Book Title: Balbodh Jain Dharm Part 01
Author(s): Dayachand Goyaliya
Publisher: Daya Sudhakar Karyalaya

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Page 77
________________ जे त्रिजगउदरमझार पानी, तपत अति दुद्धर खरे । __ तिन अहितहरन सुवचन जिनके, परमशीतलता भरे ॥ तसु भ्रमरलोभित घ्राणे पावने, सरस चन्दन घसि सचूँ । अरहंत श्रुत सिद्धांत गुरु, निरग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥२॥ दोहा। चन्दन शीतलता करै, तपत वस्तु परवीन । जासों पूजों परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥२॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः ससारतापविनाशनाय चदन नि० स्वा० । यह भवसमद्र अपार तारण-, के निमित्त सुविधि ठही । अति दृढ परमपावन जथारथ, भक्ति वर नौका सही ।। उज्जल अखंडित सालि तंदुल-पुंज धरि त्रयगुण ज→ । अरहंत श्रुत सिद्धांत गुरु, निरग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥३॥ दोहा । तंदुल सालि सुगंध अति, परम अखंडित वीन । जासों पूजो परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥ ४॥ ॐ हीं देवशास्त्रगुरुभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि० स्वाहा । जे विनयवंत सुभव्य-उर-अंबुज-प्रकाशन भान हैं । जे एक मुखचारित्र भाषत, त्रिजगमांहि प्रधान हैं। लहि कुंदकमलादिक पहुँप, भव भव कुवेदनसों बचूँ । अरहंत श्रुत सिद्धांत गुरु, निरग्रन्थ नित पूजा रचूं ॥४॥ १ तीनों लोकमें। २ कठिन । ३ दुःखको हरनेवाले, हित करनेवाले ४ सुगन्ध । ५ प्रासुक । ६ श्रेष्ठ । ७ चावल । ८ हृदयकमल । ९ सूर्य १० पुष्प | ११ बुरे दुःख । - - - - -

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