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दूसरा भाग।
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तुमको विन जाने जो कलेश, पाये सो तुम जानत जिनेश । पशु नारकनरसुर-गति मंझार, भव धरि घरि मरयो अनंतबार ॥११॥
अब काललब्धि वलत दयाल, तुम दर्शन पाय भयो खुशाल । मन शांत भयो मिट्यो सकलद्वंद, चाख्यो स्वातमरस दुख निकंद।।१२ तातें अब ऐसी करहु नाथ, विछुरै न कभी तुम चरण साथ । तुम गुणगणको नहिं छे। देव । जगतारनको तुम विरद एव ॥१३॥ आतमके अहित विपय कपाय, इनमें मेरी परिणति न जाय । मै रहू आपमें आप लीन, सो करो होहुँ ज्यो निजाधीन ॥१४॥ मेरे न चाह कुछ और ईश, रत्नत्रय निधि दीजे मुनीश मुझ कागजके कारन सु आप, शिव करहु हरहु मम मोहताप ॥१५ शशि शांतकग्न तपहरनहेत, स्वयमेव तथा तुम कुशल देत । पीयत पियूप ज्यो रोग जाय, त्यो तुम अनुभवत भव नमाय ॥१६ त्रिभुवन तिहुकाल मझार कोय, नहिं तुम बिन निज सुखदायहोय । मो उर यह निश्चय भयो आज,दुख जलधि उतारन तुम जहाज॥१७
दोहा ।
तुम गुण गण मणि गणपती, गणत न पाहि पार । • दौल 'स्वल्पमति किम कहैं. नम, त्रियोग नमार ॥ १८ ॥
१- । २-पदान, सम्पान, सम्पर चरित्र । ३-चन्द्रमा । - ५ - म मरोग, चना , पारे ।