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________________ (३४) राग-द्वेप छोड़कर, अपने शुद्ध आत्मस्वरूपमें लीन होना, सामायिक कहलाता है। सामायिक करनेवालेको प्रातःकाल __ और सायंकाल किसी उपद्रव रहित एकांत स्थानमे तथा घर, धर्मशाला अथवा मंदिरमे आसन वगैरह ठीक करके सामायिक करना चाहिये और विचारना चाहिये कि जिस संसारमे मैं रहता हूँ, अशरणरूप, अशुभरूप, अनित्य, दुःखमयी और पररूप है और मोक्ष उससे विपरीत है इत्यादि । __ प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशीको समस्त आरम्भ छोड़ना __ और विषय कषाय तथा आहार पानीका १६ पहरतक त्याग करना, प्रोषधोपवास कहलाता है। प्रोषध एक वार भोजन करने अर्थात् एकाशनका नाम है । एकाशनके साथ उपवास करना प्रोषधोपवास कहलाता है। जैसे किसी पुरुषको अष्टमीका प्रोषधोपवास करना है, तो उसे सप्तमी और नवमीको एकाशन और अष्टमीको उपवास करना चाहिये और शृंगार आरंभ, गंध, पुष्प ( तेल, इतर फुलेल ), स्नान, अंजन सूंघनी वगैरह चीजोंका त्याग करना चाहिये । यह उत्कृष्ट प्रोषधोपवासकी रीति है । व्रती प्रत्येक अष्टमी व चतुर्दशीको कमसे कम एकभुक्त करके भी धर्मध्यान कर सकता है । ३ भोजन, वस्त्र, आभूण आदि भोगोपभोग वस्तुओको जन्मपर्यन्त अथवा कुछ कालकी मर्यादा लेकर त्याग करना १ जो वस्तु एक बार ही सेवन करनेमें आती है, वह भोग है, जैसे भोजन और जो वस्तु बार वार भोगनेमें आती है वह उपभोग है, जैसे वस्त्र, चारपाई, स्त्री। कहीं कहींपर भोगको उपभोग और उपभोगको परिभोग भी कहा है।
SR No.010158
Book TitleBalbodh Jain Dharm Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachand Goyaliya
PublisherDaya Sudhakar Karyalaya
Publication Year
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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