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________________ ( १० ) दूसरा पाठ | पंचपरमेष्ठी के मूलगुण । परमेष्ठी उसे कहते हैं, जो परमपदमें स्थित हो । ये पॉच होते हैं: - १ अरहंत, २ सिद्ध, ३ आचार्य, ४ उपाध्याय और ५ सर्वसाधु | अरहंत उन्हे कहते हैं, जिनके ज्ञानवरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय ये चार घातियाकर्म नाश हो गए हो । और जिनमें निम्ननिखित ४६ गुण हो और १८ टोप न हो । दोहा | चवतीसो अतिशयं सहित, प्रातिहार्य पुनि आठ । अनंत चतुष्टय गुण सहित, छीयालीलो पाठ ॥ अर्थात् ३४ अतिशय, ८ प्रातिहार्य, और ४ अनंतचतुष्टय ये ४६ गुण हैं । ३४ अतिशयोमे से १० अतिशय जन्मके होते हैं, १९ केवलज्ञानके हैं और १४ देवकृत होते हैं । जन्मके दश अतिशय । r अतिशय रूप सुगंध तन, नाहि पैसेव निहार । प्रियहितवचन अतुल्यवर्ले, रुधिर श्वेत आकार || लच्छन सहसरु आठ तन, समचतुष्क संठाने । वज्रवृपभनाराचजुत, ये जनमत दश जान || १ अत्यन्त सुन्दर शरीर, २ अति सुगन्धमय शरीर, ३ १ अद्भुत बात, ऐसी अनोखी बात जो साधारण मनुष्यों में न पाई जावे । २ अनत । ३ पसीना । ४ जिसकी कोई तुलना न हो । ५ सुडौल 1 सुन्दर आकार | 144
SR No.010158
Book TitleBalbodh Jain Dharm Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachand Goyaliya
PublisherDaya Sudhakar Karyalaya
Publication Year
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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