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तीसरा भाग
२५ सोचना वगैरह कामोसे अशुभ नामकर्म चंधता है।
आपसमें मिलकर रहना, धर्मात्माको देखकर खुश होना, न कभी किसीफा युग मोचना, न युग करना, मन वचन कायको मरल रखना, ऐसे कर्मासे शुभ नामकर्म बंधना है।
गोत्र कर्म उसे कहते हैं, जो हम जीयको ऊंचे अथवा नीचे कुलमें पेदा करे। जैसे कुम्हार छोटे बरे मब तरहके वर्तन बनाता है, उसी प्रकार गोत्र कर्म हम जीवको ऊचा अधा नीचा बना देना है। उच्च गोत्रके उदयसे अच्छे चास्त्रियाले लोकमान्य कुलमें पैदा होता है और नीच गोत्रके उदय होनेमे खोटे आचरणशले लोकनिंद्य कुलमें पेढा होता है, जहां हिमा, झठ, चोरी वगैरह बुरे कर्म करता है।
दृमरेकी निन्दा और अपनी प्रशंसा करनेसे, देव गुरु शास्त्रका अविनय करनेसे, अपनी, जाति, कुल, रूप, विद्याका घमण्ड करनेसे नीच गोत्र बंधता है।
दृमरोंकी प्रशंसा करने, स्वयं विनीत भावसे रहने और अहंकार नहीं करनेसे नीच गोत्र संधता है । __अन्तराय कर्म उसे कहते हैं, जिसके उदयसे किसी कार्यमें विघ्न आजाय अथश जो किसी कार्यमें विघ्न डाले । जैसे किसी महाराजने किमी विद्यार्थीके लिये १००) रु० देनेकी आज्ञा दी, परन्तु खजांची सादबने कुछ गडबड करके अथवा कुछ वहाना बना करके वह रुपया नही दिया। अर्थात् विद्यार्थीके सौ रुपये मिलनेसे खजांची साहन्न विवरूप होगए । इसी प्रकार