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इह भाँति धूप चढ़ायनित, भव-ज्वलनमांहि नहीं पचूँ । अरहंत श्रुत सिद्धांत गुरु, निरग्रंथ नित पूजा रचूँ ॥७॥
दोहा। अग्निमाहिं परिमल दहन, चन्दनादि गुणलीन । “जासो पूजों परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥७॥
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो अष्टकर्मविध्वसनाय धूप नि० स्वाहा । लोचन सुरसना घ्राण उर, उत्साहके करतार हैं। . मोपै न उपमा जाय वरनी, सकल फल गुणसार हैं। सो फल चदावत अर्थपूरन, सकल अमृतरस सचू । अरहंत श्रुत सिद्धांत गुरु, निरग्रंथ नित पूजा रचूँ ॥८॥
दोहा। जे प्रधान फल फलवि, पंचकरणरसलीन । जासो पूजों परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥९॥
ॐ हीं देवशास्त्रगुरुभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फल नि० स्वाहा । जल परम उज्जल गंध अक्षत पुष्प चरु दीपक धरूँ।
वर धूप निर्मल फल विविध, बहु जनमके पातक हरूँ। इह भाँति अर्घ चढ़ाय नित, भव करत शिवपंकति मंचू । अरहंत श्रुत सिद्धांत गुरु, निरग्रंथ नित पूजा रचूँ ॥१७॥
दोहा। वसविधि अर्घ संजोयकै, अति उछाह मन कीन । जासों पूजों परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥९॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि० स्वाहा । १ नेत्र । २ पाँचों इद्रियाँ। ३ चावल । ४ नैवेद्य । ५ पाप | ६ रचूँ । ७ उत्साह ।