Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन
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- वे क्षुद्र आदि गण में कलह, परिताप आदि दोष करें, तो उसे देखकर ममत्व-भाव से आचार्य को असमाधि हो सकती है। अपने शिष्य-वर्ग के छोटी-बड़ी व्याधियों से पीड़ित होने पर आचार्य को दुःख हो सकता है, अथवा स्नेह पैदा हो सकता है, उससे आत्मसमाधि की हानि हो सकती है।
अपने गण में रहकर समाधि करने पर प्यास आदि परीषह उत्पन्न होने पर क्षपक भय तथा लज्जा को त्यागकर शिष्य से याचना भी कर सकता है, क्योंकि वहाँ उसे कोई भय नहीं रहता, क्योंकि सब उसी के शिष्यगण हैं। वृद्ध यतियों को, जिन्हें बचपन से अपनी गोद में बैठाकर पाला है, उन बाल यतियों को, आर्यिकाओं को अनाथ होते देखकर मरते समय सर्वदा के लिए वियोग होने, पर स्नेह पैदा हो सकता है। क्षुल्लक-क्षुल्लिकाएँ, अर्थात् बालमुनि और आर्यिका भी गुरु का वियोग देखकर रो पड़ते हैं, तो आचार्य के ध्यान मे विघ्न और असमाधि होती है।
खानपान और सेवा-टहल में शिष्यवर्ग के प्रमाद करने पर आचार्य को असमाधि हो सकती है, अर्थात् आचार्य को यह विकल्प पैदा हो सकता है कि हमने इनका उपकार किया और यह हमारी सेवा भी नहीं करते, इससे ध्यान में विघात होने से समाधि बिगड़ सकती है।।
ये दोष विशेष रूप से अपने गण में रहकर समाधि करने वाले आचार्य से होते हैं। अन्य जहाँ भी, जो उपाध्याय या प्रवर्तक अपने गण में रहकर समाधिमरण करते हैं, उनके भी प्रायः ये दोष होते हैं। ये सब दोष दूसरे गण में निवास करने वाले आचार्य को नहीं होते, इसलिए समाधिमरण का इच्छुक आचार्य अपना गण छोड़कर परगण में समाधि के लिए जाता है। समाधिमरण की प्रक्रिया का द्वितीय कर्तव्य पूर्वकृत्यों की आलोचना
जो आचार्य या क्षपक-मुनि समाधिमरण ग्रहण करना चाहता है, उसे सर्वप्रथम यथासम्भव अपने गण का त्याग करना चाहिए। उसके बाद वह अन्य आचार्य के समक्ष पूर्वकृत्यों की आलोचना करे। प्रस्तुत कृति के पन्द्रहवें आलोचना-द्वार में यह बताया गया है कि क्षपक गीतार्थ-गुरु, अर्थात् जिसके सान्निध्य में वह समाधिमरण करना चाहता है, उन्हीं के सान्निध्य में निष्कपट हृदय से अपने पूर्वकृत्यों की आलोचना करें, क्योंकि जिनशासन में सशल्य-आराधना से आत्मशुद्धि नहीं होती है।'
जिस प्रकार एक बालक निष्कपट भाव से या सरल हृदय से अपने कृत्य-अकृत्य कार्यों को सरलतापर्वक कह देता है, उसी प्रकार क्षपक भी अज्ञानतावश या राग-द्वेष के थवा अन्य किसी भी कारण से जो कुछ भी अकृत्य किया हो, उनका स्मरण करके उनकी पुनरावृत्ति न करने का प्रण करे, उसका प्रतिक्रमण करे तथा मन पर उनका भार नहीं रखे। इसी प्रकार, आगे इसी आलोचना-द्वार में बताया गया है कि भवव्याधि-विदारक वैद्य के समान ज्ञान का, ज्ञानीजनों का, ज्ञानोपकारकों का, पुस्तक, पुस्तक-पोथीरूप ज्ञान के उपकरणों के प्रति जो भी प्रदोष, निन्दा, हीलना, अविनय, उपहास किया हो, तो उसकी आलोचना करे।
'सगुरुण अलाभम्मि आलोएज्जाऽववायओ।
पासत्थाणं पि गीयाणं काउं सव्वं पि तं विहिं।। - आराधनापताका -गाथा- 169 जह बालो जंपंतो कज्जंमकजं च उज्जुयं भणइ। तं तह आलोएज्जा माया मय-विप्पमुक्को य।। - आराधनापताका - 172 नाणोवगारयाणं पुत्थीणं पुत्थयाण कवलीणं। पट्टीण टिप्पणाणं पइपभिईणं अणेगाणं।। निंदा-पओस-हीला-अविणय-उवहास- चरणघट्टाई। आसायणा मए जा विहिया इण्हिं तमालोए।। - वही - 178-179
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