Book Title: Balbodh Jain Dharm Part 01
Author(s): Dayachand Goyaliya
Publisher: Daya Sudhakar Karyalaya

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Page 124
________________ (५०) __ ५ भेद हैं:-सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्ध, सूक्ष्मसौंपराय, यथाख्यात । निर्जरा। कर्मोंका थोड़ा थोड़ा भाग क्षय होते जाना निर्जरा है। जैसे नावमे पानी भर गया था, उसे थोड़ा थोड़ा करके बाहर फेकना, इसी प्रकार आत्माके जो कर्म इकट्ठे हो रहे हैं, उनका थोडा थोडा क्षय होना निर्जरा है । इसके भी दो भेद हैं-१ भावनिर्जरा, २ द्रव्यनिर्जरा । आत्माके जिस भावसे कर्म अपना फल देकर नष्ट होता है, वह भावनिर्जरा है और समय पाकर तपसे नाश होना द्रव्यनिर्जरा है। मोक्ष। सब कर्मोंका क्षय हो जाना मोक्ष है । जैसे एक नावका भरा हुआ पानी वाहर फेका जाय तो ज्यो ज्यों उसका पानी बाहर फेंका जाता है त्यो त्यों वह नाव ऊपर आती जाती है, यहाँ तक कि विलकुल पानीके ऊपर आ जाती है, १ सब जीवोंमें समता भाव रखना, सुख दुःखमें समान रहना, शुम अशुभ विकल्पोंका त्याग करना, सामायिकचारित्र है। २ सामायिकसे डिग जानेपर फिर अपनेको अपनी शुद्ध आत्माको अनुभवमें लगाना तथा व्रतादिकमें भग पड़नेपर प्रायश्चित्त वगैरह लेकर सावधान होना, छेदोपस्थापनाचारित्र है । ३ रागद्वेषादि विकल्पोंका त्यागकर अधिकताके साथ आत्म-शुद्धि करना . परिहारविशुद्धिचारित्र है। ४ अपनी आत्माको कषायसे रहित करते करते . सूक्ष्मलोभ कपाय नाम मात्रको रह जाय, उसको सूक्ष्मसापराय कहते हैं। उसके भी दूर करनेकी कोशिश करना सूक्ष्मसाम्परायचारित्र है। ५ कषाय, रहित जैसा निष्कप आत्माका शुद्ध स्वभाव है, वैसा होकर उसमें मम होना ' • यथाख्यातचारित्र है।

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