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दोहा । विविध भांति परिमल मुमन, भ्रमर जास आधीन ।
जासों पूजों परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥४॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः कामवाण विवमनाय पुष्प नि० स्वाहा। अति सवल मद कंदर्प जाको, क्षुधौ-उरंग अमान है।
दुस्सह भयानक तास नाशन,को सुगरुड़ समान है। उत्तम छहों रसयुक्त नित, नैवेद्य वर घृतमे पंचें । अरहंत श्रुत सिद्धांत गुरु, निरग्रन्थ नित पूजा रचें ॥५॥
दोहा। नानाविध संयुक्तरस, व्यंजन सरस नवीन । जासो पूजो परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥ ५ ॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य नि० त्वाहा । . जे त्रिजग उद्यम नाश कीने, मोहतिमिरं महाबली ।
तिहिं कर्मघातक ज्ञानदीप, प्रकाश जोतिप्रभावली ॥ इह भांति दीप प्रजाल कंचन, के सुभाजनमे खंछु । अरहंत श्रुत सिद्धांत गुरु, निरग्रंथ नित पूजा रच ।। ६॥
दोहा। स्वपरप्रकाशक जोति अति, दीपक तमरि हीन । जासो पूजो परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥ ६ ॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीप नि० स्वाहा । जो कर्म-इंधन दहन, अग्निसमूहसम उद्धत लसै। .
वर धृप तास सुगंधि ताकरि, सकल परिमलता हँसै । १ सुगन्ध । २ पुष्प । ३ क्षुधारूपी। ४ सर्प । ५ प्रमाण रहित । ६ पकवान बनाकर । ७ धीमें पकाऊँ । ८ स्वादिष्ट । ९ मोहरूपी अन्धरा । १० सजाकर ११ अन्धरा।