । असातावेदनीय उसे कहते हैं जिसके उदयसे दुःख हो । मोहनीयकर्म-मोहनीयकर्मके मूल दो भेद हैं । १ दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय । दर्शनमोहनीय उसे कहते हैं जो आत्माके सम्यग्दर्शन गुणका घात करे। चारित्रमोहनीय उसे कहते हैं जो आत्माके चारित्र गुणका घात करे। १ तत्त्वोंके सच्चे श्रद्धान याने विश्वास-यकीन करनेको सम्यग्दर्शन कहते हैं। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७) दर्शनमोहनयिके ३ भेद हैं:-मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृति । मिथ्यात्व उसे कहते हैं जिसके उदयसे जीवके यथार्थ तत्त्वोंका श्रद्धान न हो। सम्यग्मिथ्यात्व उसे कहते हैं जिसके उदयसे मिले हुए परिणाम हो जिनको न तो सम्यक्त्वरूप ही कह सकते हैं और न मिथ्यात्वरूप । ___ सम्यक्प्रकृति उसे कहते हैं जिसके उदयसे यथार्थ तत्त्वोका श्रद्धान चलायमान या मलिनरूप हो जाय । चारित्रमोहनयिके २ भेद हैं:-कपाय और नोकपाय । कपायमोहनयिक १६ भेद हैं-अनंतानुवंधी क्रोध, अनंतानुबंधी मान, अनंतानुबंधी माया, अनंतानुवंधी लोभ; अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, अप्रत्याख्यानावरण मान, अप्रत्याख्यानावरण माया, अप्रत्याख्यानावरण लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध, प्रत्याख्यानावरण मान, प्रत्याख्यानावरण माया, प्रत्याख्यानावरण लाभ; संज्वलन क्रोध, संज्वलन मान, संज्वलन माया, संज्वलन लोभ । अनंतानुवन्धी नकोध, मान, माया. लोभ, उन्हें कहते हैं जो आत्माके सम्यग्दर्गन गुणका घात करे । जबतक ये कपाय रहती हैं सम्यग्दर्शन नहीं होता। अप्रत्याख्यानावरण गांध, मान, माया, लोभ. उन्हे बहन जो आत्माके देशचारित्रको घाते रथाद जिनके उदयन पावकके १२ व्रत पालन करनेके परिणाम न हो। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ उन्हे कहते हैं __ जो आत्माके सकलचारित्रको घाते अर्थात् जिनके उदयसे मुनियोंके व्रतपालन करनेके परिणाम न हो। ___ संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ उन्हें कहते हैं जो आत्माके यथाख्यातचारित्रको घाते अर्थात् जिनके उदयसे चारित्रकी पूर्णता न हो। नोकषाय (किंचित्कषाय ) के ९ भेद हैं:--हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवेद, नपुंसकवेद । हास्य उसे कहते हैं जिसके उदयसे हँसी आवे | रति उसे कहते हैं जिसके उदयसे प्रीति हो । अरति उसे कहते हैं जिसके उदयसे अप्रीति हो । शोक उसे कहते हैं जिसके उदयसे संताप हो । भय उसे कहते हैं जिसके उदयसे डर लगे । जुगुप्सा उसे कहते हैं जिसके उदयसे ग्लानि उत्पन्न हो । स्त्रीवेद उसे करते हैं जिसके उदयसे जीवके पुरुषसे रमनेके भाव हों। पुंवेद उसे कहते हैं जिसके उदयसे स्त्रीसे रमनेके भाव नपुंसकवेद उसे हैं जिसके उदयसे स्त्री पुरुष दोनोंसे रमनेके परिणाम हों। __इस प्रकार १६ कपाय, ९ नोकषाय, ये २५ चारित्रमोहनीयकी और ३ दर्शनमोहनीयकी कुल मिलाकर २८ मोहनी यकर्मकी प्रकृतियाँ हैं। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५९) आयुकर्म:-आयुकर्मके चार भेद हैं:-नरकआयु, तिर्यंच आयु, मनुष्यआयु, देवआयु ।। नरकआयु उसे कहते हैं जो जीवको नारकीके शरीरमे रोक रक्खे। तिर्यचआयु उसे कहते हैं जो जीवको तिर्यचके शरीरमें रोक रक्खे । __ मनुष्यआयु उसे कहते हैं जो जीवको मनुष्यके शरीरये रोक रक्खे । देवआयु उसे कहते हैं जो जीवको देवके शरीरमे रोक रक्खे । नामकर्म--इस कर्मकी ९३ प्रकृतियाँ हैं: ४ गति ( नरक, तिर्यच मनुष्य, देव )-इस गति नामकर्मके उदयसे जीवका आकार नरक, तियेच, मनुष्य और देवके समान बनता है। ५ जाति-एकइंद्रिय, दोयइन्द्रिय, तीनइंद्रिय, चारइंद्रिय, पॉचइंद्रिय,—इस जातिनामकर्मके उदयसे जीव एकइंद्रिय आदि शरीरको धारण करता है। शरीर ज (औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तेजस, कार्माण) -इस शरीरनामकर्मके उदयसे जीव औदारिक आदि गरीरको धारण करता है। ___ * औदारिप शरीर पूल दारीरको करते हैं. पर हर भाप निको फे होता है । वैशियपारीर देव, नारी और किती रित डिया भी रोता है। इस शरीरपा धारी अपने मगरको जितना चारपटारा Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) ३ आंगोपांग ( औदारिक, वैक्रियक, आहारक, )—इस नाम कर्मके उदयसे हाथ, पैर, सिर, पीठ वगैरह अंग और ललाट, नासिका वगैरह उपांगका भेद प्रगट होता है । ४ निर्माण *-इस नाम कर्मके उदयसे आंगोपांगकी ठीक ठीक रचना होती है। ५ बंधन (औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस, कार्माण )---इस नाम कर्मके उदयसे औदारिक आदि शरीरोके परमाणु आपसमें मिल जाते हैं । ६ संघात ( औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस कार्माण )-इस नाम कर्मके उदयसे औदारिक आदि शरीरोके परमाणु विना छिद्रके एकरूपमें मिल जाते हैं। ७ संस्थान ( समचतुरस्रसंस्थान, न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थान स्वातिसंस्थान, कुब्जकसंस्थान, वामनसंस्थान सकता है, और अनेक प्रकारके रूप धारण कर सकता है। आहारकशरीर छटे गुणस्थानवर्ती उत्तम मुनिके होता है । जिस समय मुनिको कोई शंका होती हैं, उस समय उनके मस्तकसे एक हाथका पुरुषके आकारका सफेद रगका पुतला निकलता है और वह केवली या श्रुतकेवली के पास जाता है; पास जाते ही मुनिकी शंका दूर हो जाती है, और पुतला वापस आकर मुनिके शरीर में प्रवेश हो जाता है, यही आहारकगरीर कहलाता है। तैजसगरीर वह है जिसके उदयसे शरीरमें तेज बना रहता है । कर्माणगरीर कर्मोंके पिंडको कहते हैं । तैजस, कार्माण ये दोनों शरीर हरएक संसारी नीवके हैं। ___* निर्माणनामकर्मके २ भेद हैं:-१ स्थान निर्माण, प्रमाणनिर्माण । स्थाननिर्माणनामकर्मसे अगोपागकी रचना ठीक ठीक स्थानपर होती है और प्रमाण निर्माणनामकर्मसे अगोपागकी रचना ठीक ठीक नामसे । ती है, उस निकलता हो जाती कशरीर करणार Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६१) हुंडकसंस्थान )—इस नामकर्मके उदयसे शरीरकी आकृति यानी शकल सूरत वनती है। समचतुरस्रसंस्थान नामकर्मके उदयसे शरीरकी आकृति ऊपर नीचे तथा वीचमे ठीक बनती है। न्यग्रोधपरिमंडलनामकर्मके उदयसे जीवका शरीर बड़के पेड़की तरह होता है अर्थात् नाभिसे नीचेके भाग छोटे और ऊपरके बड़े होते हैं। स्वातिसंस्थाननामकर्मके उदयसे शरीरकी शकल पहलेसे विलकुल उलटी होती है यानी नाभिसे नीचे अंग बड़े और ऊपरसे छोटे होते हैं। कुब्जकसंस्थाननामकर्मके उदयले शरीर कुवड़ा होता है। वामनसंस्थाननामकर्मके उदयसे शरीर वौना होता है। हुंडकसंस्थाननामकर्मके उदयसे शरीरके अंगोपांग किसी खास शकलके नहीं होते हैं । कोई छोटा कोई बड़ा, कोई कम, कोई ज्यादह होता है । ६ संहनन ( वजर्पभनाराचसंहनन, वज्रनाराचसंहनन, नाराचसंहनन, अर्द्धनाराचसंहनन, कीलकसंहनन, असंप्राप्तासपाटिकासंहनन )--- इस नामकर्मके उदयसे हाडोका बन्धन विशेप होता है। वजर्पभनाराचसंहनन नामकर्मके उदयसे वजके हाड़ वज्रके बेठन और वजकी कीलियाँ होती है। वजनाराचसंहननामकर्मक उदयसे वजके डाढ़ वजकी कीली होती है, परन्तु येठन वजो नहीं होते है। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२ ) नाराचसंहनननामकर्मके उदयसे हड्डियोम नेटन और कीले लगी होती हैं । अर्द्धनाराचसंहनननामकर्मके उदयसे हड्डियोकी संधियाँ आधी कीलीत होती हैं, यानी एक तरफ तो कलि लगी होती हैं परन्तु दूसरी तरफ नहीं होती । कीलकसंहनननामकर्मके उदयसे हड्डियोकी सॅधियॉ कीलोसे मिली होती हैं । + असंप्राप्तासृपाटिकासंहनननामकर्मके उदयसे जुदी जुदी हड्डियाँ नसोसे बॅधी होती हैं, उनमे कीले नहीं लगी होती हैं । ८ स्पर्श ( कड़ा, नर्म हलका, भारी, ठंडा, गरम, चिकना, रूखा ) -- इस नामकर्मके उदयसे शरीर में कड़ा, नर्म, हलका भारी वगैरह स्पर्श होता है । ५ रस (खट्टा, मीठा, कड़वा, कषायला, चर्परा ) इस नामकर्मके उदयसे शरीर मे खट्टा मीठा वगैरह रस होते हैं । २ गंध ( सुगंध दुर्गंध ) - इस नामकर्मके उदयसे शरीर मे सुगंध या दुर्गंध होती हैं । ५ वर्ण (काला, पीला, नीला, लाल, सफेद ) – इस नामकर्मके उदयसे शरीरमे काला, पीला, वगैरह रंग होते हैं । ४ आनुपूर्व्य, (नरक, तिर्यच, मनुष्य, देव ) – इस नाम - कर्मके उदयसे विग्रहगतिमे यानी मरनेके पीछे और जन्मसे पहले रास्ते में मरने से पहले के शरीर के आकार के आत्माके प्रदेश रहते हैं । १ अगुरुलघु —- इस नामकर्मके उदयसे शरीर न तो ऐसा Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३ ) भारी होता है जो नीचे गिर जावे, और न ऐसा हलका होता है जो आककी रुईकी तरह उड़ जावे । १ उपघात - इस नामकर्मके उदयसे ऐसे अंग होते हैं जिनसे अपना घात हो । १ परघात —— इस नामकर्मके उदयसे दूसरेका घात करनेवाळे अंगोपांग होते हैं । १ आताप - इस नामकर्मके उदयसे आतापरूप शरीर होता है । १ उद्योत - इस नामकर्मके उदयसे उद्योतरूप शरीर होता है । १ विहायोगति ( शुभ अशुभ ) - इस नामकर्मके उदयसे जीव आकाशमें गमन करता है । १ उच्छ्वास – इस नामकर्मके उदयसे जीव श्वास और उच्छ्वास लेता है । १ स - इस नामकर्मके उदयसे दो इंद्रिय आदि जीवोंमें जन्म होता है अर्थात् दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय, अथवा पाँच इंद्रिय होता है । स्थावर - इस नामकर्मके उदयसे पृथिवी, जल, अग्नि, वायु अथवा वनस्पतिमे अर्थात् एक इंद्रियमें जन्म होता है । १ वादर - यह वह नामकर्म है जिसके उदयसे दूसरेको रोकनेवाला और स्वयं दूसरेसे रुकनेवाला शरीर होता है । सूक्ष्म - यह वह नामकर्म है जिसके उदयसे ऐसा बारीक शरीर होता है जो न तो किसीसे रुक्ता और न किसी L Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४) रोकता है। लोहे, मिट्टी, पत्थरके बीचमेसे होकर निकल जाता है। पर्याप्ति-यह वह नामकर्म है जिसके उदयसे अपने योग्य अपने आहार, शरीर, इंद्रिय श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन इन पर्याप्तियोंकी पूर्णता हो । ___ अपर्याप्ति-यह वह नामकर्म है जिसके उदयसे एक भी पर्याप्ति न हो। १ प्रत्येक-इस नामकर्मके उदयसे एक शरीरके स्वामी एक ही जीव होता है। १ साधारण-इस नामकर्मके उदयसे एक शरीरके स्वामी अनेक जीव होते हैं। १ स्थिर-इस नामकर्मके उदयसे एक शरीरके धातु और उपधातु अपने अपने ठिकाने रहते हैं। १ अस्थिर-इस नामकर्मके उदयसे शरीरके धातु और उपधातु अपने ठिकाने नहीं रहते हैं। १ शुभ-इस नामकर्मके उदयसे शरीरके अवयव (हिस्से) सुंदर होते हैं। १ एकेंद्रिय जीवके भाषा और मनके बिना ५ पर्याप्ति होती हैं । द्विइन्द्रिय त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असैनी पंचेन्द्रिय लीवके मनके बिना ५ पर्याप्ति होती है । सैनी पचेन्द्रिय जीवके छहों पर्याप्ति होती हैं। ___ २ अनंत निगोदिया जीवोंका एक ही शरीर होता है और उन सबका जन्म और मरण स्वास वगैरह लेना सब क्रियाएँ एक साथ होती है। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६५) १ अशुभ-इस नामकर्मके उदयसे शरीरके अवयव (हिस्से ) भद्दे होते हैं। १ सुभग-इस नामकर्मके उदयसे दूसरे जीवोंको अपनेसे मीति होती है। १ दुर्भग—इस नामकर्मके उदयसे दूसरे जीव अपनेसे अभीति वा वैर करते हैं। १ सुस्वर- इस नामकर्मके उदयसे स्वर अच्छा होता है। १ दुःस्वर-इस नामकर्मके उदयसे स्वर अच्छा नहीं होता है। १ आदेय-इस नामकर्मके उदयसे शरीरपर प्रभा और कांति होती है। १ अनादेय-इस नामकर्मके उदयसे शरिपर प्रभा और कांति नहीं होती है। १ यशःकीर्ति-इस नामकर्मकं उदयसे जीवकी संसारमें प्रशंसा और कीर्ति ( नामवरी ) होती है । १ अयशाकीर्ति-इस नामकर्मके उदयसे जीवकी कीर्ति नहीं होने पाती है। १ तीर्थकर-इस नामकर्मके उदयसे जीवको अरहंत पट मिलता है अर्थात् वह तीर्थकर होता है। गोम धर्म। गोत्र फर्मके २ भेद:-१ गोत्र २ नाचगांत्र । उच्च गोर उसे कहने । जिन उदय जीव टोरमान्य ऊँचे फुलमें पैदा रो। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६) नीच गोत्र उसे कहते हैं जिसके उदयसे जीव लोकनिंदित अर्थात् नीच कुलमें पैदा हो । अन्तराय कर्म। __ अन्तराय कर्मके ५ भेद हैं:-१ दानअंतराय, २ लामअंतराय, ३ भोगअंतराय, ४ उपभोगअंतराय, ५ वीर्यअंतराय । दानअंतरायकर्म उसे कहते हैं जिसके उदयसे यह जीव दान न दे सके। लाभअंतरायकर्म उसे कहते हैं जिसके उदयसे लाभ न हो सके। ___ भोगअंतरायकर्म उसे कहते हैं जिसके उदयसे अच्छे पदार्थोंका भोग न कर सके । उपभोगअंतरायकर्म उसे कहते हैं जिसके उदयसे जेवर कपड़ों वगैरह चीजोंका उपभोग न करे । वीर्यअंतरायकर्म उसे कहते हैं जिसके उदयसे शरीरमें सामर्थ्य यानी बल और ताकत न हो। प्रश्नावली। १ कर्म किसे कहते हैं ? कर्मकी मूल और उत्तरप्रकृतियाँ कितनी हैं ? २ सबसे ज्यादह प्रकृतियाँ किस कर्मकी हैं ? और सबसे कम किसकी ? ३ अवधिज्ञान, अचक्षुदर्शन, सम्यग्दर्शन, संहनन, संस्थान, अगुरुलघु, आहारकशरीर, जुगुप्सा, सम्यक्प्रकृति, प्रचलाप्रचला, विग्रहगति, मतिनान, नोकपाय, अनूपूर्व्य, साधारण, अनादेय, इनसे क्या समझते हो ? ४ सुभग, अस्थिर, नाराचसंहनन, स्वातिसंस्थान, वीर्यअन्तराय, तीर्थकर, अप्रत्याख्यानकषाय, स्त्यानगृद्धि, इन कर्मप्रकृतियोंके उदयसे क्या होता है ! Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७ ) ५ संस्थान और संहनन किस किसके होते हैं ? नीचे लिखे हुओंके संस्थान, संहनन है या नहीं ? अगर है तो कौन कौनसे ? देव, कुबड़ा, मनुष्य, स्त्री, राममूर्ति, मच्छी, शेर, सॉप, नारकी, मक्खी । ६ ऐसे कर्म बतलाओ जिनकी प्रकृतियोंपर ६ का भाग पूरा पूरा चला जाय ? ७ नामकर्म की ऐसी प्रकृतियाँ बताओ जो एक दूसरेसे उलटी है ? ८ निम्न लिखित प्रकृतियोंका उदय किन किनके होता है ? समचतुरस्रसंस्थान, अपर्याप्त | ९ नीचे लिखे हुए प्रश्नों के उत्तर दो -- ( क ) तुम पचेन्द्रिय यों हुए ? ( स ) लोगोंको नींद क्यों आती है ? ( ग ) हमको अवधिज्ञान क्यों नहीं होता १ (घ) सम्यग्दर्शन कबतक नहीं होता ? ( उ ) सब मनुष्य कुबड़े और बौने क्यों नहीं होते ? (च) एम आकाशमें क्यों नहीं चल फिर सकते ? (छ) देव अपना शरीर छोटा बड़ा कैसे पर सकते हैं ? ( ज ) दमको तमाम चीजें क्यों नहीं दिखलाई देतीं ( स ) एम एर जगह पथों नहीं जा सकते २० बताओ एनके किस किस पप्रकृतिका उदय है ! (क) सोहन पटते पटते सो जाता है। ( स ) जयदेवी बड़ी ! (ग) गोविंद बारा गूँगा और अन्धा है। (घ) राममूर्ति यदा भोटा वा पहचान है। ( उ ) राम सदा रोगी रहता है। रते हैं। (च) मोहन सद () देवदत्त पर भी एल. बाप है। (ज) बाद भी परदे है। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८) (झ) देवी कुबड़ी है उसका भाई बौना है। (ञ) देव आकाशमे गमन करते हैं । ट) गुलाब बहुत अच्छा गाता है, उसका स्वर अच्छा है। ठ) गोपाल बड़ा भारी पडित है हर जगह लोग उसकी तारीफ करते हैं। (ड) हरी बहुत हँसता है, पर उसकी बहन बहुत रोती है। (ढ) मेरे अगोपाग सब ठीक हैं । (ण) गंगारामका सर लम्बोतरा, नाक चपटी और ऑखे अदरको दवी हुई हैं। (त) लाल अपने भाई पालको बहुत प्यार करता है । STARTrumIIIIIIIIIIII) pawan TIRS समाप्त TraEATORS Page #143 -------------------------------------------------------------------------- Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwwwwwwwwwww वालकोपयोगी पुस्तकें १ बालबोध जैन धर्म पहला भाग .... .... २ वालवोध जैन धर्म दूसरा भाग .... .... ८) ३ वालबोध जैन धर्म तीसरा भाग .... .... )|| १ वालवोध जैन धर्म चौथा भाग .... .... ) है ५ रत्नकरण्डश्रावकाचार-पं० पन्नालालजी बाकलीवाल है है कृत अन्वय, अर्थ और भावार्थ सहित .... .... ) ६ द्रव्यसंग्रह-अन्वय, अर्थ और भावार्थ सहित ) ७ जैनसिद्धान्तप्रवेशिका-स्याद्वादवारिधि पं० गोपाल- है दासजी बरैया रचित | जैनसिद्धान्तमें प्रवेश करनेवालोंके लिये यह पुस्तक बड़ी उपयोगी है। ८ मोक्षशास्त्र-अर्थात् तत्वार्थसूत्रकी पं० पन्नालालजी है है वाकलीवालकृत बालबोधिनी सरस हिन्दीभापाटीका .... ॥) है ९ आदिनाथस्तोत्र-~-अर्थात् भक्तामरस्तोत्रका पं० है है नाथूरामजी प्रेमीकृत सरल हिन्दी पद्यानुवाद और अन्वयार्थ ।।) है १० जैनशतक-पं० भूधरदासजीकृत बड़े ही सार गर्भित है ६ १०७ कवित्त, सवैया दोहा आदिका संग्रह .... ) ११ च शतक-६० थानतरायजीने इसमें त्रैलोक्यसार है है और गोमट्टसार अदिका सार सबैया कवित्त छप्पय आदिमें वर्णन किया है। उसकी सरल हिन्दी टीका पं० नाथूरामजी कृत है ११) मिलनेका पता:मैनेजर-जैन-ग्रन्थ-रत्नाकर कार्यालय हिराबाग, पो० गिरगांव-बम्बई । wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwws mmammmmwammmmmmmmmmmmmmmmmmmmwwwwwwwwwwwwwwammamiwwwwwwwwwwwww Page #145 -------------------------------------------------------------------------- _