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________________ दूसरा भाग । [ ५ एकत्व - आप अकेला अवेतरै, मरे अकेला होय । यों कहूं या जीवको, साथी सगा न कोय ॥ ४ ॥ अन्यत्व - जहां देह अपनी नहीं, तहां न अपना कोय | घर संपत्ति पर प्रकट ये, पर हैं परिजन लोय ॥ ५ ॥ अशुचि - दिपैं चाम चादर मढ़ी, हाडपींजरा देह | भीतर या सर्वे जगतमें, और नही घिनगे ॥ ६ ॥ सोरठा । आश्रव आव — मोह नीद के जोर, जगवामी घूमै सदा । - कर्म चोर चहुं ओर, सरबस लूटें सुधि नहीं ॥ ७ ॥ संवर -- सतगुरु देय जगाय, मोहनीद जब उपशमै । तब कुछ वनै उपाय, कर्म चोर आवत रुकें ॥ ८ ॥ निर्जरा -- ज्ञानदीपे तप तेलभर, वर शोधै TO भ्रम छोर । या विधिनि निक्से नहीं, पैठे पूर्खे चोर ॥ ९ पंच महाव्रत संचरने, ममिति पंच परकार | प्रबल पंच इन्द्रिय विजये, धार निर्जरा मार ॥१०॥ म देता है, २ धनादिक, ३- कुमके लोग, ४- चनक्ती है, ५-६ दिनावनी, ७-१२ कृत १- अर्थ दे, <fixdle) and mal ! ९प्रानी दीपक, १२ - पालना १३ ८हुए कर्म,
SR No.010158
Book TitleBalbodh Jain Dharm Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachand Goyaliya
PublisherDaya Sudhakar Karyalaya
Publication Year
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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