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मन्दाक्रान्ता। होवै सारी प्रजाको, सुख बलयुत हो, धर्मधारी नरेशो । होवै वर्षा समैप, तिलभर न रहै, व्याधियोका अंदेशा ॥ होवै चोरी न जारी, सुसमय वरते, हो न दुष्काल भारी ॥ सारे ही देश धारे, जिनवरवृपंको, जो सदा सौख्यकारी ॥७॥
दोहा। घौतिकर्म जिन नाशकर, पायो केवलराज । शांति करें ते जगतमें, वृपभादिक जिनराज ॥ ८॥
मन्दाक्रान्ता। शास्त्रोंका हो पठन सुखदा, लाभ सत्संगतीका। सवृत्तोका सुजसं कहके दोप ढां. सभीका ।। वोलू प्यारे वचन हितके, आपका रूप ध्याऊं। तौलो सेऊं चरन जिनके, मोक्ष जोलौं न पाऊं ॥९॥
आयो। तवपद मेरे हियमें, मम हिय तेरे पुनीत चरणामे ।
तवलौं लीन रहे प्रभु, जवलौं प्राप्ती न मुक्तिपदकी हो ॥१०॥ अक्षर पद मात्रासे, दूपित जो कछु कहा गया मुझसे ।
क्षमा करो प्रभु सो सब, करुणाकरि पुनि छुड़ाहु भवदुखसे११ जगवन्धु जिनेश्वर, पाऊं तव चरणशरण बलिहारी । मरणसमाधि सुदुर्लभ, कर्मीका क्षय सुवोध सुखकारी॥१२॥
(परिपुप्पांजलिं क्षिपेत् ) १ राजा। २ धर्मका। ३ ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय अन्तराय । ४ केवलजान । ५ समीचीन व्रतधारियोंके । ६ गुण ! ७ तेरे चरण । ८ मेरा । ९ फिर।