Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन
करता हूँ। जो ग्यारह अंग, बारह उपांग, चार मूल सूत्र, चार छेदसूत्र के ज्ञाता हैं, चरण सत्तरी, करण - सत्तरी के ज्ञाता हैं, पठन-पाठन में कुशल- ऐसे उपाध्याय भगवान् की मैं सम्यक् अनुमोदना करता हूँ । पांच समिति, तीन गुप्ति का पालन करने वाले, दस प्रकार के यतिधर्म का पालन करने वाले- ऐसे श्रमण - श्रमणियों की मैं सम्यक् अनुमोदना करता हूँ । सामायिक करने वाले पौषध करने वाले, अणुव्रतों को ग्रहण करने वाले विधिपूर्वक जिनेन्द्र पूजा करने वाले श्रावक-श्राविकाओं की मैं अनुमोदना करता हूँ। जिन- भगवान् के जन्म पर महर्षियों के पारणे पर उत्सव करने वाले, जिन - शासन में भक्ति रखने वाले प्रमुख देवों की मैं अनुमोदना करता हूँ। मैं धन्य हूँ कि मुझे सम्यग्ज्ञान, सम्यक्दर्शन, सम्यक्चारित्र - रूप त्रिरत्नों की आराधना करने का सुअवसर प्राप्त हुआ है। मेरे द्वारा आचार्यों, वाचनाचार्यो, स्थविरों, नवदीक्षित साधुओं, क्षपकों, ग्लानों की जो भी वैयावृत्य की गई, तथा मेरे द्वारा पाँच समिति, तीन गुप्ति का जो सम्यक् प्रकार से परिपालन किया गया, मेरे द्वारा शास्त्रों का पठन-पाठन किया गया, कालोकाल - प्रतिलेखन तथा आवश्यकादि क्रिया से की गई दस प्रकार की सामाचारी का पालन किया गया, धर्मदेशना दी गई, नवदीक्षित साधुओं को पढ़ाने के लिये अपूर्व शास्त्रों का अवगाहन किया गया, विनयशील शिष्य तैयार किए गए, उग्र परिषहों को सहन किया गया, बयालीस दोषों को टालकर निर्दोष भिक्षादि ग्रहण की गई, शान्तिपूर्वक केशलुंचन करवाया गया, पाँचों इन्द्रियों को वश में किया गया, भव्य जीवों को प्रतिबोध देकर उन्मार्ग से हटाकर सन्मार्ग में स्थापित किया गया- इनमें से जो भी कल्याणकारी कार्य मेरे द्वारा अनुष्ठित किए गए हों, उनकी मैं अनुमोदना करता हूँ। क्षपक आगे कहता है- मैं धन्य हूँ कि मैने मिथ्यात्व का त्याग कर चिन्तामणि के समान सम्यक्त्वरूपी रत्न को प्राप्त किया, देव-दुर्लभ जिन-धर्म को मैंने प्राप्त किया, पापरूपी आश्रव का निवारण करने वाला सुगुरु का उपदेश मेरे द्वारा श्रवण किया गया, मेरे द्वारा जीव-अजीव नौ तत्त्वों का ज्ञान किया गया, तीर्थ-यात्रा, गुरुयात्रा, रथयात्रा, अनुष्ठित की गई, चैत्यालय बनाकर उसमें त्रिजगपूज्य मनोहर प्रतिमाएं प्रतिष्ठित करवाई गई, मेरे द्वारा संघपूजा की गई। महान् अभिग्रह - धारी को अनेक बार आहार- दान दिया गया, मेरे द्वारा वाचनालय का निर्माण करवाया गया, मेरे द्वारा भव्य जीवों को प्रतिबोध देकर प्रव्रज्या - उत्सव सम्पन्न करवाए गए, मेरे द्वारा मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया गया, औषधशालाओं का निर्माण किया गया एवं परिग्रह - परिमाण - व्रत ग्रहण किया गया, प्रतिमाओं को सुसज्जित करने के लिए श्रीवत्स - तिलक - मुकुट आदि आभरण बनवाए गए, आजीवन दोनों समय सामायिक का अनुष्ठान किया गया, जो ग्लान - वृद्ध साधु हैं, उनकी भक्तिभावपूर्वक सेवा की गई, मेरे हृदय में आजन्म गुरुभक्ति धारण की गई, विद्यार्थियों के लिए स्कूलों का निर्माण करवाया गया- इस प्रकार, अन्य भी जो सुकृत कार्य जिन भगवान् के वचनों के अनुसार किए गए, करवाए गए या उन्मोदित किए गए, उन सबकी मैं अनुमोदना करता हूँ ।
प्रस्तुत कृति के बीसवें क्षमायाचना -द्वार (गाथा 350 - 469 ) यह कहा गया है कि क्षपक अब अपने सुचरित्र की अनुमोदना करके, पापों का प्रक्षालन करके, अब चार गति के जीवों को समभावपूर्वक क्षमा करता है। नारकीय जीवों के दुःखों का स्मरण करता हुआ क्षपक कहता है- वहां भी रत्नादि पृथ्वियों के भेद से भिन्न परमाधर्मी को परस्पर क्षेत्रज - वेदना व अपने आप को दिए जाने वाले दुःखों से दुःखी नारकों के कुम्भीपाक, तीक्ष्ण सूलीकारोहण, वैतरणी नदी-तारण, तपे हुए लोहे की पुतली का संग, सीसा -पान, अत्यधिक भार से भरे हुए रथ को खींचना, भुजियों के समान तला जाना, रसयुक्त पदार्थ के समान गलाया जाना, लोहे के अंगारों को खिलाया जाना आदि अनन्तकाल से मेरे द्वारा जो दुःख दिए गए, उन सबके लिए मैं क्षमा-याचना करता हूँ। अब मैं तिर्यंचों को भी
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