Book Title: Balbodh Jain Dharm Part 01
Author(s): Dayachand Goyaliya
Publisher: Daya Sudhakar Karyalaya

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Page 134
________________ (६०) ३ आंगोपांग ( औदारिक, वैक्रियक, आहारक, )—इस नाम कर्मके उदयसे हाथ, पैर, सिर, पीठ वगैरह अंग और ललाट, नासिका वगैरह उपांगका भेद प्रगट होता है । ४ निर्माण *-इस नाम कर्मके उदयसे आंगोपांगकी ठीक ठीक रचना होती है। ५ बंधन (औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस, कार्माण )---इस नाम कर्मके उदयसे औदारिक आदि शरीरोके परमाणु आपसमें मिल जाते हैं । ६ संघात ( औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस कार्माण )-इस नाम कर्मके उदयसे औदारिक आदि शरीरोके परमाणु विना छिद्रके एकरूपमें मिल जाते हैं। ७ संस्थान ( समचतुरस्रसंस्थान, न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थान स्वातिसंस्थान, कुब्जकसंस्थान, वामनसंस्थान सकता है, और अनेक प्रकारके रूप धारण कर सकता है। आहारकशरीर छटे गुणस्थानवर्ती उत्तम मुनिके होता है । जिस समय मुनिको कोई शंका होती हैं, उस समय उनके मस्तकसे एक हाथका पुरुषके आकारका सफेद रगका पुतला निकलता है और वह केवली या श्रुतकेवली के पास जाता है; पास जाते ही मुनिकी शंका दूर हो जाती है, और पुतला वापस आकर मुनिके शरीर में प्रवेश हो जाता है, यही आहारकगरीर कहलाता है। तैजसगरीर वह है जिसके उदयसे शरीरमें तेज बना रहता है । कर्माणगरीर कर्मोंके पिंडको कहते हैं । तैजस, कार्माण ये दोनों शरीर हरएक संसारी नीवके हैं। ___* निर्माणनामकर्मके २ भेद हैं:-१ स्थान निर्माण, प्रमाणनिर्माण । स्थाननिर्माणनामकर्मसे अगोपागकी रचना ठीक ठीक स्थानपर होती है और प्रमाण निर्माणनामकर्मसे अगोपागकी रचना ठीक ठीक नामसे । ती है, उस निकलता हो जाती कशरीर करणार

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