Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 201
________________ प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन ( गाथा 136 - 40 ), संस्तारक ( गाथा 86 ), जीतकल्पभाष्य ( गाथा 532 ) विशेषावश्यकभाष्य (गाथा 3341-44 ) आदि अनेक ग्रन्थों में उपलब्ध होती है। 187 आराधनापताका में समाधिमरण के समबन्ध में गाथा क्रमांक 803 में उदायन का कथानक दिया गया है, जो मंत्री द्वारा विष देने पर भी समताभाव की साधना कर निर्वाण को प्राप्त हुए । उज्जयिनी का राजा चण्डप्रद्योत जितना लड़ाकू और युद्धप्रिय था, उतना ही कामुक और परनारी के प्रति आसक्त रहने वाला था । एक दासी के प्रसंग को लेकर चण्डप्रद्योत और सिन्धु सौवीर के राजा उदायन में घमासान युद्ध हुआ । राजा उदायन और चण्डप्रद्योत परस्पर साढू थे । उदायन की रानी प्रभावती और प्रद्योत की रानी शिवादेवी वैशाली के गणाधिपति चेटक की पुत्रियाँ थी । राजनीति में नाते-रिश्तों को भुलाकर अपना-अपना स्वार्थ देखा जाता है। चण्डप्रद्योत ने उदायन की दासी का अपहरण कर लिया । एतदर्थ, दोनों में युद्ध हुआ । उदायन भी पराक्रमी राजा था, उसने प्रद्योत को बन्दी बना लिया। इतने पर भी प्रद्योत था तो एक राजा ही। उसे अपने बन्दी होने पर बहुत ग्लानि हुई । कुछ दिन बीते, तो जैनों का पर्व पर्यूषण आया । धर्मनिष्ठ श्रावक के लिए इस पर्व का बहुत महत्व है । भूले-बिसरे, जाने-अनजाने अपराधों की क्षमा मांगकर श्रावक कर्मबंध से बच जाता है। अपने शत्रु से भी क्षमा माँगने की यह परम्परा बड़े महत्व की है। राजा उदायन ने भी उस दिन चण्डप्रद्योत से क्षमा माँगी । "राजन! मैं आपसे क्षमा माँगता हूँ।" "क्षमा की खाना पूरी का क्या अर्थ है, राजन?” चण्डप्रद्योत ने कहा, "मैं आपका कैदी हूँ। कैदी से क्षमा मांगने का अर्थ है, उसका मजाक उड़ाना । पर्यूषण की आराधना का यह कैसा मजाक कर रहे हैं आप ?" उदायन की आँखे खुल गई। उसे अपनी भूल तुरन्त मालूम हो गई और उन्होंने तुरन्त ही चण्डप्रद्योत को गुरु बनाकर सच्चे अर्थो में क्षमा माँगी । चण्डप्रद्योत भी उदायन की महानता और उसके हृदय की सरलता से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका। दोनों गले मिले। सम्मान के साथ उदयन ने प्रद्योत को विदा कर दिया । इस घटना का उदायन के जीवन पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उसके मन में दीक्षा लेने की भावना प्रबल हो उठी और उसने सोचा- 'कितना अच्छा होता कि भगवान् महावीर मेरी नगरी वीतभय में पधारते ।" भगवान् भक्त की सदा सुनते है। महावीर तक भी उदायन की भावना पहुँच गई । उन दिनों महावीर चम्पा नगरी में थे। चम्पा से वीतभय की यात्रा कठिन थी, पर उदायन की भावना ने महावीर को चुम्बक की तरह खींचा। वीतभय में महावीर स्वामी का समवशरण जुड़ा। उदायन ने श्रमणदीक्षा ले ली और अपना राज्य अपने पुत्र अभीत्रिकुमार को न देकर भानजे केशीकुमार को दिया । राजा उदायन ने सोचा था कि राज्य - राज्य का बन्धन जब मेरे लिए नरक का द्वार है तो मैं अपने पुत्र को ही इस भोगपंक में क्यों डालूँ । राजर्षि उदायन ने श्रमणवृन्द के साथ अन्यत्र विहार किया। महावीर ने विहार कर विदेह-क्षेत्र के वाणिज्य ग्राम में वर्षावास किया था। राजर्षि उदायन ने कठोर तप करना शुरु कर दिया। कालान्तर में वे बीमार पड़ गए और बीमारी की दशा में ही विहार करते हुए वे एक बार अपनी नगरी वीतभय में पहुँच गए। उन्हें देख केशीकुमार के मन्त्रियों ने उनसे कहा- "आपके मामा की राज्य-भोग की इच्छा पुनः उभर आई है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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