Book Title: Balbodh Jain Dharm Part 01
Author(s): Dayachand Goyaliya
Publisher: Daya Sudhakar Karyalaya

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Page 117
________________ ( ४३ ) आत्मा निज भावोसे कर्म आते हैं उन्हें भावास्रव कहते हैं और शुभ अशुभ पुद्गल के परमाणुओंको द्रव्यास्रव कहते हैं । आस्रवके मुख्य ४ भेद हैं: - १ मिथ्यात्व, २ अविरति, ३ कषाय, ४ योग, इन्हीं चार खास कारणोंसे कर्मोंका आश्रव होता है | १ मिथ्यात्व - संसारकी सव वस्तुओसे जो अपनी आत्मासे अलग हैं राग और द्वेष छोड़कर केवल अपनी शुद्ध आत्मा के अनुभव निश्चय करनेको सम्यक्त्व कहते हैं । यही आत्माका असली भाव है, इससे उल्टे भावको मिथ्यात्व कहते हैं । मिथ्यात्वकी वजहसे संसारी जीवमें तरह तरहके भाव पैदा होते हैं और इसीसे मिथ्यात्व कर्मबंधका कारण है । इसके ५ भेद हैं: - १ एकांत, २ विपरीत, ३. विनय, ४ संशय, ५ अज्ञान । २ अविरति - आत्माके अपने स्वभावसे हटकर और और विषयोंमे लगना अविरति है । छह कायके जीवों की हिंसा करना और पॉच इंद्रिय और मनको वशमें नहीं करना अविरति है । ३ कर्णाय - जो आत्माको कपे अर्थात् दुःख दें, वह कषाय है | इसके २५ भेद हैं: - अनंतानुबंधी क्रोध, मान. १ वस्तुनें रहनेवाले अनेक गुगका विचार न करके उसका एक ही रूप श्रद्धान करना एकाननिघ्याल है । २ उल्टा श्रद्धान करना विपरीतनिध्याच है । ३ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान की अपेक्षा न करके चरावर विनय और बाहर करना विनयमिध्यात्व है । ४ पदार्थों सराय (वह) रहना मायमिय्याल है । ५ दिन अहितक बिना ही श्रद्धान करना अज्ञान है। का कर्मप्रकृतियोंमें किया जायगा ।

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